उसकी ईर्ष्या की इंतेहा उसे पागल से भी ज्यादा खतरनाक बना देती। उसका वश चलता तो वह खुशियां मनाने वाले के घर जाकर उसकी खुशियों को तहस-नहस कर डालती, मगर वह मजबूर थी, चलने में असमर्थ थी, क्योंकि वह अपाहिज थी। उसने अपनी जिद के कारण अपनी दोनों टांगों को बेकार कर लिया था। जब उसके पैरों में जकड़न से दर्द उठा तो उसे धूप में बैठने की सलाह दी गई मगर उसने जिद पकड़ी तो ऐसी कि कई दिनों अंधेरी ठण्डी कोठरी में दरवाजा बंद करके पड़ी रही। नतीजा, उसके दोनों पैरों की त्वचा, जांघ की त्वचा से चिपक गई फलस्वरूप वह अपाहिज हो गई। बिना ऑपरेशन  उसके पैरों की त्वचा अलग करना संभव नहीं हुआ और ऑपरेशन  उसके पति की सामर्थ्य  में नहीं था। उसका पति उससे बेहद प्रेम करता, मगर वह चौबीसों घण्टे उसे बद्दुआ ही देती रहती।

उसके बच्चे भी मां शब्द का अर्थ समझ नहीं पाते थे। मां शब्द उन्हें गाली समान लगता था। जब उनकी मां मौहल्ले और परिवार वालों को कोसती तो उन बच्चों को अपनी मां के बारे में पचासों तरह की शिकायतों सुनने को मिलतीं। एक दिन मौहल्ले से किसी लड़के की बारात निकल रही थी तो वह औरत जिसका नाम बिंदिया था, अपने दरवाजे पर बैठी थी। जैसे ही घोड़ी पर बैठा दुल्हा उसके घर के सामने से निकला तो उसने बिना बात उसे कोसना शुरू कर दिया। नतीजा समझिये या संयोग कि कुछ दूरी पर जाकर दूल्हा घोड़ी से गिर गया। मौहल्ले की एक औरत, जिसने बिन्दिया को कोसते हुए सुना था शाम होेते ही बिंदिया के पति अशोक और पुत्र रोहित के पास पहुंची तथा अशोक से बोली, ‘‘भाई साहब, अपनी पत्नी को समझाइये, उसकी जुबान काली है तो चुप रहा करे।”

‘‘क्या हुआ चाची? अशोक ने उस औरत से कहा।

‘‘हर किसी की खुशियां देखकर जलती हैं आज मेहता साहब के बेटे की बारात निकली तो दूल्हे को कोसने लगी, जुबान तो देखो चार कदम पर ही दूल्हा गिर पड़ा, वो तो मैनें सुना यदि कहीं मिसेज मेहता सुन लेती तो चप्पलों से मूंह सुघां देती, समझे अशोक बाबू-” बड़बड़ाती हुई वह औरत चली गई।

अशोक गुस्से में बिंदिया से बिफरकर बोले, ‘‘तू क्यों हत्यारिन बनकर हमारे पीछे पड़ गई हैं, क्या चाहती है तू-?”

‘‘मैं तुम्हारी कसम खाकर करती हूं मैंने कुछ नहीं कहा” बिन्दिया बिलखकर बोली।

‘‘चुप रह, तेरे पीछे हमें सबसे मुंह छिपाना पड़ता है–? अशोक बिंदिया को घसीटकर कमरे की तरफ ले जाते हुए बोले।

रात भर बिंदिया कमरे में पड़ी बड़बड़ाती, दुनिया जहान को कोसती रही और सुबह होते ही दरवाजे पर जाकर बैठ गई। हकीकत यही थी कि वह मानसिक तौर पर विक्षिप्त थी, मगर उसके पति के पास ना तो इतने पैसे थे कि उसका इलाज कराये और ना ही उनमें बिछोह सहने की इतनी शक्ति थी कि वह अपनी पत्नी को मानसिक चिकित्सालय में इलाज के लिए छोड़ सके, फलस्वरूप् बिंदिया इस घिसटती जिन्दगी को जीने के लिए मजबूर थी।

उसके पति को इस बात का भी बहुत बुरा लगता था जब कोई उनकी पत्नी को पागल कहता या उसकी शिकायत करता। बाहर वाले ही नहीं बल्कि उसी बिल्डिंग के लोग भी बिन्दिया की सारे दिन की बकवास से परेशान रहते थे। उस दिन की सुबह भी जब वह दरवाजे पर बैठी थी तो उसको बड़बड़ाना ही सूझ रहा था उसके पास से जैसे ही उस बिल्डिगं में रहने वाली एक बच्ची गुजरी, बिन्दिया ने बड़बड़ाना शुरू किया,

‘‘सांपिन कहीं की-यहीं से निकलेगी जैसे इसके बाप की गली हो-‘ ‘‘मैं निकल ही तो रही हूं तुम्हारा क्या ले रहा हूं- ” उस बच्ची ने कहा और बिल्डिगं में ऊपर चली गई । ऊपर जाकर उसने अपनी मां से उसकी शिकायत की तो उसकी मां बिन्दिया को पचास खरी-खोटी सुनाकर चली गई। बिन्दिया बैठी-बैठी बड़बड़ाती रही, रोती रही। कुछ देर बाद जब उसके सामने से मौहल्ले के तोमर साहब निकले तो बिन्दिया ने उन्हें रोककर कहा, ‘‘सुनिए भाई साहब-।”

 ‘‘हां कहो-” तोमर साहब रूककर बोले।

‘‘भाई साहब-सब लोग मुझे बहुत परेशान करते हैं, आप पुलिस में रिपोर्ट करवा दीजिए-”।

‘‘किस बात की-?”

‘‘मुझे अशोक मारता है, रोहित मारता है, मैं किसी से बोली तक नहीं हूं। दुनिया के लाखों बच्चे हैं मेरे तो केवल दो ही हैं, फिर भी मैं कुछ नहीं कहती। बिन्दिया उल्टी-सीधी बकवास करने लगी। तोमर साहब को ऐसा लगा कि यदि वह दो मिनट और उसकी बकवास सुनेंगे तो वह भी पागल हो जाएंगे। जैसे तैसे वह पिन्ड छुड़ाकर निकल ही गये। बाजार में ही उन्हें बिन्दिया के पति अपनी दुकान पर बैठे दिखाई दिये। तोमर साहब पर नजर पड़ते ही अशोक ने उनसे राम-वंचना की, तो तोमर साहब उनकी दुकान पर ही जाकर बोले,

‘‘अशोक बाबू आप अपनी पत्नी का इलाज क्यों नही करवाते-?”

‘‘क्या हुआ तोमर साहब-”? अशोक चिन्तित स्वर में बोले।

‘‘उसका पागलपन बढ़ता ही जा रहा है। हर आने-जाने वालों को गालियां देना, उनसे शिकायतें करना और दिन-भर रोते रहना, बस यही काम रह गया है उसे। मौहल्ले में ऐसा अच्छा नहीं लगता। टायलट जाती है तो नाली पर ही गंदगी फैला आती है आखिर वह पागल नहीं तो क्या है-? आप उसे पागल खाने भिजवा दीजिए बस-।”

‘‘वह पागल खाने नहीं जायेगी।”

‘‘तो उसकी जुबान बंद क्यों नहीं करवाते?‘‘

‘‘देखिए-अब वह कुछ नहीं कहेगी-।‘‘

‘‘कमाल करते हैं अशोक बाबू आप-। आपकी पत्नी विक्षिप्त है मगर आप उसका इलाज करवाने की जगह उसके रोग को बढ़ा रहे हैं।”

‘‘मेरे पास इतने पैसे नहीं-।”

‘‘चलिए मैं आपको एक ऐसे मानसिक चिकित्सालय में लिए चलता हूं जहां सारा इलाज मुफ्त होगा-।”

‘‘देखिए मैं उसे पागलखाने नहीं भेज सकता और फिर वह मेरी पत्नी है मेरी समस्या है। आपको उसके लिए दुबला होने की जरूरत नहीं है। -” अशोक ने खिसियाकर कहा तो तोमर साहब अपना-सा मूंह लेकर चले गये। बिन्दिया की जिन्दगी जैसे-तैसे घिसट रही है, उसके ठीक होेने के अवसर भी हैं मगर उसके पति पता नहीं उससे अत्यधिक प्रेम करते हैं या अत्यधिक घृणा जो उसके इलाज से ही चिढ़ते हैं या तो वह प्रेम के कारण बिन्दिया पर इलेक्ट्रिक शाॅट बर्दाश्त नहीं कर सकते या घृणा के कारण उसका इलाज ही नहीं कराना चाह रहे। बहरहाल बिन्दिया की जिन्दगी घिसटने के लिए मजबूर है। हर रोज उसकी बकवास जारी रहती है, हर रोज वह पिटती है। 

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