दिन दो पहर से कुछ ज्यादा ढल चुका है, धूप में बहुत तेजी और गर्मी है। मुसाफिरों को इस समय राह चलना बहुत ही बुरा मालूम होगा मगर जंगल में रास्ता चलने वालों को इस धूप की गरमी किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकती। घने जंगलों का तो कहना ही क्या है जहाँ बड़े-बड़े साखू, शीशम और सलई के दरख्तों की छाया में बैठने में बड़ा ही आनन्द मिलता है, खास करके किसी नाले के किनारे पर जहाँ घने दरख्त हों तो वहाँ के आनन्द का कहना ही क्या है। गर्मी के दिनों में ऐसा स्थान बहुत ही प्यारा मालूम होता है, परन्तु शेर भी ऐसा स्थान पसन्द करता है और प्राय: शिकार के लिए भी ऐसा ही स्थान चुना जाता है।
इस समय हम ऐसे ही घने जंगल में एक नाले के किनारे पत्थर की चट्टान पर दो आदमियों को बैठे आनन्द से बातचीत करते हुए देख रहे हैं। इसमें एक तो इन्द्रदेव हैं और दूसरे उनके प्यारे दोस्त बलभद्रसिंह । इस समय ये दोनों आदमी शिकारी पोशाक तथा हों में अपने को सजाए हुए हैं और इन दोनों के शेर-दिल घोड़े भी पास ही में पेड़ों के साथ लंबी डोर में बँधे हुए नर्म घास चर रहे हैं। सुनना चाहिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।
इन्द्रदेव : आपका कहना बहुत ही ठीक है। गदाधरसिंह की चालचलन आजकल बहुत ही खराब हो रही है। ऐसे ही लोग ऐयारी के नाम को कलंकित करके अपने साथ-ही-साथ भले लोगों को भी बदनाम करते हैं। मैं उस खोटे समय को रोता हूँ जिस समय उसे अपनी जुबान से मैंने दोस्त कहा था, फिर भी चाहे उसके शरीर से मुझे कितना ही कष्ट पहुंचे परन्तु मैं अपनी तरफ से उसे कुछ भी कष्ट न पहुँचाऊँगा। केवल इतना ही नहीं बल्कि जिंदगी-भर इस बात का उद्योग करता रहूँगा कि उसकी चाल-चलन सुधरे और वह नेकनामी के साथ दुनिया में जिंदगी बिताने का प्रयत्न करे । बदनाम आदमी का दुनिया में करोड़पति होकर भी जीते रहना वृथा है, जिंदगी उस गरीब की ही सराहने योग्य है जिससे लोगों का उपकार हो और जिसे लोग भली जुबान से नेकनामी के साथ याद करते हों। मेरे प्यारे दोस्त, मैं सच कहता हूँ और तुमसे भी कुछ छिपा हुआ नहीं है कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा और सौदागरों से भी मेरे पास बढ़कर दौलत है जिसे मैं इस जिंदगी में इस तरह भी खर्च नहीं कर सकता मगर मैं उस दौलत पर कुछ भी भरोसा नहीं करता और नेकनामी के सामने उसे कंकड़-पत्थर से भी तुच्छ समझता हूँ। इसका एक सबब यह भी है कि यह दूसरे की थाली है जो ईमानदारी के साथ मेरे सुपुर्द की गई है और मैं उसे देवता के समान केवल पूजा ही करने के लायक समझता हूँ तथापि जो कुछ उसमें से मेरे लिए हिस्सा लगाया गया है वही इतना ज्यादा और काफी है जैसाकि मैं ऊपर कह चुका हूँ, यह बात गदाधरसिंह को भी कुछ-कुछ मालूम है और मैं उसे कई दफे कह भी चुका हूँ कि-दो-चार लाख रुपये जब चाहो मुझसे ले लो और अपनी तृष्णा को तिलांजलि दे दो, परन्तु उसके दिल में यह बात बिलकुल ही नहीं बैठती। न-मालूम लालच ने उसे किस तरह अपने काबू में कर रखा है कि जिसके सबब से वह बड़े-बड़े उग्र पाप करने के लिए भी तैयार हो जाता है।
बलभद्रसिंह : मेरे प्यारे दोस्त, मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि तुम्हारे नेक मिज़ाज की तारीफ कर सकूँ। तुम ही ऐसे हो कि गदाधरसिंह के कसूरों को बराबर माफ किये चले जा रहे हो, दूसरा मामूली दर्जे का कोई आदमी तो उसका मुँह भी न देखता। फिर भी इतना मैं जरूर कहूँगा कि यद्यपि वह ऐयारी के फन में बहुत ही तेज है और उसे बहुत दूर की सूझा भी करती है परन्तु वह अपने कलंक को धोने की कोशिश करता हुआ और भी कलंकित होता जा रहा है। ताज्जुब नहीं कि वह कलंकों के मारे कुछ ही दिनों में सिर से पैर तक इन्द्र का रूप हो जाय।
इन्द्रदेव : बेशक् ऐसा हो सकता है, मैं जानता हूँ कि दयाराम के विषय में वह बिलकुल निर्दोष है और इसीलिए मैं उसे कई दफे समझा भी चुका हूँ कि तुम उस भेद को छिपाने के लिए कुछ उद्योग मत करो, मैं तुम्हारी वह भूल दुनिया में किसी पर प्रकट न होने दूंगा, परन्तु यह बात उसके दिल में बैठती ही नहीं, सच तो यों है कि उसे मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता।
बलभद्रसिंह : यही बात है, वह सोचता है कि बिना जमना और सरस्वती को मारे वह बात छिप नहीं सकती इसलिए जमना और सरस्वती को मार कर ही मैं निश्चिन्त हो सकूँगा क्योंकि उसके बाद किसी को मुझ पर कलंक लगाने के लिए कोई सबूत न मिल सकेगा।
इन्द्रदेव : केवल जमना और सरस्वती को ही नहीं बल्कि वह प्रभाकर सिंह और इन्दुमति को भी मारने की फिक्र में है क्योंकि उसे विश्वास हो रहा है कि ये दोनों भी उस भेद को जान गए और जमना तथा सरस्वती की मदद कर रहे हैं और वास्तव में बात भी ऐसी ही है।
बलभद्रसिंह : मगर मैं समझता हूँ कि अब भूतनाथ इस काम में कृतकार्य नहीं हो सकेगा।
इन्द्रदेव : (मुस्कराकर) सो कैसे कहूँ! वह बड़ा ही धूर्त है, कौवे, गिद्ध और कुत्ते से अगर उसकी उपमा दी जाय तो हो सकता है। मैं अपने घर के रास्ते तक को उससे छिपाए रहता हूँ और जब कभी वह मुझसे मिलने के लिए आता है तो मैं बाहरी दरजे में ही उससे मुलाकात करता हूँ (हँसकर) लेकिन यह मामला भी बड़ा ही विचित्र है, मैं यद्यपि उसके काम में बाधा डाल रहा हूँ मगर उससे दुश्मनी नहीं करता, और वह यद्यपि बराबर मेरे हाथों से छकाया जाता है फिर भी मुझ पर किसी तरह का शक नहीं करता। मगर मुझे इस बात का जरूर दु:ख है कि मेरे गुरुभाई साहब (जमानिया तिलिस्म के दारोगा) ने भी आजकल उसी का रंग पकड़ा है और दोनों खुदगरजों की दोस्ती बेतरह बढ़ रही है…
बलभद्र : (बात काटकर) भला खुदगरजों की दोस्ती भी कहीं कायम रही है?
इन्द्रदेव : कभी नहीं। खुदगजरजों की दोस्ती और पानी पर तैरते हुए बताशे की जिंदगी की कोई तायदाद नहीं, तथापि मुझे दारोगा साहब की तरफ से बड़ी ही रंज है, मैंने उनसे मिलना-जुलना भी एक तौर पर छोड़ दिया है यद्यपि अपने दिल का भाव प्रकट नहीं किया, साथ इसके इस बात का भी उद्योग कर रहा हूँ कि उसमें और गदाधरसिंह में दुश्मनी पैदा हो जाय।
बलभद्रसिंह : दुश्मनी पैदा होने में अब क्या कसर रह गई है? गदाधरसिंह को इस बात का विश्वास हो गया है कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति के बारे में दारोगा ही ने उससे चालाकी खेली है।
इन्द्रदेव : बेशक् यही बात है और अब ईश्वर ने चाहा तो दारोगा की और उसकी दुश्मनी दिनोंदिन बढ़ती ही जाएगी।
बलभद्रसिंह : आपकी कार्रवाई ही ऐसी हो हरी है, मगर भैया राजा के विषय में जो कुछ चाल चली जा रही है वह मुझे पसन्द नहीं है।
इन्द्रदेव : मुझे भी पसन्द नहीं है। मैंने उन्हें कहा था कि इस ढंग को छोड़ दें और एकदम से प्रकट होकर जो कुछ करना हो खुलेआम करें मगर उन्हें तो मसखरापन सूझ रहा है, देखो मैं आज तुम्हारे सामने ही उन्हें फिर समझाऊँगा।
बलभद्रसिंह : अगर वे न मानेंगे तो ताज्जुब नहीं कि एक दिन गदाधरसिंह या दारोगा साहब के हाथ में फँस जाएँ।
इन्द्रदेव : गदाधरसिंह को तो मैं साफ-साफ कह दूँगा कि भैया राजा के साथ दुश्मनी का बर्ताव न करे और मेरी यह बात शायद वह मान भी जाएगा।
बलभद्रसिंह : मगर गदाधरसिंह को अगर यह मालूम होगा कि भैया राजा को दारोगा के फंदे से तुम्हीं ने निकाला है कि तो जरूर उसे इस बात का भी शक हो जाएगा कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति को भी दारोगा के जाल से तुम ही ने निकाल लिया होगा।
इन्द्रदेव : कोई परवाह नहीं, अगर उसे इस बात का शक हो भी जाएगा तो कोई चिंता नहीं, मेरे साथ गदाधरसिंह कदापि दुश्मनी का बर्ताव नहीं करेगा।
बलभद्रसिंह : इस बात को तो मैं भी मानता हूँ, दारोगा और गदाधरसिंह दोनों ही तुमसे डरते हैं और जानते हैं कि इन्द्रदेव को बिगड़ना किसी के लिए भी अच्छा न होगा, हाँ एक बात तो मैं आपसे कहना भूल ही गया!
इन्द्रदेव : वह क्या?
बलभद्रसिंह : वे दोनों कारीगर जिन्होंने दारोगा का अद्भुत मकान बनाया था और जिन्हें आजकल आपने अपने पास रख छोड़ा है, खुले मैदान बाजार में घूमा करते हैं, कहीं ऐसा न हो कि उन पर निगाह पड़ते ही दारोगा का खयाल ठिकाने पहुँच जाय और वह समझ जाय कि इन्हीं दोनों की बदौलत हमारे मकान का भेद खुल गया है।
इन्द्रदेव : (लंबी साँस लेकर) अफसोस, वे दोनों कल रात को दारोगा के फंदे में फँस गए, जैसाकि तुम सोचते हो वही बात हुई अर्थात् दारोगा ने उन्हें देख लिया कि किसी को पता न लगा। मुझे उनके बारे में बड़ा ही दु:ख है, यद्यपि मैंने अपने दो शागिर्द उनको छुड़ाने के लिए छोड़े हुए हैं मगर फिर भी उनकी खैरियत नजर नहीं आती।
बलभद्रसिंह : यह तो बहुत ही बुरा हुआ। और एक बात की खबर आपको हुई है या नहीं?
इन्द्रदेव : वह क्या?
बलभद्रसिंह : मेरी लड़की लक्ष्मीदेवी की शादी जो कुँवर गोपालसिंह के साथ ठहरी हुई है वह दारोगा साहब को बिलकुल ही नापसन्द है, अगर प्रकट नहीं होते तो छिपाकर निशाना लगा रहे हैं।
इन्द्रदेव : मुझे इस बात का पता लग चुका है। अफसोस इस बात का है कि राजा गिरधरसिंह निरे मिट्टी के पुतली ही हैं ओर दारोगा साहब का रंग उन पर बेतरह चढ़ा हुआ है, मगर खैर कोई चिंता नहीं, गोपालसिंह को मैं इस विषय में खूब समझा चुका हूँ और वह कसम खाकर प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि मेरी आज्ञा के विरुद्ध इस विषय में कोई काम न करेंगे। होनहार गोपालसिंह बात के धनी हैं और मुझे उन पर बड़ा भरोसा है।
बलभद्रसिंह : खैर आप जानिए, मुझे केवल खबर देने से मतलब था, और यह तो आप ठीक कहते हैं कि राजा साहब पर दारोगा का रंग चढ़ा हुआ है। अभी उसी दिन की बात है कि जिस दिन भैया राजा ने भूत होकर राजा साहब का दर्शन दिया था। आप ही कहते थे कि ‘सुबह को राजा साहब ने दारोगा को बुलाकर रात का हाल कहा जिसके सुनते ही दारोगा के बदन में थरथरी पैदा हो गई, मगर राजा साहब को इसका कुछ खयाल न हुआ’ इत्यादि।
इन्द्रदेव : हाँ मैंने सब हाल तुमसे कहा ही था। इसी से तो मैं कहता हूँ कि राजा साहब बिलकुल बेकार हैं, मगर सीधे और धर्मात्मा हैं इसी से बचे जाते हैं। (चौंक कर) देखो वह सामने से घोड़े पर सवार कौन आ रहा है! पहिचानते हो?
बलभद्रसिंह : (गौर से देखकर) नहीं, शायद नजदीक आने से पहिचान सकूँ। नहीं-नहीं, मैंने इन्हें आज के पहिले शायद कभी भी नहीं देखा?
देखते-ही-देखते वह सवार इन दोनों के पास आ पहुँचा। दोनों ही से साहब-सलामत करने के बाद वह घोड़े पर से नीचे उतर पड़ा और एक पेड़ के साथ लंबी बागडोर के सहारे घोड़े को बाँधकर चरने के लिए ढीला छोड़ दिया।
इन्द्रदेव का इशारा पाकर वह सवार भी उनके पास बैठ गया और उन तीनों में इस तरह बातचीत होने लगी-
इन्द्रदेव : (सवार की तरफ देखकर) कोई भी ऐयार इस समय आपको नहीं पहिचान सकता, खूब ही सूरत बदली है! (बलभद्रसिंह से) क्यों भाई कैसी सूरत हो रही है? यह तुम्हारे रोज के मुलाकाती हैं और इशारा कर देने पर भी तुम इन्हें नहीं पहिचान सकते!
बलभद्रसिंह : (आश्चर्य से आगंतुक की तरफ देखकर) बेशक, बिना चेहरा धोए इन्हें कोई भी नहीं पहिचान सकता।
इन्द्रदेव : (मुस्कराकर) यही तो बात है कि चेहरा धोने पर भी इनकी सूरत में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस चेहरे पर किसी तरह का रंग-रोगन नहीं चढ़ाया हुआ है बल्कि यह एक प्रकार की बनावटी झिल्ली है जो चेहरे पर चढ़ाई हुई है, इस पर पानी का कुछ असर नहीं होता और इस तरह चमड़े के साथ चपक कर बैठती है कि जरा भी पता नहीं लगता।
आगंतुक : (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके बलभद्र सिंह से) यह आपकी कारीगरी का नमूना है, वास्तव में यह बहुत ही अच्छी चीज है, सूरत बदलने में जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ता।
इन्द्रदेव : इसी तरह की दो झिल्लियाँ मैंने जमना और सरस्वती को दी हुई थीं, अफसोस कि वह इस समय गदाधरसिंह के पास होंगी जिनसे वह बड़ा ही उत्पात मचा सकता है। मुझे तो इस बात का डर ही लगा रहता है कि कहीं गदाधरसिंह उन झिल्लियों की बदौलत मुझीं को धोखा न दे।
आगंतुक : नहीं-नहीं, गदाधरसिंह आपको कदापि धोखा न देगा, उसकी प्रतिज्ञा है कि इन्द्रदेव मेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालें तो भी मुझे मंजूर है परन्तु उनका मुकाबिला कदापि न करूँगा।
इन्द्रदेव : ठीक है, मैंने भी ऐसा सुना है, और आप यह भी जानते ही हैं कि मैं गदाधरसिंह के साथ कैसा बर्ताव करता हूँ। हजार कसूर करने पर भी उसे सजा देने की नीयत नहीं करता और यही चाहता रहता हूँ कि वह अच्छी राह पर चले और परमात्मा उसका भला करे।
बलभद्रसिंह : बेशक्, आप अपनी दोस्ती पर पूरा-पूरा हक निबाह रहे हैं। (आगंतुक की तरफ इशारा करके) अच्छा यह तो बताइए कि यह कौन साहब हैं और आपको खोजते हुए यहाँ किस तरह आ गए?
इन्द्रदेव : ये भैया राजा हैं, छिपकर रहना पसन्द नहीं करते और बराबर इधर-उधर घूमने की इच्छा करते हैं, इसीलिए सूरत बदलने वाली यह झिल्ली मैंने इन्हें दे रखी है। मैं यहाँ आते समय अपने शागिर्द को समझा आया था कि इस सूरत में भैया राजा अगर यहाँ आवें तो उन्हें फलानी जगह भेज देना, यही सबब है कि यहाँ तक आ पहुँचे।
आगंतुक (अथवा भैया राजा) : बेशक् यही बात है, आपके शागिर्द लक्ष्मण ने मुझे यहाँ का पता दिया था, अच्छा तो बताइए कि अब मुझे क्या करना चाहिए।
इन्द्रदेव : मैं तो यही कहूँगा कि आप खुल्लम-खुल्ला जाकर अपने भाई राजा साहब से मिलें और इन खेल-तमाशों को जाने दें, नहीं तो एक-न-एक दिन दारोगा के फंदे में फँस जाएँगे।
आगंतुक : तो क्या तुम नहीं जानते कि हमारे भाई साहब दारोगा के कैसे गुलाम हो रहे हैं! उस कमबख्त के सामने भला मेरी बातों का उनके दिल पर कोई असर होगा? मेरे इस कथन करो क्या वे मान जाएंगे कि दारोगा ने मुझको मर डालने का इरादा किया था? मैं समझता हूँ कि वे मुझीं को झूठा बनावेंगे और दारोगा कोई-न-कोई बहाना करके निकल जाएगा।
इन्द्रदेव : अगर ऐसा हो तो कोई ताज्जुब नहीं है।
आगंतुक : वह तुम्हारा गुरुभाई है, तुम उसे समझाते क्यों नहीं! ऐसे आदमी को तो दुनिया से उठा ही देना चाहिए।
इन्द्रदेव : वह मेरा गुरुभाई है तो क्या हुआ, जैसा करेगा वैसा भोगेगा। मैं न तो उसका दोस्त बनता हूँ और न दुश्मन, अगर आप लोगों की मदद करने की जरूरत न आ पड़े तो मैं उसका मुँह देखना भी पसन्द नहीं करता, उसके घर में जाना तो दूसरी बात है।
बलभद्रसिंह : अब आप भैया राजा को उसके पंजे से न छुड़ाते तो इनकी जान जा ही चुकी थी।
इन्द्रदेव : अब भी अगर ये खुल्लम-खुल्ला अपने को प्रकट न कर देंगे तो इनके लिए मुझे चिंता बनी ही रहेगी। वह तो कहीं इतना अच्छा हुआ कि दारोगा और गदाधरसिंह में जो दोस्ती थी वह जाती रही, नहीं तो दोनों मिल कर बड़ा ही उपद्रव मचाते।
बलभद्रसिंह : गदाधरसिंह को विश्वास हो गया कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति के विषय में दारोगा ने उसके साथ दगाबाजी की।
आगंतुक : मगर वास्तव में बात दूसरी ही थी। अच्छा यह तो बताइए कि प्रभाकर सिंह का क्या हाल है और वे अब कहाँ हैं?
इन्द्रदेव : ईश्वर की कृपा से प्रभाकर सिंह भी दारोगा के पंजे से निकल गए, उन्हें दारोगा ने तिलिस्म के अन्दर ही फँसा लिया था मगर कल मैं उन्हें छुड़ा कर अपने घर ले आया, उनके छुड़ाने में भी बड़ी विचित्र दिल्लगी हुई।
आगंतुक : तो क्या?
इन्द्रदेव : यह किस्सा उन्हीं की जुबान से आप सुनेंगे तो मजा आवेगा, मैं स्वयं कुछ भी न कहूँगा।
आगंतुक : उनसे मुलाकात कब होगी?
इन्द्रदेव : जब आप चाहेंगे।
आगंतुक : अच्छा तो मैं तुम्हारे साथ ही तुम्हारे घर चलूँगा और प्रभाकर सिंह के साथ-साथ जमना, सरस्वती और इन्दुमति से भी मुलाकात करूँगा।
इन्द्रदेव : बहुत अच्छी बात है।
आगंतुक : अच्छा तो यह कहो कि जमानिया तिलिस्म का भेद तुमको क्यों कर मालूम हुआ? यह तो बहुत ही गुप्त है और सिवाय हम लोगों के दूसरा कोई भी उसको नहीं जान सकता क्योंकि नियमानुसार तिलिस्मी किताब हम ही लोगों के पास रहा करती है और आज भी हमारे भाई साहब के कब्जे में है।
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इन्द्रदेव : (मुस्कराकर) इसके विषय में मैं कुछ भी न कहूँगा।
आगंतुक : मैं समझता हूँ कि दारोगा के गुरुजी ने वहाँ का कुछ हाल कहा होगा, क्योंकि वह तुम्हारे ही गुरु थे और वहाँ का बहुत ज्यादा हाल जानते थे।
इन्द्रदेव : जो कुछ हो।
आगंतुक : खैर इस मामले को जाने दो और अब यह राय दो कि मैं क्या करूँ?
इन्द्रदेव : मुझे जो कुछ कहना था कह चुका।
आगंतुक : अच्छा एक दिल्लगी मुझे और कर लेने दो फिर जो कुछ तुम कहोगे मैं वही करूँगा।
इन्द्रदेव : वह क्या?
आगंतुक : इस समय कहने से मजा न मिलेगा, कल-परसों में आपसे आप मालूम हो जाएगा। अच्छा यह बताओ कि इस समय तुम्हारे साथ चलने से क्या प्रभाकर सिंह तथा इन्दुमति इत्यादि से मुलाकात हो सकेगी?
इन्द्रदेव : (कुछ सोचकर) मैं तो पहिले ही कह चुका हूँ कि आप जब चाहें मुलाकात कर सकते हैं।
आगंतुक : तो यहाँ से चलने में क्या विलंब है?
आगंतुक : कुछ भी नहीं, मैं चलने को तैयार हूँ।
इन्द्रदेव : बस तो जय गणेश करो।
आगंतुक : चलिए, (बलभद्र सिंह की तरफ देखकर) यदि कुछ हर्ज न हो आप मेरे साथ चलिए।
वे तो आदमी वहाँ से उठ खड़े हुए और अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो तेजी के साथ चल पड़े।
बलभद्रसिंह और आगंतुक को साथ लिए हुए इन्द्रदेव अपने मकान की तरफ रवाना तो हुए मगर अफसोस, उन्हें इस बात की कुछ खबर नहीं है कि जिस आगंतुक को वह भैया राजा समझे हैं वह इन्दुमति का पता लगाने के लिए,जमना और सरस्वती से पाई हुई झिल्ली अपने चेहरे पर लगाकर और इस प्रकार अपना भेष बदल कर इन्द्रदेव के घर गया था। वहाँ इन्द्रदेव के शागिर्द ने उसे भैया राजा समझा और इन्द्रदेव का संदेशा दिया कि वे फलाने जंगल में गये हैं और आपको भी उसी जगह बुलाया है। इसी संदेश को पाकर भूतनाथ वहाँ पहुँचा था जहाँ इन्द्रदेव और बलभद्रसिंह से मुलाकात हुई थी!
अस्तु धोखे में पड़े हुए इन्द्रदेव नकली भैया राजा और बलभद्र सिंह को लिए हुए अपने घर की तरफ रवाना हुए। इस जगह यह समझ रखना चाहिए और पहिले भी किसी जगह पर हम लिख आए हैं कि इन्द्रदेव का असली मकान तिलिस्मी इलाके के अन्दर है जहाँ किसी अनजान आदमी का जाना बिलकुल ही असंभव है परन्तु उनका एक दूसरा मकान भी था जिसका नाम ‘कैलाश’ था और जिसका कुछ हाल हम इसके पहिले भी लिख आए हैं। इस समय अपने दोनों साथियों को लिए हुए इन्द्रदेव इसी मकान (कैलाश) की तरफ रवाना हुए क्योंकि जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह को उन्होंने इसी मकान में छिपाकर रखा हुआ था।
दो घंटे तक तेजी के साथ सफर करके तीनों आदमी कैलाश भवन पहुँचे। इन्द्रदेव की बातचीत से भूतनाथ को यह मालूम हो गया था कि भैया राजा भी इन्द्रदेव के मकान में आने वाले हैं, इसीलिए इन्द्रदेव ने अपने शागिर्द से कह दिया था कि वे आवें तो उन्हें फलाने जंगल में हमारे पास भेज देना, और इसी कारण इन्द्रदेव के शागिर्द ने भूतनाथ को भैया राजा समझकर उसी जंगल में इन्द्रदेव के पास भेजा भी था। धोखा होने का सबब यही था कि भैया राजा को भी इन्द्रदेव ने वैसे ही झिल्ली चेहरे पर चढ़ाने के लिए दी थी जैसी जमना और सरस्वती को दी थी अथवा जो इस समय भूतनाथ अपने चेहरे पर चढ़ाए हुए था, अस्तु अब भूतनाथ को यह फिक्र हुई कि कहीं वादे के मुताबिक भैया राजा भी इस समय वहाँ न आ जाएँ, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो उसका भंडा फूट जाएगा और बना-बनाया काम चौपट हो जाएगा। इन सब बातों को सोच कर भूतनाथ ने इरादा कर लिया कि जहाँ तक जल्द हो सके प्रभाकर सिंह, जमना और सरस्वती को देखकर इन्द्रदेव के मकान से बाहर ही नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि जिस तरह संभव हो भैया राजा को गिरफ्तार भी कर लेना चाहिए, जिसमें सूरत बन कर अपना काम निकाला जा सके।
भूतनाथ और बलभद्र सिंह को साथ लिए हुए इन्द्रदेव मकान के अन्दर गये और कई कमरों में घूमते-फिरते वहाँ पहुँचे जहाँ प्रभाकर सिंह बैठे हुए जमना, सरस्वती और इन्दुमति से मीठी-मीठी बातें कर रहे थे। आज बहुत दिनों के बाद हम इन बिछड़े हुओं को मिलकर बैठे और बातें करते देख रहे हैं, नि:सन्देह इन सभों में शिकवे और शिकायत-भरी बातें हो रही होंगी, बदकिस्मती से जो तकलीफें इन लोगों ने उठाई हैं उनके लिए एक-दूसरे की भूल साबित करके स्वयं बुद्धिमान बनने की कोशिश करते दारोगा को गालियाँ देता और भूतनाथ की शिकायत करता हुआ यह भी कहता होगा कि अभी तक भूतनाथ का डर हम लोगों के दिल में बना ही हुआ है, ईश्वर उस कमबख्त से किसी तरह पीछा छुड़ाए या हमारी ऐसी मदद करे कि जिसमें हम लोग भूतनाथ को नीचा दिखावें, और हमें इस जगह पर इतनी फुरसत नहीं कि इन लोगों की बातचीत या हँसी-दिल्लगी का हाल खुलासे तौर पर लिख सकें क्योंकि भूतनाथ इन लोगों के सामने पहुँच कर भी जल्दी-से-जल्दी भाग निकलने की तैयारी कर रहा है और दिल में तरह-तरह की ऐयारियों का बाँधनू बाँधता हुआ भी डर रहा है कि कहीं असली भैया राजा यहाँ न आ पहुँचे और इसीलिए हम भी इस दृश्य को संक्षेप में ही लिखना पसन्द करते हैं।
जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह ने इन्द्रदेव के साथ आते हुए बलभद्रसिंह को तो पहिचाना परन्तु भैया राजा को न पहिचान सके, लेकिन इन्द्रदेव ने यहाँ पहुँचते ही उन सभों की तरफ देखकर कहा, “आप लोग इनको (नकली भैया राजा की तरफ इशारा करके) न पहिचान सके होंगे क्योंकि तिलिस्मी ढंग पर इसकी सूरत बदली हुई है इसलिए मैं इनका परिचय देता हुआ आप लोगों से कहता हूँ कि ये वे ही भैया राजा हैं जो मेरी मदद करते हुए आप लोगों को छुड़ाने के लिए दिलोजान से उद्योग कर रहे थे।”

जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह इतना सुनते ही उठ कर खड़े हो गए और उन तीनों से साहब-सलामत करने के बाद सच्चे दिल से सभों का शुक्रिया अदा करने लगे। इसके बाद सब कोई उसी जगह फर्श पर बैठ गये और बातचीत करने लगे। मगर भूतनाथ के दिल की इस समय विचित्र हालत हो रही थी, वह मजबूरी के साथ बातें तो कर रहा था मगर बार-बार यह सोचता जा रहा था कि भैया राजा के आने में देर क्यों हुई? ईश्वर करे उन पर कोई ऐसी आफत आ जाए कि अभी कुछ देर तक वे यहाँ न पहुँचने पावें।
भूतनाथ ने जाहिरदारी के साथ उन सभों से बातें करना शुरू किया।
भूतनाथ : (प्रभाकर सिंह से) ईश्वर ही ने आपकी रक्षा की नहीं तो आप बड़े ही झंझट में पड़ गये थे।
प्रभाकर सिंह : नि:सन्देह ऐसा ही है, ईश्वर ही ने (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हें मेरी सहायता के लिए खड़ा किया! मैं इनकी कृपा का कदापि बदला नहीं चुका सकता और न बदला चुकने की इच्छा ही रखता हूँ क्योंकि मेरे और इनके बीच में बराबर के लेन-देन अथवा रोजगार का-सा व्यवहार नहीं है, बदला चुकाने का खयाल तो एक प्रकार का रोजगार ठहरा, और मैं इनको पिता के समान मानता हूँ अस्तु बड़ों का अहसान बच्चों पर हुआ ही करता है जिसका बदला चुकने का विचार करना भी मूर्खता है। इसी तरह मैं अपने एक मित्र के अहसान से भी दब जाता हूँ परन्तु मित्रता की सीमा का उल्लंघन करके व्यवहार या रोजगार न समझा जाय इसलिए मैं उनके लिए भी बदला चुकाने का विचार नहीं कर सकता, फिर भी यह बात जरूर है कि आपको मेरे लिए कड़ी तकलीफ उठानी पड़ी और इसके लिए मैं…
भूतनाथ : (बात काटकर) आप व्याख्यान ही देने लग गये, मैं व्याख्यान सुनने के लिए नहीं आया हूँ और न यह जानने के लिए आया हूँ कि आप किस-किस का शुक्रिया अदा कर रहे हैं। मैं तो केवल आप लोगों को खुश देखकर खुश होने के लिए आया हूँ और यह पूछना चाहता हूँ कि यदि मेरे किए आप लोगों का उपकार हो सके तो आज्ञा करें, मैं आप लोगों के लिए दिलोजान से उद्योग करने को तैयार हूँ।
प्रभाकर सिंह : आपकी कृपा से अब मुझे किसी तरह तकलीफ नहीं रह गई और न किसी बात की लालसा ही है।
भूतनाथ : बड़ी खुशी की बात है कि अब आपको किसी तरह की लालसा नहीं रह गई। (जमना इत्यादि की तरफ देखकर) और मैं समझता हूँ कि ईश्वर की कृपा से अब आप लोगों के चित्त में भी शान्ति…
जमना : (बात काट कर) नहीं-नहीं, कदापि नहीं, मेरे चित्त में तब तक शान्ति नहीं हो सकती जब तक कि कमबख्त भूतनाथ इस दुनिया में जीता-जागता मौजूद है।
भूतनाथ : (अपने दिली जोश और गुस्से को दबाता हुआ) ठीक है मेरा भी यही खयाल है, मगर जबकि इन्द्रदेव ऐसे लासानी ऐयार और सामर्थी लोग तुम्हारे मददगार हो रहे हैं तब भूतनाथ की जिन्दगी कब तक कायम रह सकती है और वह तुम्हारा कर ही क्या सकता है?
जमना इस बात का कुछ जवाब देना ही चाहती थी कि इन्द्रदेव ने इशारे में ही उसे कुछ कहा जिससे उसने अपने जोश को रोक लिया और कुछ सोच कर धीरे से जवाब दिया, “सो तो मैं कुछ नहीं कह सकती क्योंकि भूतनाथ चाचाजी (इन्द्रदेव) का दोस्त है।”
जमना की आखिरी बात सुनकर भैया राजा अर्थात् भूतनाथ ने इन्द्रदेव की तरफ देखा और कहा, “मगर मैं नहीं समझ सकता कि इतना कसूर करने पर भी आप भूतनाथ को क्यों कर माफ कर सकेंगे?”
इन्द्रदेव : (बड़ी गंभीरता के साथ) अगर अब भी भूतनाथ अपनी शैतानी से बाज आएगा और अपने किये पर पछतावेगा तो मेरे ऐसे आदमी की तो हकीकत ही क्या ईश्वर भी उसे माफ कर देगा।
भूतनाथ ने इसका कुछ जवाब न दिया और बात का रुख दूसरी तरफ फेरने की कोशिश करता हुआ बोला-
भूतनाथ : सो तो ठीक ही है, जो जैसा करेगा वैसा पाएगा, खैर जाने दीजिए भविष्य में जो होगा देखा जाएगा, इस समय तो हम लोग प्रसन्न हैं और ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि उसने बड़े संकट में तुम लोगों की रक्षा की, अब तुम लोग भूतनाथ को छकाने की कोशिश करो और मैं कमबख्त दारोगा ने बदला लेने की फिक्र करता हूँ। (इन्द्रदेव से) मैं तुम्हारे पास से जाने के लिए जल्दी न करता यदि बेफिक्र होता और दारोगा से बदला लेने का खयाल मेरे दिल में भरा हुआ न होता, तथापि मैं कल अवश्य मिलूँगा और तब बहुत-सी बातें भी कहूँगा।
इन्द्रदेव : आपकी जल्दी पर मुझे आश्चर्य होता है! (मुस्कराकर) कहिए तो मैं आपको आपके डेरे तक पहुँचा दूं। क्योंकि अभी तक आपसे अच्छी तरह बातचीत नहीं हुई है।
भूतनाथ : (घबराना-सा होकर मगर अपने भाव को छिपाकर) नहीं-नहीं, इतनी तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं। इस समय मेरा कोई ठिकाना नहीं मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँगा क्योंकि अपने दिल में एक विचित्र खयाल लिए जा रहा हूँ, हाँ, कल मैं जरूर मिलूँगा और तभी अन्य बातें करूँगा।
इन्द्रदेव : जैसी मर्जी।
भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और जल्दी के साथ कदम बढ़ाता हुआ कैलाश भवन के बाहर निकला। इन्द्रदेव दरवाजे तक उसके साथ आए और जब वह घोड़े पर सवार होकर चला गया तब धीरे-से यह कहते हुए घर के अन्दर लौटे-“ईश्वर ही कुशल करे!”

