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bhootnath by devkinandan khatri

इन्द्रदेव अपने कैलाश-भवन से नजरबाग में संध्या के समय क्यारियों में घूम-फिर कर गुलबूटों का आनन्द ले रहे थे जब कुँवर गोपालसिंह की आने की उन्हें इत्तिला मिली। वे खुशी-खुशी कदम बढ़ाए हुए दरवाजे की तरफ गए तथा इस्तकबाल करके उन्हें अपने साथ पुन: उसी नजरबाग में ले आये और एक चबूतरे पर जहाँ कई कुर्सियाँ बिछी हुई थीं, दोनों आदमी बैठकर बातें करने लगे।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

इन्द्रदेव : आज तो आपके अनूठे दर्शन हुए! भला किसी तरह मेरी याद तो आयी!

कुँवरसिंह : (मुसकुराते हुए) अगर आप मुझे भूल गये तो क्या मैं भी आपको भूल जाऊँ!

इन्द्रदेव : असल में तो मित्रों और मुलाकातियों को भूल जाना आप ही लोगों का काम है, मैं तो गरीब आदमी हूँ जो किसी भी अपने अमीर मेहरबानों को भूल नहीं सकता।

कुँवरसिंह : यही सबब है कि इतने दिनों तक आपने मेरी खबर न ली। आखिर मैं अपनी जिंदगी से नाउम्मीद होकर आपके पास दौड़ा आया, सोचा कि क्या जाने कल को क्या हो जाय, एक दफे चल के मुलाकात तो कर लें।

इन्द्रदेव : इसका क्या अर्थ है? जिंदगी से नाउम्मीद हो जाना कैसा?

कुँवरसिंह : सुना है कि मेरे चाचा साहब मुझसे नाखुश हैं और मुझे तथा मेरे पिता को भी मार डालने की फिक्र में पड़े हैं।

इन्द्रदेव : (हँसकर) यह आपको किसने कह दिया? भैया राजा ऐसे महात्मा आदमी पर ऐसा कलंक लगाने वाला कौन निकल आया! स्वप्न में भी मुझे ऐसी बेतुकी बातों पर विश्वास नहीं हो सकता। क्या उनका कुछ पता लगा?

कुँवरसिंह : हाँ, आपके गुरुभाई साहब ने ही तो यह बात कही है!

इतना कहकर गोपालसिंह ने दारोगा साहब का कुल हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं इन्द्रदेव से बयान किया और पूछा कि ‘इस मामले में आपकी क्या राय है?’

इन्द्रदेव : असल में जो कुछ मामला है उसे मैं खूब जानता हूँ मगर अपनी तरफ से मैं दारोगा को नुकसान पहुँचाना नहीं चाहता और आपसे भी ऐसी ही आशा रखता हूँ। परन्तु मैं यह जरूर कहूँगा कि आप अपने चाचा साहब की तरफ से बिलकुल ही बेफिक्र रहिए और दारोगा की तरफ से क्षण-भर के लिए भी गाफिल मत होइए। यह तो मुझे विश्वास नहीं है कि वह आपको तकलीफ देगा मगर इसमें कोई शक नहीं है कि वह आपके चाचा साहब की जानी दुश्मन है और एक दफे उन पर अच्छी तरह हाथ साफ कर चुका है मगर ईश्वर ने उनकी जान बचा ली।

कुँवरसिंह : अच्छा यह तो बताइए कि चाचाजी और दारोगा के बीच में दुश्मनी क्यों पैदा हो गई और चाचाजी ने एकदम से हम लोगों को क्यों छोड़ दिया?

इन्द्रदेव : मामला बड़ा पेचीदा है। असल में वह आपके चाचा साहब का दुश्मन न था, मगर मजबूर होकर अपनी जान बचाने के लिए उनसे दुश्मनी करने की जरूरत पड़ी।

यदि आप इस बात का वादा करें कि मेरी तरह से आप भी इस भेद को छिपाए रहेंगे और उन दोनों का फैसला उन्हीं दोनों की अकल पर छोड़ देंगे तो मैं आपसे यह रहस्य बयान करूँ।

इसमें शक नहीं कि मेरी जुबानी जो आप सुनेंगे उससे आपको दारोगा पर क्रोध जरूर आवेगा परन्तु आपके लिए बेहतर यही होगा कि आप दोनों में से किसी का भी पक्ष न लें क्योंकि आपके पिता दारोगा साहब को इष्टदेव की तरह मानते हैं और हम लोगों के हजार कहने पर भी वे दारोगा को झूठा और नमकहराम नहीं समझेंगे, ऐसी अवस्था में अपनी जबान हिलाकर राजा साहब से बुरे बनना बुद्धिमानी के विरुद्ध है, मौका मिलने पर जो कुछ होगा देखा जाएगा।

कुँवरसिंह : आपका कहना बहुत ठीक है, आप भरोसा रखें कि मैं आपकी आज्ञा के विरुद्ध कभी कोई काम न करूँगा और इस भेद को जब तक आप न कहेंगे आप ही की तरह अपने दिल में छिपाए रहूँगा तथा दरोगा को भी मालूम न होने दूंगा कि मैं उससे होशियार हूँ।

इन्द्रदेवसिंह : ऐसा ही होना चाहिए, अच्छा सुनिए मैं आपसे असल भेद कहता हूँ। आपको दयाराम का कुछ हाल मालूम है ?

कुँवरसिंह : इतना मुझे आप ही ने कहा था कि उन्हें राजसिंह कैद करके ले गया था और वे धोखे में भूतनाथ के हाथ से मारे गए। बस इससे ज्यादा मुझे कुछ भी नहीं मालूम है।

इन्द्रदेव : हाँ बेशक् मैंने आपसे कहा था मगर यह नहीं कहा था कि उनकी दोनों स्त्रियाँ मेरे पास जीती-जागती मौजूद हैं क्योंकि उनके मरने की खबर तमाम दुनिया में फैल चुकी थी।

यह भेद मैंने आपसे इसलिए छिपा रखा था कि उन दोनों ने भूतनाथ से अपने पति का बदला लेने के लिए प्रण कर लिया था मगर भूतनाथ का वे कुछ बिगाड़ नहीं सकती थी क्योंकि वह बड़ा ही होशियार है और मैं भी इस खयाल से भूतनाथ का मारा जाना पसन्द नहीं करता था कि असल में उसका कोई कसूर नहीं है, उसने जान-बूझकर दयाराम को नहीं मारा था बल्कि धोखे में ऐसी घटना हो जाने का उसे बड़ा ही दु:ख था मगर चूँकि दलीपशाह वगैरह को यह बात मामूली थी और दलीपशाह पर भूतनाथ का भरोसा नहीं था।

इसलिए भूतनाथ इस फिक्र में बराबर ही लगा रहता था कि भेद खुलने न पाए और मैं बदनाम न हो जाऊँ। दयाराम की दोनों स्त्रियों को मैंने इस बात की इजाजत दे दी कि तुम लोग गदाधरसिंह से बदला लो और स्वयं उनकी मदद भी करता रहा पर इस बात की सख्त ताकीद कर दी कि गदाधरसिंह की जान पर कोई धक्का लगने न पाए। मगर वे उस काम को बखूबी और खूबसूरती के साथ न कर सकीं, यहाँ तक कि गदाधरसिंह पर उनका भेद खुल गया और वह उन दोनों को मार डालने की फिक्र में पड़ा,

क्योंकि उसे उन दोनों के जरिए से अपनी बदनामी का खयाल हो गया। इस काम में गदाधरसिंह ने दारोगा से मदद ली और दारोगा ने उन दोनों को तथा साथ ही उनके प्रभाकर सिंह और इन्दुमति कावे भी गिरफ्तार कर लिया। यह हाल भैया राजा को मालूम हो गया और वे उन सभों को छुड़ाने के लिए दारोगा पर टूट पड़े मगर दारोगा ने अपना भेद छिपाए रखने की नीयत से भैया राजा को भी कैद कर लिया। मैंने बड़ी मुश्किल से उन सभों को दारोगा और गदाधरसिंह के पंजे से छुड़ाया, ऐसे ढंग से कि अभी तक दारोगा तथा गदाधरसिंह को इस बात का गुमान भी न हुआ होगा कि मैंने ही उन सभों को उनके पंजे से छुड़ाया था।

कुँवरसिंह : (आश्चर्य करते हुए) यह तो बहुत ही अनूठा किस्सा आप बयान कर रहे हैं! मगर कहने के ढंग से मालूम होता है कि आप बहुत संक्षेप में कह रहे हैं, ऐसे नहीं, आप मेहरबानी करके खूब खुलासे तौर पर बयान कीजिए।

इन्द्रदेव : आप मेरे दिली दोस्त हैं इसलिए मैं आपसे यह भेद की बात कह रहा हूँ मगर खूब होशियार रहें कि कोई आपे दिल के अन्दर से यह भेद निकलने न पावे बल्कि किसी को गुमान भी न होने पावे कि यह हाल आपको मालूम है, मैं खुलासा बयान करता हूँ।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने जमना, सरस्वती, इन्दुमति, प्रभाकर सिंह, दारोगा और भूतनाथ इत्यादि का तथा इनको अपने मदद करने का कुल हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं, गोपालसिंह से बयान किया। दयाराम, निरंजनी, छन्नो और ध्यानसिंह वगैरह का हाल भी कहा, मगर यह नहीं कहा कि दयाराम को हम दारोगा की कैद से छुड़ा लाए हैं और वे अब फलानी जगह हैं।

सबके अंत में इन्द्रदेव ने अपनी तरफ की यह राय दी–“मेरी समझ में तो गदाधरसिंह और दारोगा वगैरह सभी बेकसूर समझे जा सकते हैं, क्योंकि सभी ने अपनी-अपनी जान बचाने के लिए ही ऐसे पाप किये। मगर फिर भी आपके दारोगा साहब की नीयत अच्छी नहीं है। हम नहीं कह सकते कि उनके पापों की गिनती कहाँ तक तरक्की करेगी मगर आपको अभी एकदम से सन्नाटा खींचे रहना चाहिए, क्योंकि अगर आप ऐसा न करेंगे तो राजा साहब की मुहब्बत आप पर से जाती रहेगी। देखिए भैया राजा से राजा साहब को कितनी मुहब्बत थी मगर अब इस समय दारोगा के सामने उस मुहब्बत की कुछ भी कदर न रही।”

कुँवरसिंह : आपका कहना बहुत ठीक है, जो कुछ आपने कहा मैं वैसे ही करूँगा। मगर इस किस्से को सुनकर तो मैं हैरान हो गया, मेरी बुद्धि ठिकाने न रही! ताज्जुब नहीं कि कई दिनों तक मुझे रात को नींद न आवे! आह, दुनिया भी क्या चीज है और इसमें कैसी-कैसी घटनाओं का आविर्भाव हुआ करता है!

इन्द्रदेव : बेचारे भैया राजा बिलकुल ही निर्दोष हैं, उनका तो व्यर्थ ही होम करते हाथ जला है, थोड़ी-सी भूल ने उन्हें बर्बाद कर रखा है।

बिना सोचे-विचारे जल्दी में जब आदमी से कोई चूक हो जाती है तो फिर उसको सम्हालना मुश्किल हो जाता है। इस दारोगा के पंजे से जब मैंने उन्हें छुड़ाया था उसी समय अगर वे महाराज के सामने आ पहुँचा तो जरूर अपना दिल ठंडा कर लेते मगर अब तो दारोगा ने अपना रंग जमा लिया। मुझे उनकी बड़ी ही फिक्र लगी हुई है, देखना चाहिए क्या होता है।

कुँवरसिंह : आपने बहुत ही अच्छा किया कि यह सब हाल मुझसे कह दिया नहीं तो क्या जाने मुझसे कोई भारी भूल हो जाती और पीछे पछताना पड़ता।

इन्द्रदेव : इसी खयाल से तो मैंने आपको होशियार कर दिया, अब आपको बड़ी होशियारी और चालाकी से काम लेना चाहिए।

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