खबरदार—गृहलक्ष्मी की लघु कहानी: Hindi Stories
Khabardar

Hindi Stories: उमा दीदी आपका फोन, लीजिये ना, कब से नहीं देखा आपने।”,”अरे,अब ये बुढ़ापा, अब क्या करना फोन का ?”,”अरे,, अरे,, ये कैसी बातें कर रही आप । अभी तो पचपन ही है आपकी उम्र, ”अच्छा, मुझे लगा अस्सी बरस की हो गई ।” उमा ने ऐसा कहकर अपनी सहायिका से मजाक— मजाक मे खुलकर हंस लेने का बहाना खोज लिया।
सहायिका भी हंसने लगी तो उमा ने कहा, ”वाह , हंसकर मजा आ गया, पता है,ये दवाई है विनोबा भावे कहते थे कि दिन मे एक बार खुलकर हंसना ही चाहिए। अच्छा, यह सुनकर सहायिका और जोर से हंसने लगी कि बाहर किसी ने दस्तक दी। सहायिका देखने गई  और नोटों का बंडल हाथ में लेकर लौटी। किराया है, “अच्छा,,गिन लो और फिर मुझे दे दो।” कहकर उमा मन ही मन अपने मैनेजर का आभार व्यक्त कर रही थी।
आजकल जब से वो बाथरूम मे फिसल गई थी वो गेस्ट हाउस का किराया वगैरह नगद ही देकर जा रहे थे। “चलो यह भी एक उपकार है।” कहकर उन्होंने बंडल हाथ मे लिया और दस हजार गिन कर सहायिका को चट से दे दिये। “अरे दीदी, नौ हजार की जगह दस दे दिये आपने। “अरे, बिल्कुल, तुम्हारे जन्मदिन के लिए। एक पसंदीदा कुर्ता खरीद लेना। “ओ हो, दीदी, चार- चार, सुन्दर कुरते तो तीन महीने पहले आप कोलकाता से ले आई थी।  आपके स्वयं सहायता समूह की प्रदर्शनी लगी थी ना।
जब आप गई थी। वो तो अभी सारे नही पहने। “अरे, जन्मदिन का तो शगुन होता है।” कहकर उमा ने आँखे बंद करने का अभिनय किया जबकि उमा को जन्मदिन कहते ही अपने माता-पिता घर दादा—दादी याद आते जा रहे थे। मन भावुक हो रहा था। बचपन से कितनी जिद्दी थी उमा ।दो भाई और वो उनकी लाडली बहन। दादा—दादी कितना प्यार देते थे उसको। जब आठवीं कक्षा में आते—आते वो स्कूल के बाहर बाइक पर खड़े रहने वाले पराग को दिल दे बैठी थी ,तब से हर समय दादा—दादी के कमरे मे ही रहती कि कहीं माता— पिता की नजरे उसकी आखों मे उमड़ता प्यार, उसकी वक्त बेवक्त की मुस्कान पकड़ न ले। दादा—दादी के बड़े कमरे में तो उसका ही साम्राज्य था। यह सब बारहवीं तक ऐसे ही रहा। मोतियाबिंद के मरीज और कानो से कम सुनने वाले बुजुर्ग दंपति  न तो उसका प्रेम पत्र पढ़ पाते थे और न उसकी डायरी। माता —पिता को खूब बुद्धू बनाया था उसने । उमा अपने जन्मदिन पर माता—पिता, भाई और दादा—दादी सबसे नगद रूपये लेती और लुटा देती पराग पर, उफ्फ क्या चालाकी से उमा ने पूरे परिवार को अंधेरे मे रखा । पढाई मे अच्छी थी और प्यारी थी । किसी को कुछ पता न चलने दिया । फिर पराग से जो प्यार का धागा जुड़ गया था। वो तो उन चार सालों मे जैसे किसी जन्नत जैसी जिंदगी का जीता जागता उदाहरण था।

उसे बाइक पर घुमाने वाले पराग ने कितनी ही बार कसम खाई थी कि वो अठारह की होगी तो उसी दिन उससे विवाह कर लेगा और वो दोनों लखनऊ से आगरा जाकर वहाँ एक नया जीवन शुरू करेंगे। उन दोनों का प्यार देखकर दोनो के घरवाले भी मान जायेंगे। उस दिन सुबह से ही बहाना बनाकर चली गई। जन्मदिन है आज घर रहो सबने कहा,” पर, रोज ही जन्मदिन है।”
कहकर वो घर से खिसक गई और पराग ने उसका अठारहवां जन्मदिन कितनी धूमधाम से मनाया। पराग के कुछ दोस्त भी थे। उसने आज ही देखे थे और शाम को उन सबकी उपस्थिति में मंदिर मे उसकी मांग भी भर दी। अभी तो उजाला है उमा चलो हम अब पति- पत्नी  भी बन जायें कहकर पराग उसे एक रिजार्ट में ले गया। देर रात तक जब उमा घर नहीं आई तो उसे खोजा गया। वो उसी रिजार्ट  के एक कमरे में बेहोश मिली। सब गायब थे, पराग तो चौबीस  साल का नौजवान था। दुनिया दारी जानता था। यार दोस्तों के साथ इतना बड़ा कांड करके उसका कोई अता- पता नहीं था ।
 उमा सब समझ गई और खामोश रही । मगर उस दिन जनमदिन के विलंबित उपहार के रूप में उसे पूरे परिवार से इतनी फटकार सुनने को मिली कि एक पखवाड़े के भीतर ही भीतर वो इतनी टूट गई कि बस, अरे, एक संदेश आया है। एक बस मे बैठी और घर से भाग गई। फोन पर ,उसे हिलाकर सहायिका ने कहा तो उसने फोन पर नजर जमाई। पढकर, वो बरफ हो गई।
 सोचने लगी कि उमा तू तो बस एक पेड़ जैसी हो गई है, और बेटे ने तो तेरा ऐसा इस्तेमाल किया कि कुर्सी ही बना लिया था । आज उसने संदेश भेजा था कि मम्मी मेरा बेटा विदेश जा रहा है अब पन्द्रह से पच्चीस की उम्र तक वो विदेश ही रहेगा तो मम्मी मै अब एक महीना आराम से आपके साथ घर पर रहना चाहता हूँ। खूब सारी छुट्टियां बची है मेरी।
उमा को यह संदेश पढकर रोना ही आ गया था। केवल उन्नीस साल की थी वो जब पराग की बेवफाई से आहत होकर और अपने परिवार से तिरस्कृत, बहिष्कृत होकर बस पूना चली गई। बस कंडक्टर को सब बताया तो उसने रैन बसेरा इधर है यहाँ रहना खाना मुफ्त है आगे का खुद सोच लेना कहकर उसे बस से उतार दिया। महीनों यही रही।
मजदूरों का जीवन जिया और एक उदार भोजनशाला मालकिन के यहाँ अमन का जन्म हुआ, पर उमा ने भी कमर कस ली और टिफिन सेवा के काम से आगे बढती—बढती उमा ने अमन के आठवीं तक पहुंचते—पहुंचते अपना एक छोटा सा गेस्ट हाउस तक अपने दम पर तैयार कर लिया था। जब ,बेटा अमन आठवीं मे आया तो उमा को तैंतीस साल पहले अपनी,वो आठवीं कक्षा याद आ गई। जब वो पराग के प्यार मे अंधी बहरी गूंगी होकर, खुद बिखरने लगी थी। पर अमन बहुत होशियार था। वो पढता—लिखता था।,”सब बच्चे नानी के घर जाते है ,मैं नही जाता।” मेरे पापा के परिवार मे कौन था।” जब उस दिन बारह साल के अमन ने जिद कर दी तो उमा ने बता दिया कि पराग जो तुम्हारे पिता थे वो, ये रहे, ये लो, इस अखबार मे देखो।” तब, अमन ने ट्रक दुर्घटना मे पराग की दर्दनाक मौत की वो पूरी खबर पढी।” मगर ये तो दो साल पहले की बात मैंने तो इससे पहले अपने पापा को देखा ही नही ।”जब उत्सुक मन से अमन ने अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उमा ने अपनी प्रेम कथा सुना ही दी और इस तरह अपनी मम्मी का सब  अतीत वो जान ही चुका था।
पढते हुए मेहनत करते, केवल इक्कीस साल की उम्र में एक अच्छी सी नौकरी मिलने पर जब अमन च॔डीगढ जाने लगा तो उमा ने उसे रोका था यह कहकर कि पूना, मुम्बई या नागपुर में काम खोज ले। और फिर ,ये गेस्ट हाउस भी अमन का ही था ,मगर युवा अमन के मन  की तरंग कुछ और ही हिलोरे मार रही थी, और सोनी जो उसकी प्रेमिका भी थी उसके संकेत पर अमन ने चंडीगढ़ जाकर नौकरी करना ही पसंद किया था।
बाद मे उमा को  पता चला कि सोनी और अमन ने विवाह कर लिया और सोनी के मामा का चंडीगढ़ में कारोबार है अमन उनके साथ ही काम कर रहा था। “खैर! जो भी है अच्छा है।” उसने अमन को आशीर्वाद और स्नेह दिया। जब अमन पिता बना तो वो भी चंडीगढ़ गई। वहाँ, तो,नजारा ही अलग था, ढेर सारी दौलत के ढेर पर बैठा उसका अमन अभी पैसे की चकाचौंध मे नीम बेहोशी था।
ये तो अभी दीवाना है ,और मन ही मन खुद से बोलकर, वो यह सब भांपकर,चुपचाप लौट आई थी। मगर, इस घटना के दो साल बाद ही अमन को एक दिन कारोबार से हटकर अपना अलग काम शुरू करना पड़ा था। बस उसी दिन, वो बचपन वाला, असली अमन रोता-पीटता उसके सामने  आया कि सोनी और वो अभी कंगाल हो गये है। बच्चा दो साल का है। तब ,उमा पिघलने लगी और दस लाख उसे उसी समय दिये। पैसा लेकर अमन चंडीगढ़ रवाना हो गया। उमा जी उसकी हरकत पर हंस पडी, जबकि वो जानती थी कि अमन कितना मतलबी हो गया है। बस,अपने लिए ही आया। और यही हुआ। उस दिन के बाद,तब से अमन ने कभी भी, खुलकर फोन पर बात तक नहीं की ।और, आज ये संदेश भेज दिया है कि एक महीना आनंद से गेस्ट हाउस में रहना है। चैन की सांस लूँगा। हां और भी दो अतिरिक्त कमरे खुलवा कर  ,साफ करवा  देना, दोस्त भी आ रहे है। उमा को कितनी हंसी आ रही थी।
आज आप विनोबा भावे जी की भक्त बन गई हो। केवल हंसने से पेट नही भरेगा। आप आओ,टेबल पर खाना लगा दिया है। सहायिका ने मनुहार की, तो ,”आई ,बस, एक संदेश भेज रही हूँ ।” कहकर उमा जी ने टाइप किया। बेटा अमन ,आजकल तो सीजन है ,कमरे का किराया चार गुना हो गया है। मैं मैनेजर का फोन नंबर दे रही हूँ। यहाँ खाने और नाश्ते का अलग से किराया लेते हैं। बात कर लेना। मैं तो मिल नही पाऊँगी। मेरी सहायिका का जन्मदिन है, ना। कुछ दिन के लिए शिमला ,कुफरी, कुल्लू मनाली जा रही हूँ। आज तक देखा नहीं। इसलिए, उधर, अगर मन लग गया तो हमको वहाँ ज्यादा दिन भी लग सकते है ।”उमा ने संदेश भेजा और तुरंत ही नीला निशान आ गया।  अब उमा को सुकून मिला वो भोजन की टेबल तक जाते हुए सोचने लगी । अमन बेटा ,कितने मतलबी तरीके आजमाते रहोगे तो, हमारे द्वारा नए तरीके भी खोज ही लिए जाएंगे!

अधिक मारक भी, फिर उन्हें सोचते, समझते, उनका विश्लेषण करते रहना,मेरी मजबूती और  बौद्धिक संपदा का तुम्हें अंदाजा तक नहीं है, नए-नए पंख उगते रहेंगे, आगे भी,मैं तो अब उड़ती ही रहूंगी । हां और एक बात अमन, तो यह धैर्य का अंत है, और न ही तुम्हारी सजा का,और न चलती लड़खड़ाती संभलती और फिर खड़ी होती तुम्हारी मम्मी की जिजीविषा का। अमन, मैं भी तुम्हारी मम्मी हूे बेटा यह सोचकर,  वो अब चटखारे लेकर भोजन कर रही थी ।

Leave a comment