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bhootnath by devkinandan khatri

भैया राजा का अब जिस स्थान में भूतनाथ ले गया वह यद्यपि खंडहर कहा जाता था परन्तु उसमें दो दालान और तीन-चार कोठरियाँ ऐसी थीं जिनकी मजबूती में अभीत तक किसी तरह का खलल नहीं आया था, तथा इस इमारत की चहारदीवारी भी अभी तक अपनी आधी हैसियत के साथ मौजूद थी जिसमें लगा हुआ बिना दरवाजे का फाटक दिखाई दे रहा था।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

भूतनाथ ने भैया राजा को एक कोठरी के अन्दर ले जाकर लिटा दिया और शागिर्दों सहित स्वयं बाहर वाले दालान में बैठकर अपने अनूठे मामलों पर विचार करने लगा। कदाचित् उसने निश्चय कर लिया था कि जब आप-से-आप भैया राजा की बेहोशी दूर होगी तभी उनसे बातचीत करेगा क्योंकि इस समय उनकी बेहोशी दूर करने के लिए उसने कई कार्रवाई नहीं की।

हम ऊपर लिख आए हैं कि भैया राजा की सूरत ऐयारी ढंग पर बदली हुई थी फिर भी भूतनाथ ने उन्हें अच्छी तरह पहिचान लिया। यद्यपि बेहोश करके भूतनाथ ने उन पर कब्जा कर लिया है परन्तु उनके हाथ-पैर खुले ही छोड़ दिये हैं।

तमाम रात बीत जाने के बाद जब भैया राजा की बेहोशी दूर हुई तो उन्होंने अपने को एक मामूली कोठरी में पड़े हुए पाया। चूंकि बेहोश होने के पहिले ही उन्हें मालूम हो चुका था कि भूतनाथ ने ही धोखा देकर उन्हें अपने कब्जे में किया है इसलिए इस समय बेहोशी दूर होने के साथ ही उन्हें वह बात याद आ गई और वह आश्चर्य के साथ इधर-उधर आँखें दौड़ा कर भूतनाथ को खोजने लगे। भूतनाथ यह देखते ही फौरन उनके सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, “शायद आप मुझे खोज रहे हैं?” हम यह लिखना भूल गये हैं कि भूतनाथ ने उनके चेहरे पर · से वह नवीन झिल्ली भी उतार ली थी।

भैया राजा : हाँ, बेशक् ऐसा ही है, और सबसे पहिले मैं तुमसे यही पूछा चाहता हूँ कि तुमने मुझे कैद करके भी खुला क्यों छोड़ रखा है तथा मेरे साथ दुश्मनी करने पर कमर क्यों बाँधी है?

भूतनाथ : खुला इसलिए छोड़ा है कि मुझे आपसे किसी तरह की दुश्मनी नहीं है और सिर्फ अपना एक छोटा-सा काम निकालने के लिए मैं आपको यहाँ ले आया हूँ।

भैया राजा : वह कौन-सा काम है जो मुझे सता कर तुम निकाल सकते हो?

भूतनाथ : नहीं-नहीं, मैं आपको जरा भी सताना नहीं चाहता बल्कि सिर्फ इतना ही चाहता हूँ कि आप किसी एक ठिकाने बैठे रहें और मैं आपकी सूरत बन कर आपका काम निकाल लूँ।

भैया राजा : (कुछ सोचकर) खैर कम-से-कम यह तो मालूम होना चाहिए कि वह काम कौन-सा है?

भूतनाथ : जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह को इस दुनिया से उठा देना, यही एक काम है जिसके लिए मैं तरह-तरह की तकलीफें उठा रहा हूँ और मुझे दारोगा ऐसे कमीने आदमी की खुशामद करनी पड़ती है।

भैया राजा : दारोगा तुम्हारा दोस्त है, वह अपनी जान पर खेल कर तुम्हारी मदद करता है, उसी से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को तिलिस्म से निकाल कर तुम्हारे हवाले किया, उसी ने तुम्हारी इच्छानुसार सब कार्रवाईयाँ कीं, यहाँ तक कि तुम्हारे ही सबब ने मुझे मारने के लिए तैयार हो गया। फिर भी तुम उसे कमीना क्यों कहते हो?

भूतनाथ : आपका कहना ठीक है मगर मेरे काम के लिए उसने आपको मारना नहीं चाहा था बल्कि अपनी भलाई के लिए ऐसा किया था, और जो आदमी अपने मालिक को मारने में संकोच न करे उसे कमीना नहीं तो और क्या कहा जाय?

भैया राजा : (मुस्कराकर) इस इल्जाम से तो तुम भी नहीं बच सकते, दयाराम के साथ जो कुछ सलूक तूने किया सो तो जाहिर ही है और सब उनकी औरतों के साथ जो कुछ किया चाहते हो वह भी मालूम हो गया। बात यह है कि तुम और दारोगा दोनों एक ही मिट्टी के बने हुए हो, तुमसे बढ़कर वह और उससे बढ़ कर तुम हो!

भैया राजा की बातें सुनकर भूतनाथ लाजवाब तो हो गया मगर क्रोध से उसकी आँखें सुर्ख हो आईं। कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोला-

भूतनाथ : आप इस वक्त हर तरह से मेरे कब्जे में होकर भी ऐसी कड़वी बातें कहते हैं कि मुझे ताज्जुब होता है।

भैया राजा : बात जो कुछ थी वह मैंने सच-सच कह दी, अब चाहे तुम्हें कड़वी मालूम पड़े या मीठी। खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, तुम और दारोगा जैसे हो उसे मैं खूब पहिचानता हूँ अब जो कुछ तुम्हारे जी में आवे करो और मेरी सूरत बनकर जो कुछ काम निकालना चाहते हो निकालो, देखूँ तुम अपने काम में क्यों कर कृतकार्य होते हो!

भूतनाथ : खैर जैसा होगा देखा जाएगा, अगर आप सीधी तरह से तीन-चार दिन तक मेरे कब्जे में रहना पसन्द करेंगे तो आपको बड़ी स्वतंत्रता के साथ रखूँगा, नहीं तो आपको हथकड़ी और बेड़ी की तकलीफ उठानी पड़ेगी।

भैया राजा : जैसा तुम कहोगे मैं वैसा ही करूँगा, मगर यह तो बता दो कि मुझे कहाँ कैद करोगे, इसी मकान में या किसी और जगह?

भूतनाथ : आज दिन-भर तो आपको इसी मकान में रहना पड़ेगा मगर रात होने पर मैं आपको दूसरे मकान में ले चलूँगा।

भैया राजा : बहुत अच्छा, तो अब मेरे नहाने-धोने का बंदोबस्त होना चाहिए, मैं समझता हूँ कि मैदान जाने के लिए आप मुझे इस चहारदीवारी से बाहर तो जाने ही न देंगे?

भूतनाथ : नहीं?

भैया राजा : अच्छा तो इस खंडहर की कोठरियों में घूमने की तो इजाजत मिलेगी?

भूतनाथ : इस खंडहर के अन्दर आप जो चाहे कर सकते हैं, कुआँ और पानी खींचने का सामान भी यहाँ मौजूद है।

इतना कहकर भूतनाथ चुप हो गया। भैया राजा अपनी जगह से उठ खड़े हुए और उस खंडहर में जो कुछ कोठरियाँ थीं उन्हें अच्छी तरह से घूम-घूमकर देखने लगे। भूतनाथ और उसे दो-तीन साथी भी भैया राजा के पीछे फिरते रहे। इसी तरह घूमते हुए भैया राजा एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसमें अभी तक लोहे का दरवाजा मौजूद था। यहाँ पर उन्होंने भूतनाथ से कहा, “अगर आप आधे घंटे के लिए मुझे इस कोठरी में अकेले छोड़ दें तो बड़ी मेहरबानी होगी।” भूतनाथ ने भैया राजा की यह बात मंजूर कर ली और कहा, “आप जितनी देर तक चाहें इसमें बैठ सकते हैं, मगर मैं खूब जानता हूँ कि अन्दर से किवाड़ बंद करके आप बहुत देर तक इसमें आराम न कर सकेंगे।”

इतना कहकर वह भूतनाथ अपने दो साथियों को दरवाजे के बाहर बैठने का इशारा करके वहाँ से चला गया और भैया राजा ने उस कोठरी के अन्दर जाकर मामूली तौर पर उसका दरवाजा भिड़का दिया।

दो घंटे के बाद भूतनाथ अपने जरूरी कामों से छुट्टी पाकर उस कोठरी के दरवाजे पर आया और भैया राजा को होशियार करने की नीयत से नाखून से दरवाजे को खटखटाया। जब कुछ जवाब न मिला तो दरवाजे को धक्का दिया, भूतनाथ का खयाल था कि दरवाजा अन्दर से बंद होगा मगर ऐसा न था, धक्का देने के साथ ही दरवाजा खुल गया मगर भैया राजा पर निगाह न पड़ी जिसके कारण भूतनाथ कोठरी के अन्दर चला गया और बड़े गौर से चारों तरफ देखने लगा।

यह कोठरी बहुत बड़ी न थी। इसकी दीवार और जमीन एक किस्म के सुर्ख पत्थर से बनी हुई थी, दीवारों में आले या अलमारी का कोई निशान तक न था। भूतनाथ को बहुत आश्चर्य हुआ कि ऐसी कोठरी में से भैया राजा यकायक क्यों कर गायब हो गये! बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद भूतनाथ ने कमर से खंजर निकाला और उसके कब्जे में हर तरफ की दीवार ठोंक-ठोंक कर टोह लेने लगे कि कहीं से दीवार पोली तो नहीं है।

भूतनाथ का यह काम पूरा नहीं होने पाया था कि यकायक कोठरी का दरवाजा बंद हो गया और अंद बिलकुल अँधकार हो जाने के कारण भूतनाथ घबड़ा उठा। टटोलता हुआ दरवाजे के पास आया और खोलने की कोशिश करने लगा। अन्दर से भूतनाथ दरवाजे की जंजीर पकड़ कर खींचता था और बाहर से उसके शागिर्द लोग धक्का देकर दरवाजा खोलना चाहते थे मगर किसी की भी मेहनत ठिकाने न लगी और अंत में भूतनाथ दुखी होकर जमीन पर बैठ कर तरह-तरह की बातें सोचने लगा। “क्या यह कोठरी किसी तिलिस्म से संबंध रखती है, या यह टूटा-फूटा मकान की तिलिस्म है? अगर ऐसा है तो जरूर भैया राजा को उसके भेद मालूम हैं। अफसोस, मुझसे बड़ी भूल हुई जो भैया राजा को इस खंडहर में ले आया। तो क्या अब मैं इस कोठरी में अकाल-मृत्यु का शिकार बनूँगा? नहीं नहीं, मेरे पास खंजर है जिससे इस कोठरी की दीवार में सूराख कर सकता हूँ, यद्यपि इस लोहे के दरवाजे को खोलना असंभव है।”

इतना सोचकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और खंजर से दीवार में सेंध लगाने की कोशिश करने लगा। मगर लगातार दो घटे मेहनत करने के बाद उसे निश्चय हो गया कि यह काम किसी तरह भी पूरा न हो सकेगा क्योंकि कुछ पत्थर और ईंट के टुकड़े निकलने के बाद मालूम हुआ कि दीवार में लोहे की फौलादी चादर लगी हुई है जिस पर खंजर का कुछ असर नहीं हो सकता था। पुन: हताश होकर भूतनाथ जमीन पर बैठ गया और अपनी बेवकूफी पर अफसोस करने लगा।

बाहर भी उसके शागिर्दों ने अपने उस्ताद को इस कैद से छुड़ाने के लिए कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी, दीवार तोड़ने की कोशिश की और छत तोड़ने के लिए भी बेहिसाब पसीना बहाया मगर सफल-मनोरथ न हुआ और अंत में लाचार होकर दरवाजे के साथ मुँह लगाकर भूतनाथ से बातचीत करने लगे।

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दुनिया में लालची, लोभी, पापी और ऐयाश आदमियों को अपनी जान बहुत प्यारी होती है। जिन्हें लालच नहीं है और जो दुनियादारी में अपने को नहीं फँसाए रहते उनको अपनी जान की कुछ भी परवाह नहीं रहती। मौत से डर उन्हीं को लगता है। जिनके काम खोटे रहते हैं और जिनको मालूम होता है कि हमने अपनी जिंदगी में कोई काम अच्छा नहीं किया, न तो किसी के साथ उपकार किया और न किसी के आड़े वक्त में काम आये। इसी तरह भूतनाथ की जिंदगी की बही में पापों की रोकड़ जैसे-जैसे बढ़ती जाती है तैसे-तैसे उसे अपनी जान प्यारी होती जाती है, इसके विपरीत दूसरों की जान को वह मच्छर और खटमल की जान के समान समझता है। एक पाप को छिपाने के लिए उसे दूसरे पाप की जरूरत पड़ी और दूसरे के लिए तीसरे की। अस्तु समझ लेना चाहिए कि इस कोठरी में बंद हर तरह से लाचार भूतनाथ कैसी बातें सोच रहा होगा।

दिन बीत गया और आधी रात भी गुजरने पर आ गई। उस समय भूतनाथ अपनी जिंदगी से एकदम हताश होकर उच्च स्वर में ईश्वर से प्रार्थना करने और कहने लगा-“हे जगन्न्यिनता, जगदाधार, जगदीश्वर, मेरे अपराधों को क्षमा कर क्योंकि तू दीनानाथ, दीनबंधु और दयालु है। मैं निश्चित रूप से प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में किसी की आत्मा दुखी न करूँगा और न कोई ऐसा काम करूँगा कि जिससे लोग मुझे प्रायश्चित्ती कहें या मैं समाज में मुँह दिखाने के लायक न रहूँ। जो कुछ अपराध मैं कर चुका हूँ अब न तो उसको छिपाने की कोशिश करूँगा और न निरपराधिनी अबला जमना, सरस्वती और इन्दुमति के खून का ग्राहक ही बनूँगा तथा…”

भूतनाथ और कुछ कहना चाहता था कि उस कोठरी के एक कोने में से आवाज आयी, “ओ दुष्ट, चुप रह! क्या तू ईश्वर को भी धोखे में डालना चाहता है!”

इस आवाज ने भूतनाथ को चौंका दिया और वह आँखें फाड़-फाड़कर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आयी थी मगर अंधकार इतना ज्यादा था कि उसकी तेज आँखें भी कुछ काम न कर सकीं। अफसोस कि इस वक्त ऐयारी का बटुआ भी उसके पास न था, नहीं तो वह जरूर सामान निकाल कर रोशनी करता और देखता कि उसकी बातों का जवाब देने वाला कौन है? भूतनाथ ने उठ कर टटोलना और उस तरफ जाना भी मुनासिब न समझा जिधर से आवाज आई थी अस्तु उसने गुप्त मनुष्य की बात का इस तरह उत्तर दिया-

भूतनाथ : नहीं, मैंने जो कुछ कहा है उसकी सच्चाई में किसी तरह भी फर्क नहीं पड़ सकता। मैं यहाँ तक तैयार हो चुका हूँ कि अपने ऐयारी के फन को भी तिलांजलि दे दूंगा और दुनिया से एकदम किनारे हो जाऊँगा।

गुप्त. : नेकी और नेकनीयती के साथ रहने वाले को दुनिया छोड़ने की कोई जरूरत नहीं। अच्छा तेरी इस समय की प्रार्थना स्वीकार की जाऊँगी अगर तू आजमाने में सच्चा ठहरेगा, देख मेरी तरफ!!

इसी समय कोठरी में चाँदना हो गया और साक्षात् शिव की तरह त्रिशूल और डमरू लिए एक अपूर्व मूर्ति के भूतनाथ को दर्शन हुए। भूतनाथ ने मुश्किल से देखा कि इस त्रिशूल में ये बेहिसाब रोशनी निकल रही है और वह रोशनी इतनी कड़ी और तेज है कि उसकी तरफ आँख नहीं ठहरती। शिवरूपी महात्मा ने आगे बढ़ कर भूतनाथ के बदन से वह त्रिशूल लगा दिया जिससे भूतनाथ काँप उठा और एकदम बेहोश होकर जमीन पर लेट गया।

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