grehlaksmi kahani

गृहलक्ष्मी कहानियां – सुबह का अखबार लेकर मिस्टर कांतिलाल अभी बरामदे में आए ही थे कि उनकी मिसेज चाय की प्यालियां लिए मुखातिब हुईं, सुनो जी, आज मॉर्निग वॉक पर मिसेज गुलाटी कह रही थीं कि तुम्हारे डिपार्टमेंट वाले श्रीरामजी के साथ कुछ हादसा हो गया है। नाश्ते के बाद फुर्सत हो तो मिल आना।

कहकर उन्होंने मुस्कान छिपा, कुछ सस्पेंस भरी निगाहों से कांतिलाल जी को ताका और बरामदे में रखे पौधों के गमलों से थोड़ी छेड़-छाड़ कर चाय के प्याले समेट, किचन को रुखसत हो गईं। श्रीमतीजी के मामले में कांतिलालजी बेहद भाग्यशाली हैं। इस उम्र में भी सुचेताजी में गज़ब की चुस्ती-फुरती है। अपनी गृहस्थी को बखूबी संभालने के साथ समाज कल्याण में भी लगी रहती हैं। कांतिलालजी का बस चले तो दिन-रात टीवी और अखबार में ही घुसे रहें। वही हैं जो आस-पड़ोस, दीन-दुनिया से वाबस्ता रहतीं और उन्हें भी कम से कम शाम को उकसाकर कॉलोनी के नुक्कड़ की चाय दुकान तक ठेल-ठालकर ही दम लेतीं।

बहरहाल श्रीरामजी के नाम और मिसेज़ की सस्पेंस भरी मुस्कान दोनों में अखबार की सुर्खियों से ज्यादा थ्रिल था जो उन्हें तुरंत मौका-ए-वारदा पर पहुंचने को बावला कर रहा था। दरअसल, जिन श्रीरामजी का जि़क्र मिसेज़ ने किया वे कांतिबाबू के ही डिपार्टमेंट में उनके कुलीग थे। इनका नाम मालूम होता है इनके बड़ों ने बड़े ही चाव से रखा होगा। एक तो भगवान का नाम, दूजे आदरसूचक संबोधनों से आगे-पीछे स्वत: लैस- श्रीरामजी।

महाशय अवश्य ही जन्मजात महापुरुष रहे होंगे तभी तो एक मामूली आवेदन पत्र भी सही ढंग से न लिख पाने के बावजूद डिपार्टमेंट में मिस्टर कांतिलाल समेत कई क्लर्कों को पछाड़कर तरक्की की सीढिय़ां चढ़, महकमे की ऊंची कुर्सी पर जा बैठे। किसी के जलने-भुनने में क्या रखा था, तकदीर के पहलवान थे श्रीरामजी।
ठिगना कद, गेहुआं रंग, तोते जैसी मुड़ी नाक, उजड़ी खेती में बची-खुची फसल चंद पके बालों को खिजाब से कालाकर, मूंछ-दाढ़ी मुंड़ाए, पान चबाते, मुंह में पीक भरे, बात-बेबात दूसरों पर तानाशाही कर हीं-हीं, खीं-खीं करते श्रीरामजी कूटनीति और मौकापरस्ती का पुतला थे जो काम निकलवाने के घटिया-से-घटिया हथकंडे आज़माने में भी कभी कोताही नहीं करते थे। सरकारी खज़ाने समेत न जाने कितने लोगों की मजबूरियां भुनाकर उन्होंने करोड़ों कमा तीन मंजिला कोठी खड़ी कर ली थी। कोठी के अगले विशाल हिस्से में वे परिवार समेत रहते थे। पीछे के हिस्सों में कई दड़बेनुमा फ्लैट बनवा किराए पर उठा रखे थे। अपने पुण्यप्रताप से अर्जित धन का जो हिस्सा उन्होंने अपने सपूतों पर लुटा उन्हें कांतिलालजी ने भी दुनिया देखी थी। मन ही मन कुछ अनुमान भी लगा रहे थे, लगता तो मामला पिटने-पिटाने का है उनका अंदाज़ा बरसों के घायल मन को सुकून दे रहा था। पर कैसे! कहां! किससे?

विदेशी शिक्षा हासिल करने भेजा था, उससे उन्हें यही लाभ हुआ कि तीनों सपूत जीन्स-टॉप में सजी पत्नियों से लैस, अपनी सुयोग्यता साबित कर, वापस श्रीरामजी भवन में लौट, अब बैठे-बैठे दिन-रात उनकी वंशावली और देश की आबादी बढ़ाने में अनुरक्त और व्यस्त हो गए। पर इस सबसे मोटी खालवाले श्रीरामजी को कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। उम्र के चौथे पड़ाव में कदम रखने के बाद भी उनकी फितरत ज़रा नहीं बदली थी।

इधर सब्जीवाले के ठेले पर कॉलोनी की महिलाएं दिखीं नहीं कि महाशय पान चबाते आ खड़े हुए। लेना-देना चाहे कुछ नहीं पर ठेले के पास पहुंच कभी किन्हीं पर कुछ कमेन्ट्स तो कभी ढिठाई की सीमा लांघते बे-सिर-पैर की बातें और भोंडे हंसी-मज़ाक, इशारेबाज़ी। उनकी हरकतों से कॉलोनी की तमाम महिलाएं त्रस्त रहा करतीं। कॉलोनी छोटी थी और एक ही महकमे के चंद रिटायर्ड लोगों ने इसे आबाद किया था इसलिए लोग बातों को तूल न देते थे।

उनके किराएदारों में रमन गुलाटी और उनकी पत्नी रीता गुलाटी भी थे। ये दंपत्ति काफी जागरूक और सुलझे हुए थे। रीता गुलाटी से हमारे कांतिलालजी की पत्नी सुचेता की काफी अच्छी पटती थी, या यों कहिए वैचारिक साम्यता थी। ये महिलाएं किसी महिला संगठन की अगुवा से कम न थीं। सुचेताजी का तो कॉलोनी की महिलाओं की एकजुटता और जागरूकता में योगदान सदा से अग्रिम श्रेणी में रहता था।

खैर, नाश्ता जल्दी से निबटा मिसेज़ से अपनी उतावली छिपाते कांतिलालजी शीघ्रातिशीघ्र श्रीरामजी भवन के अहाते में थे। अहाता कुछ सूना और वीरान-सा देख उन्होंने वहां उपस्थित ड्राइवर कम माली से पूछा, अरे, बाल-बच्चे सब? कोई है नहीं क्या घर में? थोड़ा सकपकाते हुए, प्रत्युत्तर में वह बोला, नहीं, पंद्रह दिनों से सब लोग रीना दीदी (श्रीरामजी महाशय की छोटी बेटी) के यहां उनके बच्चे की छठी में गए हैं। केवल साहब यहां हैं। उन्होंने घंटी बजाई, दरवाज़ा खुला था। देर बाद तक किसी को आता न देख उन्होंने आवाज़ दी।

अंदर से कराहने के स्वर में जवाब आया, कौन है? आ जाओ भई। प्रविष्ट होते ही कांतिलालजी की बांछें खिल गईं। सीन ही कुछ ऐसा था। उन्होंने झूठमूठ चेहरा लटकाकर मन-ही-मन फूटते लड्डुओं को संभाला और दिखावे के तौर पर चिंतातुर हो उठे- ये क्या हो गया श्रीरामजी? कब? कैसे?

श्रीरामजी गुलगुले दीवान पर मसनद से टेक लगाए बैठे थे। नाक के बीच एक पट्टी चिपकी थी। कोहनी पर भी बैंडेज बंधा था। हाथ को एक पट्टी के सहारे गले से लटकाए, गले में कॉलर पहने बैठे दूसरों को कभी इंसान न समझने वाले, महान श्रीरामजी के प्रति हृदय के किसी कोने से झांकती सहानुभूति को कांतिबाबू ने तुरंत दफा कर दिया। उन्हें देख एकबरगी बुरी तरह सिटपिटाकर झेंपे। उड़े चेहरे पर यहां-वहां पड़े नीले निशान और चोटों से बयान सच्चाई को दूसरे ही पल ढिठाई से छिपाने के प्रयास में श्रीरामजी ने हं…हीं…हीं का जामा ओढ़ाने का असफल प्रयत्न किया। कल अचानक बाथरूम में पैर फिसल गया। कांतिबाबू एकदम से ताड़ गए कि मामला संगीन लगता है।

औपचारिकता की आड़ में खबर की तसदीक कर अब कांतिलाल ने श्रीमती से सारा माज़रा जानने को बेताब, वापस घर की राह ली। मिसेज़ पूजा-पाठ समाप्त कर फोन पर किसी से बातें कर रही थीं। पतिदेव के पहुंचते ही फोन रख खिल्ली उड़ाने के अंदाज़ में बोलीं, मिल आए श्रीरामजी से? क्या हाल है जनाब के?
कांतिबाबू की बेसब्री और उत्सुकता ने संयम को परे धकेल दिया, बोले, अरे भई, सीन तो बड़ा ही मज़ेदार रहा। सच मानो, उसकी तो शक्ल देखते ही बन रही है। पर है तो अव्वल दर्जे का ढीठ और बेशरम। अब सस्पेंस खत्म करो और असल खुलासा कर भी दो। कांतिलालजी ने भी दुनिया देखी थी। मन ही मन कुछ अनुमान भी लगा रहे थे, लगता तो मामला पिटने-पिटाने का है उनका अंदाज़ा बरसों के घायल मन को सुकून दे रहा था। पर कैसे! कहां! किससे?

तब जाकर सुचेताजी ने मुंह में पल्लू का कोना ठूंस जैसे फूटती हंसी को रोका और आक्रोश भरी आवाज़ में बोलीं, श्रीमान श्रीरामजी की पत्नी और बाल-बच्चे यहां हैं नहीं। ये गरदन की फिजियोथेरेपी चलने का बहाना बना यहां रुक गए होंगे। राधा महरी की बेटी गुड्डïन आकर सुबह-शाम इनका चूल्हा-चौका संभाल जाया करती थी। पिछले आठ-दस रोज़ से बुढ़ऊ जानबूझकर उसेआते ही टीवी पर फूहड़ गानों वाला चैनल लगा दिया करते। बेचारी बच्ची, सत्रह-अठारह साल की तो कोई उम्र है उसकी, सोचती रही कि दादाजी उसके मनोरंजन के लिए ऐसा करते हैं। पर धीरे-धीरे माज़रा उसकी समझ में आने लगा जब वे उठते-बैठते उससे टकरा जाते। पोंछा-झाड़ू करती तो उसी वक्त उन्हें कपड़े बदलने होते। किचन में बरतन-बासन करती तो उन्हें ह्रश्वयास लग जाती। पानी पकड़ाती तो हाथ पकड़े बगैर गिलास ही न थाम पाते। गरीब लड़की सब समझने लगी पर दादीजी को वायदा दिया था कि उनके वापस आने तक दादाजी का ख्याल रखेगी। छुट्टी ली तो महीने की पगार कटेगी सो कटेगी, दशहरे का बोनस जाएगा सो अलग। सोचकर बर्दाश्त करती रही कि चलो बच-बचाकर निकल लूं।

पर घाघ बुड्ढे के मुंह तो खून लग चुका था। उसने परसों रोटी बनाती गुड्डïन के पीछे पहुंच अचानक उसे जकड़ लिया। शाम का अंधेरा फैल चुका था। घबराकर उसने आनन-फानन बुड्ढे को धक्का मारा। कोहनी व हाथ में लगी चोट से श्रीरामजी जब तक संभल पाते कि तभी उसने बेलन उनकी नाक पर दे मारा। उस दिन उसने पूरे दो हफ्तों की भड़ास निकाली। ऊपर से चीखती-चिल्लाती भागकर अपनी मां व रिश्तेदारों को भी बुला लाई। उसकी चीख-पुकार और गालियों की बौछार से हड़बड़ाए बुढ़ऊ की अच्छी-खासी धुलाई की गुड्डïन ने। श्रीरामजी ने इज्जत बचाने के लिए पैसों से उसका मुंह बंद करना चाहा पर लड़की खुद्दार निकली। गरीब की क्या इज्जत नहीं होती? पहुंच गई रीता गुलाटी के यहां। रो-रोकर सब हाल बताया। वो तो हमने ही बीच-बचाव कर बात को रफा-दफा किया वरना तो गुड्डïन श्रीरामजी की रिपोर्ट लिखाने थाने जा रही थी।

कांतिलाल सब सुनकर थोड़ी देर अवाक्-हैरान खड़े रहे, फिर पति-पत्नी दोनों एकसाथ ठठाकर हंस पड़े। शाम को चाय की दुकान पर कांतिलाल के पहुंचने से पहले शर्माजी, नियोगीजी, प्रसादजी ज़ोरदार ठहाके लगाते दिखे। विषयवस्तु थी, श्रीरामजी की धुनाई। हंसकर दोहरे होते प्रसादजी बोले, अमां देखते नहीं थे, बुढ़ापे में भी उसकी हरकतें। कॉलोनी की औरतें तंग आ चुकी थीं उससे। नियोगीजी ने आगे जोड़ा, अब बुढ़ापा काटेंगे अकेले। पत्नी तो सुना है अब नहीं आनेवाली।

रामलीला की तैयारियों के लिए कॉलोनी के आस-पास के चार-पांच लड़के चंदे की रसीद काटने आते दिखे। उन्हें देख शर्माजी को जैसे कुछ याद आ गया। बोले, भई असली लीला तो वाकई हमारी कॉलोनी में हुई है। वो चौपाई नहीं सुनी-
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा। कांतिलालजी के मुंह से निकला- वाह रामजी वाह! अपने नाम की महत्ता को धूमिल करने का दंड देकर आपने देर से ही सही अंधेर होने से बचा ली। 

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