भूतनाथ को इस बात की फिक्र लगी हुई थी कि भैया राजा इन्द्रदेव के घर आते ही हों और जिस तरह हो सके उन्हें फँसाना चाहिए मगर बेचारे भैया राजा को इस बात की कुछ भी खबर न थी।
भूतनाथ के चले जाने के थोड़ी ही देर बाद भैया राजा घोड़े पर सवार कैलाश-भवन के दरवाजे पर पहुँचे। खबर पाते ही इन्द्रदेव घर के बाहर निकले जिन्हें देखते ही भैया राजा घोड़े पर से उतर कर बड़े तपाक से इन्द्रदेव के गले मिलने के बाद बोले, “कहो भाई, सब खैरियत तो है? मेरे यहाँ आने में बहुत देर हो गई, क्षमा करना।”
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इन्द्रदेव ने मुसकराते हुए जवाब दिया, “ईश्वर की कृपा से सब कुशल है, चलिए घर के अन्दर चलिए जहाँ बैठे हुए बहुत-से आदमी आपका आश्चर्य के साथ इंतजार कर रहे हैं।”
भैया राजा : (इन्द्रदेव का हाथ पकड़े घर के अन्दर ले जाते हुए) आश्चर्य के साथ क्यों इंतजार कर रहे हैं?
इन्द्रदेव : सो भी अभी ही आपको मालूम हो जाएगा।
बात-की-बात में ये दोनों वहाँ जा पहुँचे जहाँ जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे। इन्द्रदेव के साथ भैया राजा को (जो कि इस समय अपनी असली सूरत में थे क्योंकि घर के अन्दर घुसते ही उन्होंने चेहरे पर से तिलिस्मी झिल्ली उतार कर हाथ में ले ली थी) आते हुए देखकर सब उठ खड़े हुए। जमना, सरस्वती और इन्दुमति ने सिर झुकाया, बलभद्र सिंह ने हाथ जोड़ा और प्रभाकर सिंह ने सलाम करके कहा, “आपके पुन: लौट कर आने से आश्चर्य होता है!”
भैया राजा : पुन: लौट कर आना कैसा?
प्रभाकर सिंह : अभी आपको यहाँ से गये आधे घंटे से कुछ ही ज्यादा हुआ होगा!
भैया राजा : (आश्चर्य से इन्द्रदेव की तरफ देखकर) मालूम होता है कि कोई ऐयार मेरी सूरत में यहाँ आकर आपको धोखा दे गया!
इन्द्रदेव : बेशक् ऐसी ही बात है, आप बैठ जाएँ तो खुलासा हाल बयान करूँ।
भैया राजा : (स्वयं बैठ जाने और सभों को बैठाने के बाद) कहो तो सही मामला क्या है? तुमको धोखा देने की हिम्मत करना किसी मामूली ऐयार का काम नहीं है।
इन्द्रदेव : बात यह है कि मैं आज किसी ‘देवबंद’ के जंगल में गया था। यद्यपि आप कह गये थे कि मैं तीसरे पहर यहाँ आऊँगा और इसलिए मुझे यहाँ मौजूद रहना वाजिब था तथापि मैं अपने शागिर्द को इस बात की ताकीद करके कि आप जाएँ तो आपको मेरे पास देवबंद के जंगल में मिलने के लिए आए, मेरे शागिर्द ने उन्हें उसी जंगल में भेज दिया। इसके कुछ देर बाद आप ही की तरह एक आदमी घोड़े पर सवार और ठीक वैसी ही झिल्ली चेहरे पर लगाए हुए आया जैसी झिल्ली मैंने आपको अपने चेहरे पर लगाने के लिए दी थी, मेरे शागिर्द ने समझा कि ये भैया राजा ही हैं, इसलिए उसे भी ‘देवबंद’ के जंगल में मेरा पता बता कर मेरे पास भेज दिया। हम दोनों ही धोखे में पड़ गए और उसे भैया राजा समझ खुले दिल से बातचीत करने लगे क्योंकि चेहरे पर की झिल्ली ने मुझे उस पर शक करने का मौका न दिया, मैं समझे हुए था कि सिवाय आपके और किसी के पास यह झिल्ली नहीं है क्योंकि मैंने सिर्फ आप ही को यह झिल्ली दी थी। एक बात और भी है, इस झिल्ली को लगाकर चाहे आप जमाने-भर को धोखा दे दें और कोई भी यह न समझे कि आपके चेहरे पर किसी प्रकार की झिल्ली लगी हुई है परन्तु मैं देखने के साथ ही समझ जाऊँगा कि चेहरे पर तिलिस्मी झिल्ली लगी हुई है अस्तु दूर ही से मैंने उस झिल्ली को समझकर मान लिया कि भैया राजा आ गए, बलभद्र सिंह को भी यही कहकर उसका परिचय दिया, और बातचीत करने लगा। कुछ देर बाद उस ऐयार ने जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह से मिलने की इच्छा प्रकट की और मैं उसे अपने साथ यहाँ पर ले आया, परन्तु, जब वह प्रभाकर सिंह तथा जमना, सरस्वती इत्यादि से बातचीत करने लगा तब उसकी बातों में कोई शब्द बेमौके आप पड़ने कारण मुझे शक पड़ गया और मैं सोचने लगा कि हो-न-हो यह कोई ऐयार है, मगर तब इसके पास यह झिल्ली कहाँ से आई! कुछ ही देर बाद मुझे याद आ गया कि इसी ढंग की दो झिल्लियाँ मैंने जमना और सरस्वती को दी हुई थीं जो कि आजकल भूतनाथ के कब्जे में होंगी। यह याद आने के साथ ही मैं चौक पड़ा और उसे भूतनाथ की निगाह से देखने लगा। यद्यपि इसके पहिले बहुत-सी बातें जो भूतनाथ के सामने मुँह से निकलने योग्य न थीं निकाली जा चुकी थीं परन्तु भूतनाथ का ख्याल आ जाने के साथ ही मैंने इशारे से सभों को उस ढंग की बात करने से रोक दिया। उस नकली भैया राजा को हम लोगों की बातों से यह निश्चय हो ही चुका था कि इस समय भैया राजा यहाँ आने वाले थे और इसी सबब से सभों ने उसे भैया राजा समझ लिया था अस्तु वह यह सोच वहाँ से शीर्घ निकल जाने के लिए जल्दी करने लगा कि अगर कहीं भैया राजा यहाँ आ गए तो भंडा फूट जाएगा। वह अपनी खुशकिस्मती समझता होगा कि आपके यहाँ आने में देर हो गई। खैर मुख्तसर यह कि बहुत जल्दी मचाता हुआ यहाँ से चला गया और उसके थोड़ी देर बाद आप आ पहुँचे।
भैया राजा : (कुछ देर तक सोचकर) भूतनाथ को यह कैसे मालूम हुआ कि मैं तिलिस्मी झिल्ली लगाकर यहाँ आऊँगा?
इन्द्रदेव : संभव है कि उसे इस बात की खबर न हो तथा वह भैया राजा बनने के लिए यहाँ आया भी न हो, सिर्फ मामूली ढंग पर मुझसे मिलने के लिए ही आया हो।
भैया राजा : हाँ, यह हो सकता है, और जब लोगों ने बिना परिश्रम ही उसे भैया राजा मान लिया तो वह भी क्यों न भैया राजा बन कर अपना काम निकालता!
इन्द्रदेव : यही तो बात है।
भैया राजा : मगर यह बात बहुत बुरी हुई! अगर वह वास्तव में भूतनाथ था तो समझ रखिए कि बहुत बुरी तरह से हम लोगों का भंडा फूट गया और अब दारोगा को भी बहुत सहज ही में असली भेद मालूम हो जाएगा!
इन्द्रदेव : जरूर ऐसा होगा और अब मुझे जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह की विशेष हिफाजत करनी पड़ेगी।
भैया राजा : बेशक् और अगर तुम ऐसा न करोगे तो बेढब धोखा खाओगे और पछताओगे। भूतनाथ मामूली आदमी नहीं है। हाँ, यह तो बताओ कि जब उसे भूतनाथ समझ ही लिया तो गिरफ्तार क्यों नहीं किया?
इन्द्रदेव : (मुस्कराकर) इसका जवाब मैं क्या दूँ? आप मेरी प्रतिज्ञा तो जानते ही हैं कि अपने हाथ से उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुँचाऊँगा क्योंकि अपनी जुबान से उसे ‘मित्र’ कह चुका हूँ।
भैया राजा : मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा को जानता हूँ मगर तुम प्रभाकर सिंह इत्यादि किसी दूसरे के हाथ से उसका भंडा फोड़ सकते थे।
इन्द्रदेव : ठीक है, मगर मैं अपने मकान के अन्दर किस तरह ऐसा कर सकता था! यों तो प्रभाकर सिंह तथा जमना और सरस्वती वगैरह सभी कोई उससे बदला लेने की कोशिश कर रहे हैं और मैं उन सभों की मदद भी कर रहा हूँ मगर फिर भी…
भैया राजा : तुम समर्थ हो और जो कुछ चाहे कर सकते हो मगर अब मेरी यह तिलिस्मी झिल्ली भी बेकार हो गई जिसके सबब से पुन: धोखा ही नहीं होगा बल्कि भूतनाथ भी देखते ही मुझे पहिचान लेगा।
इन्द्रदेव : नहीं, ऐसा न होगा, मैं इसके लिए दूसरा प्रबंध करूँगा और आपको दूसरे प्रकार की झिल्ली दूंगा। खैर यह तो बताइए कि जमानिया महल के अन्दर आप अपनी स्त्री से मिलने के लिए गये थे या नहीं और अगर गए तो वहाँ क्या कैफियत हई तथा शागिर्द आपकी कुछ मदद कर सका या नहीं?
भैया राजा : तुम्हारे शागिर्द परमानन्द ने मेरी बड़ी मदद की और अभी तक भी मेरे ही काम में लगा हुआ है। पहिले दिन जब मैं अपनी स्त्री के पास गया तब जानबूझकर ऐसी कार्रवाई की कि महल की औरतों को इस बात का शक पड़ गया कि यहाँ कोई गैर आदमी आया अथवा आता है। धीरे-धीरे यह बात भाई साहब के कान तक पहुंची और चोर की अर्थात् मेरी गिरफ्तारी का प्रबंध किया गया तथा चारों तरफ पहरा बैठाया गया। दारोगा को विश्वास हो गया कि महल के अन्दर भैया राजा ही छिपकर गया था और फिर भी जाएगा अस्तु उसने भी ऐसा प्रबंध किया कि अगर मैं गिरफ्तार होऊँ तो सीधे दारोगा के पास पहुँच जाऊँ।
इन्द्रदेव : (मुस्कुराते हुए) यह कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि वहाँ का सभी आदमी अदने से लेकर आला तक दारोगा का ताबेदार बना हुआ है।
भैया राजा : ठीक है। अस्तु मैंने परमानन्द से सलाह करके एक विचित्र कार्रवाई की और अपनी स्त्री को भी इस कार्रवाई से होशियार कर दिया जिससे समय पर वह किसी बात की चिंता न करे।
इन्द्रदेव : वह क्या कार्रवाई हुई?
भैया राजा : दारोगा के एक आदमी को जिसका नाम हरी था परमानन्द ने धोखा देकर गिरफ्तार किया और बेहोशी की हालत में उसे मेरी सूरत का बनाया, इसके बाद स्वयं वह (परमानन्द) मेरी सूरत बनकर हरी की गठरी पीठ पर लादे रात के समय मेरे साथ महल वाले नजरबाग के अन्दर पहुँचा। यह काम बड़ी आसानी से हो गया क्योंकि वहाँ के पहरे पर जो लोग मुकर्रर किये गये थे उनमें मेरे पक्षपाती भी कई आदमी थे जिनसे परमानन्द ने पहले ही बातचीत करके केवल सब बातें ही नहीं तै कर रखी थी बल्कि मेरी तरफ से उन लोगों को बहुत कुछ इनाम दे दिया था। खैर, बेहोश हरी तो पेड़ों की एक झुरमुट में डाल दिया गया और मैं कमन्द लगा कर महल के ऊपर चढ़ गया। दारोगा के पक्षपातियों को यह कब मंजूर हो सकता था कि मैं ऊपर महल ही में गिरफ्तार होकर राजा साहब के पास पहुँचा दिया जाऊँ, वे लोग तो यही चाहते थे कि मैं बाग में गिरफ्तार होऊँ और सीधे दारोगा के पास पहुँचा दिया जाऊँ। अस्तु वे सब चुप रहे और मेरे लौट आने का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर के बाद जब मैं पलटकर नीचे आया तब उन लोगों ने हल्ला मचाया और मुझे गिरफ्तार करने का उद्योग करने लगे। ऐसे समय में क्या करना होगा सो पहिले ही परमानन्द ने मुझे समझा रखा था और मैंने उसी के कहे मुताबिक काम भी किया। मुख्तसर यह कि मैं उन सभों से लड़ता हुआ एक आड़ की जगह में चला गया जहाँ परमानन्द छिपा हुआ था और वहाँ से परमानन्द बड़ी चालाकी से निकल कर मेरे बदले में उन लोगों से लड़ने लगा। दुश्मनों को इस बात का कुछ भी पता न लगा, मैं बड़ी आसानी के साथ बाग के बाहर निकल कर आड़ में हो गया और परमानन्द के आने का इंतजार करने लगा, इधर परमानन्द ने यह किया कि लड़ते-लड़ते भाग कर उस झाड़ी के अन्दर घुसा और तब कहीं और निकल गया जिसमें बेहोश हरी को छोड़ आया था। दुश्मन लोग जब वहाँ पहुँचे तो हरी को देख कर खुश हो गए और उसी भैया राजा मान कर उठा ले गये, इसके बाद परमानन्द भी बाग के बाहर निकला और मेरे पास आ पहुँचा, इसके आगे क्या हुआ सो मैं नहीं कह सकता कि दारोगा ने मेरे धोखे में हरी को मार डाला या और कुछ किया।
भैया राजा की कथा सुनकर सब कोई हँसने लगे और तब देर तक दारोगा के बेवकूफ बनने की बातें करते रहे जिसके बाद पुन: भूतनाथ के विषय में बातें आरंभ हुईं।
भैया राजा : अब तो भूतनाथ ने प्रभाकर सिंह तथा जमना इत्यादि को आपके यहाँ देख ही लिया है जिससे वह यह भी समझ ही गया होगा कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति को उसके कब्जे से छुड़ाकर उसी के शागिर्दों को फँसाने वाले इन्द्रदेव ही थे…
इन्द्रदेव : (बात काट कर) नहीं-नहीं, इस बात का निश्चय उसे नहीं होगा, हाँ भ्रम बना रहे तो नहीं कह सकता, और अगर वह ऐसा मान भी ले तो मैं कुछ परवाह नहीं कर सकता क्योंकि उसके और दारोगा के बीच में अब सुलह नहीं हो सकती।
भैया राजा : सो ठीक है मगर…
इन्द्रदेव : इसके अतिरिक्त जमना, सरस्वती और इन्दुमति के लिए मैं दूसरा प्रबंध करूँगा, हाँ प्रभाकर सिंह जरूर अब स्वतंत्र होना चाहते हैं और इनका इरादा है किए स्वयं भी भूतनाथ का मुकाबला करें।
प्रभाकर सिंह : बेशक् मेरा यही इरादा है।
भैया राजा : (इन्द्रदेव से) कोई चिंता नहीं, इन्हें किसी तरह की मदद देकर छोड़ दो। तुमने इन्हें कुछ ऐयारी भी तो सिखाई है, देखना चाहिए उस मेहनत का क्या फल लाते हैं।
इन्द्रदेव : मेरी यही राय है, परन्तु यह तो बताइए कि आप अब क्या कीजिएगा? भूतनाथ पर आपका भेद खुल गया है, अब वह नि:संदेह आपका पीछा करेगा और चाहेगा कि आपकी सूरत बन कर अपना काम निकाले, इसलिए मैं तो यही राय दूँगा कि आप प्रकट हो जाइए, कहीं ऐसा न हो कि धोखे में आपको नुकसान पहुँच जाए।
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भैया राजा : नहीं, मैं अभी प्रकट नहीं होऊँगा और न मुझे भूतनाथ का कोई खौफ ही है, फिर भी मैं तुमसे कहूँगा कि मैंने अपने लिए क्या सोच रखा है और इसे बारे में राय भी लूँगा।
इसके बाद बहुत देर तक उन सभों में बातें होती रहीं जिसे इस जगह बयान करने की कोई जरूरत नहीं जान पड़ती। संध्या होने में कुछ ही देर बाकी थी जब भैया राजा घोड़े पर सवार हो इन्द्रदेव के कैलाश-भवन से निकले और बाहर की तरफ रवाना हुए। इस समय उनका चेहरा किसी और ही ढंग का बना हुआ था। देखना चाहिए कि अब इनसे और भूतनाथ से कैसी छनती है जो बड़ी देर से घात में बैठा हुआ इनके लौटने का इंतजार कर रहा था।
भैया राजा जब इन्द्रदेव के कैलाश-भवन से निकल कर रवाना हुए तो उन्हें इस बात का गुमान भी था कि भूतनाथ मेरी ताक में लगा हुआ है और आज ही हमला करेगा, अस्तु बेफिक्री के साथ धीरे-धीरे अपने नियत स्थान की तरफ जाने लगे। कैलाश-भवन से बाहर निकलने में भूतनाथ का और इनका कई घंटे का फासला पड़ चुका था जिससे इस बीच में भूतनाथ को कई तरह से कार्रवाइयाँ करने का मौका मिल गया और उसने बड़े विचित्र ढंग का जाल इनको फँसाने के लिए फैला डाला।
सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे और उनकी चला-चली के कारण आसमान के पश्चिम तरफ यद्यपि गहरी लालिमा छा रही थी तथापि बादल के छोटे-बड़े टुकड़े पूरब की तरफ से उमड़ कर हवा की मदद पा आकाश में दौड़ लगाते हुए पश्चिम की तरफ इस तरह धावा कर रहे थे मानो उस गहरी लालिमा को बात-की-बात में अपनी स्याह चादर के अन्दर छिपा लेंगे और फिर इस बात का पता भी न लगने देंगे कि भगवान अस्ताचल को प्राप्त कर चुके या नहीं अथवा उनको इस अनित्य संसार के मुँह फेरे कितनी देर हो गई जिसे लोग नित्य कह कर भी मानते हैं और जिसमें स्वयं भगवान ही के अस्तित्व में बाधा डालने वाले तरह-तरह का रूप धारण किए हुए बहुत-से दल अपने कच्चे सूत का बनाया हुआ जाल पक्का समझ कर फैलाने की कोशिश कर रहे हैं तथा भविष्य में भी जाल बनाने के लिए धूल की रस्सियाँ बंट रहे हैं और यह नहीं समझते कि उनकी यक निर्वीर्य रस्सियाँ उस सगुण के अटूट गुण (डोरी) के आगे कुछ भी हकीकत नहीं रखतीं जिसमें गुंथे सैकड़ों-हजारों बल्कि लाखों ब्रह्माण्ड इस तरह ठीक रास्ते पर घूम रहे हैं कि सूत बराबर भी इधर-उधर हटने की हिम्मत नहीं कर सकते।
थोड़ी ही देर बाद हवा तेजी के साथ चलने लगी और धीरे-धीरे उसका जोर बढ़ता ही गया। क्या पत्थरों के बड़े कुदरती ढेर अर्थात् पहाड़ अपनी छाती पर टक्कर लेकर उसका जोर तोड़ नहीं सकते हैं? नहीं, बल्कि उनके इस काम से हवा को और मदद मिलती है और वह पहाड़ों से टक्कर खाकर और भी नाचने लगती है जिससे पथिकों के पथ में बेतरह बाधा पड़ जाती है और धूल से आँखें बंद हो जाने के कारण उन्हें एक कदम भी आगे चलना कठिन हो जाता है।
मौसम के यकायक इस तरह पर पलट जाने से भैया राजा को बड़ा की कष्ट हुआ और वे सोचने लगे-“अगर इस तरह शीघ्र ही मौसम के बिगड़ जाने की मुझे खबर होती तो कदापि कैलाश-भवन के बाहर पैर न निकालता।” मगर अब पलट कर पुन: इन्द्रदेव के घर जाना भी उन्हें उचित नहीं जान पड़ता था क्योंकि अपने खयाल से वे आधा रास्ता तय कर चुके थे।
अब गहरे बादलों के छा जाने से बिलकुल अंधकार हो गया, यहाँ तक कि उसके चन्द्रमा की रोशनी का भी लेशमात्र पता नहीं लगता था जिसके भरोसे पर बिना रोशनी के कोई इंतजाम किये ही भैया राजा चल खड़े हुए थे और समझ चुके थे कि रास्ते में किसी तरह की बाधा न पड़ेगी, मगर अब वे कर ही क्या सकते थे। लाचार तरह-तरह की बातें सोचते हुए वे धीरे-धीरे जाने लगे परन्तु इस विचार में भी थे कि कहीं ठिकाना मिले तो थोड़ी देर के लिए ठहर जाएँ।
किसी कवि ने सच कहा है कि ‘अँधेरी रात चोरों, ऐयारों, बदमाशों और लुच्चों की सहायक होती है’। अस्तु भूतनाथ को भी यह मुफ्त की सहायता मिल गई जिससे उसने सहज ही में अपने दिल का अरमान निकाल लिया।
धीरे-धीरे पानी बरसने लग गया और हवा की सहायता पाकर क्रमश: उसका जोर बढ़ने लगा जिससे भैया राजा को चलने में और भी कठिनता हो गई। अंधकारमय रात, हवा का सन्नाटा, पानी का बरसना और पहाड़ी रास्ता जहाँ दिन को आदमी धोखा खाकर रास्ता भूल सकता है। ऐसे दु:खदायी समय का तो कहना ही क्या है! भैया राजा दुखित होकर एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। अगर कहीं फूस की कुटिया भी मिल जाती तो उसे हम आनन्द-भवन समझ लेते और इस समय प्राण बचा कर किसी तरह ग्रहदशा के कई घंटे बिता अपने घर का रास्ता लेते, परन्तु यह बीहड़ स्थान में आराम लेने के लिए कुटिया या झोपड़ी कहाँ, और अगर कहीं हो भी तो दिखाई देना उसका कठिन था, अस्तु लाचार उसी पेड़ के नीचे पानी की बौछार और हवा के थपेड़े खाते हुए भैया राजा कुछ देर तक खड़े रहकर तरह-तरह की बातें सोचते रहे। इसी बीच में उन्हें किसी सवार के आने की आहट मालूम हुई। कुछ दिखाई न देने पर भी उन्होंने उस तरफ देखा और कान लगाकर उस आहट का अंदाज लेने लगे। मालूम होता था कि हवा और पानी से दुखी होकर वह सवार भी अपनी इच्छानुसार घोड़े को नहीं चला पाता मगर फिर भी बनिस्बत भैया राजा की तेजी के साथ ही चला आ रहा है, हाँ थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठहर जाता है और जब बिजली चमकती है तो उसकी रोशनी में चारों तरफ देखकर फिर आगे बढ़ रहा है।
कुछ ही देर में वह सवार भी उसी पेड़ के पास आकर खड़ा हो गया जिसके नीचे भैया राजा ठहरे हुए थे। जब बिजली चमकी तो उसकी रोशनी में उसने भैया राजा को देखा और शीघ्रता सवे उसके पास आकर बोला, “मुझे इस बात का बड़ा ही दु:ख है कि आपको आज के सफर में बेहिसाब तकलीफ उठानी पड़ी। अगर मुझे इनका कुछ भी अंदाजा मिला होता तो आज मैं आपको अपने घर से कदापि बिदा न करता!”
भैया राजा : कौन है, इन्द्रदेव?
इन्द्रदेव : जी हाँ, मैं इसीलिए दौड़ा चला आ रहा हूँ कि आपको वापस ले जाऊँ या फिर इसी रास्ते में कोई ऐसी जगह बता दूँ जहाँ आप आराम से कई घंटे रह कर इस बुरे मौसिम को टाल सकें, क्योंकि यह रास्ता मेरा अच्छी तरह देखा हुआ है और पास की पहाड़ियों की कई गुफा और कंदराओं को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ तथा एक ऐसे मकान का भी मुझे पता है जो यहाँ थोड़ी ही दूर पर उजाड़ पड़ा हुआ है और कई जगह से टूट-फूट जाने पर भी इस समय हम लोगों की बखूबी रक्षा कर सकता है।
भैया राजा : (प्रसन्न होकर) अगर ऐसी बात है तो शीघ्र उसी मकान की तरफ चलो। इस आँधी और पानी से मैं बेतरह दुखी हो रहा हूँ और सर्दी से काँप रहा हूँ।
सवार : (अपने चारजामे के पास से एक दुशाला उठाकर और भैया राजा को देकर) लीजिए इसे ओढ़ लीजिए, यह आपकी पूरी तरह से रक्षा करेगा, आप ही के लिए मैं इस घर से लिए आ रहा हूँ।
खुशी-खुशी भैया राजा ने वह दुशाला ले लिया और औढ़ कर उस सवार के साथ चलने के लिए तैयार हो गये। सवार उनको लिए हुए उत्तर की तरफ रवाना हुआ और बहुत जल्दी एक चहारदीवारी के फाटक पर जा पहुंचा। इस समय इस स्थान का नक्शा खींचना बहुत ही कठिन होगा क्योंकि अंधकार के कारण कुछ भी मालूम नहीं होता कि यह चहारदीवारी कैसी है, हर तरह से दुरुस्त है या टूटी-फूटी है, अथवा इसके अन्दर बिलकुल ही उजाड़ खंडहर है या कुछ कोठरियाँ या दालान इत्यादि भी मौजूद हैं।
फाटक पर घोड़ा रोक कर सवार ने भैया राजा से कहा, “अब आप यहाँ पर उतर पड़िए, इस फाटक के अन्दर चलने पर आपको बहुत आराम मिलेगा!”

भैया राजा : (धीमे स्वर में) अच्छा मैं उतरने की कोशिश करता हूँ, तुम्हारे इस दुशाले ने यद्यपि मुझे सर्दी से बचाया मगर मेरे दिमाग को खराब कर दिया। इसमें से एक विचित्र प्रकार की सुगंध आ रही है जिससे बेहोशी की दवा का असर हो रहा है। मालूम होता है कि मैं बहुत जल्द बेहोश हुआ चाहता हूँ, घोड़े से उतरने की भी ताकत मुझमें नहीं है, लेकिन क्या तुम वास्तव में इन्द्रदेव हो? (और धीरे से) नहीं-नहीं, मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम इन्द्रदेव हो। अफसोस…
सवार : आपका खयाल बहुत दुरुस्त है, मैं वास्तव में इन्द्रदेव नहीं हूँ, ऐसी अवस्था में मैं आपसे अपना नाम छिपाना पसन्द नहीं कर सकता अस्तु ठीक-ठीक बता देता हूँ कि मैं गदाधरसिंह हूँ और आप अब मेरे कब्जे में आ चुके हैं।
भैया राजा : अफसोस, अफसोस, दिल को दिल ही…में…रह…
इतना कहते-कहते भैया राजा घोड़े पर से नीचे झुक पड़े। भूतनाथ ने, जो पहिले ही घोड़े पर से उतर चुका था, हाथ के सहारे से उन्हें सम्हाला और अपने कब्जे में कर लिया। इसके बाद उसने जफील बजाई और उसकी आवाज सुनकर कुछ आदमी वहाँ आ पहुँचे और बस कोई मिल-जुलकर भैया राजा को खंडहर के अन्दर ले गए।

