इन्द्रदेव के कैलाश-भवन में आज हम भूतनाथ को बड़ी बेचैनी-बेताबी और उदासी के साथ बैठे हुए देखते हैं। इन्द्रदेव इस समय अपने पूजा के कमरे में बैठे पार्थिव पूजन कर रहे हैं और बीच-बीच में जब मौका मिलता है तो भूतनाथ से दो-चार बातें भी कर लेते हैं। सिवाय इन्द्रदेव और भूतनाथ के तीसरा कोई आदमी इस कमरे में दिखाई नहीं देता। हम नहीं कह सकते कि भूतनाथ को यहाँ आए हुए कितनी देर हुई है तथा इन दोनों में क्या-क्या बातें हो चुकी हैं परन्तु अब जो कुछ बातें होने वाली हैं वे जरूर सुनने के योग्य हैं।
भूतनाथ : मेरी जिंदगी तो मुफ्त में ही बरबाद हो रही है, दिन-रात दुश्मनों ही के खयाल में बीतता है। अपनी सफेद चादर में पड़े हुए एकमात्र धब्बे को ज्यों-ज्यों धोकर साफ करने की कोशिश करता हूँ त्यों-त्यों वह चादर गंदली ही होती जाती है और इसीलिए मेरी अन्तरात्मा को सिवाय कष्ट के कुछ सुख का दर्शन भी नहीं होता।
इन्द्रदेव : तुम्हारे प्रारब्ध में जो कुछ बदा है उसे तुम भोग रहे हो, इसके सिवाय और मैं क्या कहूँ। केवल तुम ही दु:ख नहीं भोगते बल्कि अपनी बेवकूफी से अपने साथ-ही-साथ अपने दोस्तों और साथियों को भी दुखी करते हो। न-मालूम कै दफे मैं तुमको समझा चुका हूँ कि तुम इन सब बखेड़ों को छोड़ो और इस बात की धुन में न पड़ो कि दयाराम के मारने का कलंक जो तुम पर लगा है उसे मिटाकर साफ करोगे मगर तुम्हारे दिल में मेरी कोई बात बैठती ही नहीं। दयाराम वाली जिस बात को केवल चार आदमी जानते थे उसे अब तुम्हारी बेवकूफी से बीस आदमी जानने लग गये हैं। तुम इस मामले को तूल न देते तो हम लोगों के मुँही से कोई गैर आदमी कभी न सुनने पाता।
भूतनाथ : बेशक् मुझसे भूल हो गई।
इन्द्रदेव : अभी तक क्या हुआ है, अभी तो तम दिनों-दिन भूलें करते ही जाओगे। दयाराम के मारने का कलंक कोई सच्चा कलंक नहीं था, वह काम वास्तव में तुमसे धोखे से हो गया, उस संबंध में अब जो कुछ तुम कर रहे हो, वह जान-बूझ के कर रहे हो और सन सब पातकों को फल तुम्हें अवश्य भोगना ही पड़ेगा। इस समय जो तुम अपने लड़के के गम में विकल हो रहे हो यह भी इन्हीं सब पापों का फल है। ऐसा कर्म करके भी तुम अपने वंश की वृद्धि चाहते हो!
भूतनाथ : (अपनी आँखों से आँसू पोंछकर) अफसोस, मैं कहीं का न रहा।
इन्द्रदेव : बेशक् ऐसा ही है। अब नहीं तो आगे चलकर तुम वास्तव में कहीं के भी न रहोगे। मैं तुमसे यह पूछता हूँ कि जमना और सरस्वती के साथ क्या तुम्हें ऐसा ही बर्ताव उचित था जो तुमने किया?
भूतनाथ : उन्होंने खुद मेरे साथ दुश्मनी की नींव डाली। मैं नहीं चाहता था कि उनके साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव करूँ।
इन्द्रदेव : मगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि वे दोनों तुम्हारे साथ दुश्मनी करने के लिए उतारू हुईं मगर क्या कोई कह सकता है कि तुम्हारे ऐसे ऐयार का वे मुकाबिला कर सकती थी? कदापि नहीं, अगर तुम चाहते तो नेकनीयती के साथ उन्हें मालिक समझकर उनके प्रहारों को बचाते हुए नेक और खिदमती कामों से उन्हें खुश कर लेते। मगर नहीं, . तुम्हें तो ऐयारी का घमंड चढ़ा हुआ था, तुम्हारे अदृष्ट ने तुम्हारा दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था, फिर ऐसा काम होता ही क्यों? उनकी नेकनीयती और उनके पतिव्रत धर्म ने उनकी रक्षा की और अंत में तुम उनका कुछ न बिगाड़ सके।
भूतनाथ : जिसकी मदद आप करेंगे उसका भला मैं क्या बिगाड़ सकता हूँ?
इन्द्रदेव : (कुछ बिगड़े हुए ढंग से) तुम्हारे पास क्या सबूत है कि मैं उनका मददगार बना था।
भूतनाथ : सबूत तो कुछ भी नहीं है परन्तु…
इन्द्रदेव : सिवाय मेरे कोई दूसरा उन्हें तुम्हारे दोस्त दारोगा के फंदे से छुड़ा नहीं सकता था, बस यही तो कहोगे या कुछ और?
भूतनाथ : विचार तो मेरा ऐसा ही है, आज मैं आप से साफ-साफ कहता हूँ कि बेशक् मैं इस मामले में अपराधी हूँ और इसके लिए पश्चात्ताप करता हूँ।
इन्द्रदेव : जब तुम्हारे किये कुछ हो ही नहीं सका तो अब जरूर ही पश्चात्ताप करोगे परन्तु इन्दुमति और प्रभाकर सिंह के बारे में शायद तुम पश्चात्ताप भी न करो।
भूतनाथ : आज आप मुझसे बहुत ही जली-कटी बातें कर रहे हैं, ऐसा तो कभी नहीं करते थे।
पूजा-विसर्जन करके इन्द्रदेव ने जवाब दिया-
इन्द्रदेव : तुम्हारा कहना ठीक है। तुम्हारे दुष्ट कर्मों को देखते-देखते अब मेरा चित्त बहुत ही दुखी हो चुका है। मैं अपनी जुबान से तुम्हें दोस्त कह चुका हूँ उसी का निर्वाह करता चला आया हूँ, नहीं तो…
भूतनाथ : नि:सन्देह आपने आज तक उस शब्द का ऐसा निर्वाह किया कि जैसा कोई नहीं कर सकता। आपका हौसला, आपकी हिम्मत और आपकी मर्दानगी सराहने योग्य है। अब मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप मेरे अपराध को क्षमा करें। आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब से कदापि किसी पाप-कर्म में हाथ न डालूँगा।
इन्द्रदेव : तुम्हारी प्रतिज्ञा पर तो मैं विश्वास नहीं कर सकता परन्तु यह तुम स्वयं जानते हो कि मैं अपनी तरफ से तुम्हें दु:ख की इच्छा कदापि नहीं रखता और इस हिसाब से कहना चाहिए कि मैं हमेशा ही तुम्हारा कसूर माफ करता चला आता हूँ।
भूतनाथ : नि:सन्देह मुझे यह बात माननी पड़ेगी। मेरा दिल इस बात की गवाही देता है, मैं खुद समझता हूँ कि मेरे ऐसे को तबाह कर देने के लिए आपका इशारा काफी है, मगर नहीं, आप हमेशा ही मुझे समझाते और मेरे अपराधों को क्षमा करते चले आए हैं और इसी से आज मुझे पुन: आपके पास आने की हिम्मत हुई है नहीं तो वास्तव में मैं मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ, पर आज मुझे एक ऐसी बात मालूम हुई जिसके प्रकट होने से मैं सदा के लिए बेगुनाह साबित हो जा सकता हूँ और साथ ही इसके मेरा और मेरे दोस्तों का उपकार भी हो सकता है।
इन्द्रदेव : वह क्या?
भूतनाथ : मुझे इस बात का ठीक-ठीक पता लग चुका है कि दयाराम जी अभी तक जीते हैं और जमानिया के कमबख्त दारोगा ने उन्हें कैद कर रखा है। आप जानते हैं कि तिलिस्म से संबंध रखने के कारण दारोगा की ताकत कितनी बढ़ी-चढ़ी है, अस्तु यदि आप मेरी कुछ मदद करें तो मैं दयाराम को उसके कब्जे से छुड़ा लूँ। दयाराम जी के छूट जाने पर हम लोगों में एक अजीब तरह की खुशी पैदा होगी और मेरे माथे से भी सदैव के लिए कलंक का टीका मिट जाएगा।
इन्द्रदेव : (सिर हिलाकर) इस असंभव बात को भला कौन मान सकता है? भला दयाराम से दारोगा से क्या संबंध है? मैं इस बात को कदापि नहीं मान सकता और न इस आकाश-कुसुम के फेर में पड़ता हूँ। इसके अतिरिक्त तुम जानते ही हो कि दारोगा मेरा गुरुभाई है, अतएव तुम्हारी तरह उसके ऊपर भी किसी तरह का प्रहार नहीं करना चाहता। तुम्हें यदि दयाराम के जीते रहने का विश्वास हो तो जो कुछ उद्योग करते बने करो मगर मुझसे किसी तरह पर मदद पाने की आशा मत करो।
भूतनाथ : (उदास होकर) क्या आपको दयाराम जी के छूटने से प्रसन्नता न होगी?
इन्द्रदेव : होगी और जरूर होगी परन्तु इसकी कोई आशा भी तो हो!
भूतनाथ : यदि आप मेरी मदद करें तो मैं अपनी बात सच करके दिखा दूँ।
इन्द्रदेव : नहीं, दारोगा के विरुद्ध किसी कार्रवाई की मुझसे तब तक आशा मत रखो जब तक मुझे इस बात का पूरा विश्वास न हो जाये!
भूतनाथ : मुझे जिस तरह मालूम हुआ है वह हाल सुनने ही से आपको मेरी बातों पर विश्वास हो जाएगा।
इन्द्रदेव : अजी वह निरंजनी और छन्नो वाली बात ही तो! मैं इस मामले को अच्छी तरह सुन चुका हूँ। वे दोनों तथा ध्यानसिंह तुम्हें धोखे में डालना चाहते हैं। दुश्मनों की बातों पर तुम न-मालूम क्यों कर विश्वास कर बैठते हो!
भूतनाथ : (आश्चर्य से) यह बात आपको कैसे मालूम हुई?
इन्द्रदेव : मुझे सब कुछ मालूम है और जिस तरह तुमने जंगल में छिपकर छन्नो की बातें सुनी है वह भी मैं जानता हूँ, मुझसे कुछ छिपा नहीं है।
भूतनाथ : तो क्या आपके खयाल में वे सब बातें झूठ हैं?
इन्द्रदेव : झूठ, बिलकुल झूठ!
भूतनाथ : मैं स्वयं ध्यानसिंह के पास गया था। वह तो बड़े जोश से अपनी बात की पुष्टि करता है।
इन्द्रदेव : भले ही किया करे।
भूतनाथ : मगर मुझे उसकी बातों पर पूरा-पूरा विश्वास होता है।
इन्द्रदेव : अगर विश्वास होता है तो उद्योग करके देख लो।
भूतनाथ : मगर आप इस काम में कुछ भी मदद न करेंगे?
इन्द्रदेव : कदापि नहीं, तुम्हारी मदद करके मैं स्वयं बदनाम हो सकता हूँ। यद्यपि हजार दुष्टता करने पर भी तुम्हें और दारोगा को मैं बराबर माफ करता चला आया हूँ परन्तु अब किसी काम में भी तुम दोनों की मदद मैं नहीं कर सकता। बात तो यह है कि अब तुम दोनों ही से मुझे घृणा हो गई है।
भूतनाथ : मैं तो कह चुका कि भविष्य में कभी ऐसा काम न करूँगा और जो कुछ कर चुका हूँ उसके लिए माफी माँगता हूँ।
इन्द्रदेव : केवल इतना कहने ही से मैं सन्तुष्ट नहीं हो सकता। जब तक तुम दुनिया में नेक काम करके अपने बुरे कामों का प्रायश्चित न करोगे तब तक मैं तुमसे कोई वास्ता न रखूँगा। हाँ इस बात से तुम जरूर बेफिक्र हरना कि मैं तुम्हारे साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव अपनी जात से कदापि न करूँगा।
भूतनाथ : इसका तो मुझे जरूर भरोसा है और आपको भी शायद विश्वास होगा कि मैं आपका कैसा लिहाज करता हूँ। मेरी जात से आपको कभी भी तकलीफ नहीं पहुँच सकती और…
इन्द्रदेव : (बात काट कर) यह तो मैं समझता हूँ, परन्तु मेरे स्वजनों को जो तुम तकलीफ देते हो क्या उसका असर मेरे दिल पर नहीं होता है?
भूतनाथ : जरूर होता होगा, इस बात का तो मैं बेशक् कसूरवार हूँ। मगर आप देख लीजिएगा कि आइंदा मुझसे कभी ऐसी हरकत न होगी।
इन्द्रदेव : अच्छा, मैं तुम्हारी इस बात को भी आजमा कर देखूँगा।
भूतनाथ : जिस तरह आप चाहें आजमा लीजिए।
इन्द्रदेव : अच्छा अब तुम घर जाओ और दयाराम के विषय में उद्योग व्यर्थ समझो।
भूतनाथ : मैं उम्मीद करता हूँ कि इस विषय में उद्योग करने से आप मुझे रोकेंगे नहीं और मुझे मेरी हिम्मत-भर कोशिश करने देंगे।
इन्द्रदेव : नहीं-नहीं, यह कदापि न समझो कि मैं तुम्हें रोकता हूँ, हाँ, अपने दिल का विश्वास तुम पर प्रकट करता हूँ, आइंदा तुम्हारी खुशी।
भूतनाथ : अच्छा तो मैं जाता हूँ परन्तु एक बात पूछने की लालसा मेरे दिल में बनी ही रह जाएगी जिसका कहना था तो बहुत जरूरी परन्तु आपके डर से अब पूछने में संकोच होता है।
इन्द्रदेव : संकोच की कोई बात नहीं है, मैं खुले दिल से तुम्हें इजाजत देता हूँ कि जो कुछ तुम्हारे दिल में आवे कहो और पूछो। मैं पहिले कह चुका हूँ कि अपनी तरफ से तुम्हें सिवाय नसीहत करने के किसी तरह की तकलीफ कदापि न दूँगा, मगर साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि जब तक सीधी राह पर न आओगे और अपने पापों का प्रायश्चित्त न कर लोगे तब तक मैं किसी काम में तुम्हारी मदद न करूँगा, इसे खूब समझे रहना।
भूतनाथ : (कुछ सोच कर) बस जब कि आपकी तरफ से कोरा जवाब ही मिल जगया तब अब मुझे कुछ पूछने की जरूरत भी न रही।
इन्द्रदेव : (मुसकराते हुए) तथापि मैं सुन तो लूँ कि तुम क्या कहने को थे और क्या पूछना चाहते थे?
भूतनाथ : आपसे तो मैं वादा ही कर चुका हूँ कि भविष्य में अब किसी तरह का अपराध न करूंगा और आपने भी मुझे विश्वास दिला दिया है कि अपनी तरफ से किसी तरह की तकलीफ न पहुँचने देंगे, परन्तु मैं अपने चन्द बेईमान शागिर्दों की तरफ से बहुत लाचार हो रहा हूँ जो कि मुझसे बाकी हो गये हैं और मेरी जान के पीछे लगे हुए है, ताज्जुब नहीं कि मैं उनके हाथ से मारा जाऊँ, अस्तु इसी विषय में आपसे मदद चाहता था।
इस मामले को इन्द्रदेव तो जानते ही थे और उन्हीं की मदद से भूतनाथ के शागिर्दों की जान बची थी तथापि अनजान बनकर आश्चर्य का नाट्य करते हुए इन्द्रदेव ने भूतनाथ से पूछा- “क्यों ऐसा क्यों हुआ? तुम्हारे शागिर्द तो तुम्हारे बड़े भक्त थे!”
भूतनाथ : हाँ, था तो ऐसा ही मगर मुझसे उन लोगों के विषय में एक ऐसी भूल हो गई जिसके लिए मैं बहुत ही पछता रहा हूँ।
इतना कहकर भूतनाथ ने अपने शागिर्दों का हाल और उनके विषय में जो कुछ बेमुरौवती हो गयी थी सब सच-सच और साफ बयान कर दिया जिसे सुन कर इन्द्रदेव ने कहा, “मैं बहुत खुश हुआ कि तुमने यह किस्सा साफ-साफ बयान कर दिया। बेशक् वे लोग तुम्हें तकलीफ देंगे, यद्यपि मैं कह चुका हूँ कि तुम्हें किसी तरह मदद न करूँगा तथापि तुम्हारे मुरौवत से इतना वादा करता हूँ कि तुम्हारी जान की रक्षा करूँगा और उन लोगों के हाथ से तुम्हारी जान पर नौबत न आने दूँगा, इससे तुम निश्चिंत रहो, मगर तुम्हें यह किसी तरह भी मालूम होने पाएगा कि मैंने कब और किस तरह पर तुम्हारी मदद की।”

भूतनाथ : आप समर्थ हैं, जो चाहे कर सकते हैं। अब मैं आपका भरोसा पाकर कुछ निश्चिन्त हो गया, अच्छा जाता हूँ, जय माया की।
इतना कहकर भूतनाथ वहाँ से विदा हुआ, जाते समय इन्द्रदेव ने कहा, “कभी-कभी तुम मुझसे मिलते रहना जरूर।”
हमारे प्रेमी पाठक समझते होंगे कि चलो अब किस्सा खत्म हो गया और बखेड़ा निपट गया। जमना और सरस्वती को दयाराम मिल ही गये, प्रभाकर सिंह और इन्दुमति का संयोग हो ही गया, साथ ही इसके भूतनाथ ने भी यह प्रण कर लिया कि अब भविष्य में कोई बुरा काम न करेगा इत्यादि, परन्तु नहीं, जमना, सरस्वती, दयाराम, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह वगैरह के लिए सभी सुख का जमाना नहीं आया। उनका अदृष्ट अभी तक उनके सर पर नाच रहा है। जमानिया में गोपालसिंह जिस घटना के शिकार हुए थे और भूतनाथ को उस घटना से जैसा कुछ सरोकार था उसी तरह इन लोगों के भी उस घटना से घनिष्ठ संबंध था, इसलिए गोपालसिंह के साथ-ही-साथ इन सभों को बड़ी-बड़ी तकलीफें उठानी पड़ी जैसा कि आगे चलकर आपको मालूम होगा।

