‘अरे, दस बज गए’ चौंक कर अनु ने कहा, ‘ये काशीबाई फिर काम पर नहीं आई। अभी सफाई, बर्तन, कपड़े सब काम पड़ा है। चुनमुन की तबियत भी ठीक नहीं है। मैं अकेली क्या-क्या कर पाऊंगी।’ बड़बड़ाती और खीजती अनु ने सबसे पहले सौरभ को चाय-नाश्ता दिया। सौरभ की आज एक जरूरी मीटिंग थी, अगर लेट हो जाते तो अनु की ही शामत आती। उसके बाद चुनमुन को गोद में बैठाकर सेरेलक खिलाया। सौरभ की कार स्टार्ट हो जाने के बाद अनु ने राहत की सांस ली। चुनमुन को तैयार करके दवा पिला दी तो वह आराम से सो गया। सिंक में पड़ा बर्तनों का ढेर उसे मुंह चिढ़ा रहा था। काशीबाई को कोसती हुई अनु घर के काम में लग गई। सब काम निपटाते हुए 12 बज गए, तब तक चुनमुन जाग कर रोने लगा था। उसको अनु ने दूध पिलाया और पालने में लिटा दिया।

अब वह किलकारी मारने लगा था। ‘खाने में क्या बनाऊं? अभी एक बजे ऑफिस से प्यून आता ही होगा। फटाफट काम करना पड़ेगा, टिफिन टाइम पर नहीं पहुंचा तो सौरभ का पारा चढ़ जाएगा।’ ये सोचते हुए अनु ने जल्दी-जल्दी पनीर की सब्जी, रायता, परांठे और सलाद तैयार कर दिया। उसके बाद फुर्सत मिली तो नहाने भागी। नहाने और पूजा करने के बाद एक कप चाय बनाकर पीने बैठी ही थी कि डोरबेल बजी। झुंझलाते हुए अनु ने दरवाजा खोला तो देखा काशीबाई खड़ी थी ‘आइए महारानी, मिल गई फुर्सत, सब काम तो हो गया है, बस बैठकर चाय-नाश्ता कीजिए’, बड़बड़ाते हुए अनु की निगाह काशीबाई के चेहरे पर पड़ी तो वह चौंक गई। चेहरा सूजा हुआ था। हाथ और पैर पर पट्टी बंधी थी।

‘ये क्या काशी, फिर तेरे आदमी ने तुझे मारा, क्यों सहती है इतना? तू अच्छा खासा कमा लेती है, घर का, बेटी की पढ़ाई का खर्च तू ही उठाती है। तेरा शराबी आदमी करता ही क्या है?’

काशीबाई धीरे से फर्श पर बैठ गई। ‘क्या करूं मेमसाब, कहां जाऊं? अब तो मेरे भी सहने की ताकत खत्म हो गई है। कोई और सहारा मिल जाता तो मैं बेटी को साथ लेकर निकल जाती। लात मार देती ऐसे करमजले को। घर छोड़ दूं तो फिर

हम मां-बेटी सडक़ों पर भटकेंगी। मैं तो सह लूं, पर बेटी की दुर्दशा मुझ से देखी नहीं जाएगी।’ अनु को दया आ गई। काशीबाई को चाय, बिस्किट के साथ दर्द दूर करने के लिए एक गोली दे दी। साथ ही शाम की छुट्टी भी दे दी। चुनमुन को दूध पिलाते समय उसके जेहन में काशीबाई की बातें ही घूम रही थी। क्या औरत सहने के लिए ही होती है। क्या सब करके भी पति का अत्याचार सहना ही औरत की नियति है। काशीबाई निम्नवर्ग की है, अनपढ़ है, वह भी पति का और अनु पढ़ी लिखी, उच्च वर्ग की होकर भी पांच साल से सौरभ की ज्यादतियां सह रही है।

सौरभ का स्वभाव बहुत ही गुस्सैल था। क्रोध में वह अपना विवेक खो देता था और अक्सर अनु पर हाथ उठा देता था। सीधी-सादी अनु ना कभी विरोध कर पाई और ना ही किसी से सौरभ की शिकायत की। घर बाहर सबको लगता था कि वह सुखी है। हकीकत सिर्फ अनु ही जानती थी। एक बार तो सौरभ ने वास उठाकर उसके माथे पर दे मारा था। काफी चोट आई थी। सबके पूछने पर उसने बाथरूम में गिरने का बहाना बना दिया था। शरीर से ज्यादा चोट उसके मन पर लगी थी। सोसायटी में सौरभ गंभीर और जिम्मेदार माना जाता था। प्रतिष्ठित कंपनी में सीनियर मैनेजर का पद, कंपनी की ओर से गाड़ी, फ्लैट, पैसा और मान-सम्मान। एक सफल आदमी से और क्या उम्मीद की जाती है। 

बचपन में जो अभाव उसने देखा, उसका प्रभाव उसके अवचेतन पर था। पिता की मृत्यु के बाद सौरभ की मां ने किसी तरह उसे पाला था। टयूशन कर सौरभ ने एमबीए कर लिया। नौकरी लगने के बाद अनु से उसकी शादी हुई। बचपन की दबी, भावनाएं अब भी जोर दिखा देती थीं। हर टेंशन- फ्रस्ट्रेशन अनु पर ही निकलता।

अनु सोच रही थी कि काशीबाई अनपढ़ हो कर पिटती है, वह एम.ए. बी.एड. होकर भी पिटती है, तो फर्क क्या है? कई बार उसके मन में आया कि किसी स्कूल में नौकरी कर ले तो खुद को बेहतर बना पाएगी। सौरभ से एक बार डरते-डरते पूछा तो वह चिल्लाने लगा, ‘क्या मैं कमा नहीं रहा हूं? क्या कमी है तुमको? ठाठ से रहती हो। खबरदार, जो कभी बाहर काम करने के बारे में सोचा। ज्यादा जोश आ रहा है तो घर में रहकर ही कुछ शुरू करो। नौकरी करोगी तो चुनमुन को कौन देखेगा।’ अनु मन मार कर रह गई थी, लेकिन मन में यह सब चलता रहा।

दो दिन बाद काशीबाई फिर काम पर नहीं आई। दोपहर में सौरभ का टिफिन भिजवाकर अनु चुनमुन को साथ लेकर टैक्सी में काशीबाई की चाल पहुंची तो देखा कि काशीबाई बिस्तर पर पड़ी थी। अनु को देखते ही काशी के आंसू निकल पड़े। आज अनु के पैर में भी जबरदस्त दर्द था। रात को सौरभ ने उसे दरवाजे के पास ढकेल दिया था। अनु ने काशीबाई को गले लगा लिया। दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं। आखिर दोनों एक ही दुख की मारी थीं। दोनों ही पति के जुल्म की शिकार महिलाएं थीं। दोनों एक दूसरे के दुख को महसूस कर रही थीं।

काफी देर बाद अनु ने काशी को चुप कराया, ‘देख काशी, अब पानी सिर के ऊपर निकल गया है। अगर तू खुलकर मेरा साथ दे, तो मैं वादा करती हूं कि तेरा और तेरी बेटी का भविष्य संवार दूंगी।’

थोड़ी देर बाद काशी बोली, ‘मैंने सोच लिया मेमसाब। मैं इस आदमी के साथ नहीं रहूंगी। मेरे साथ मेरी बेटी का भी जीवन नर्क बन गया है। आप जैसा कहेंगी, मैं वैसा ही करूंगी। मुझे आप पर पूरा भरोसा है।’ ‘तो चल मेरे साथ। बस अपने और वंदना के कपड़े ले ले। आज से तुम दोनों की जिम्मेदारी मेरी है।’

अगले दिन अनु ने सौरभ से पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, ‘इतने बड़े फ्लैट का गेस्ट हाउस खाली रहता है, कोई मेहमान तो आता-जाता नहीं। वहां मैं क्रेच खोलूंगी।’

सौरभ ने हौरानी से देखा कि अनु में यह दृढ़ता कहां से आई, पर फिर भी अकड़ कर कहा, ‘क्रेच चलाना मज़ाक नहीं है। चुनमुन तो तुमसे संभाला नहीं जाता, दूसरों के बच्चे क्या संभालोगी, फिर अकेले के बस का नहीं है।’

‘आज से काशीबाई और वंदना यहीं सर्वेंट क्वार्टर में रहेंगी और क्रेच का काम संभालेंगी। मेरी सहेली निकिता, चाइल्ड स्पेशलिस्ट है, वह बच्चों की हेल्थ पर निगाह रखेगी। हम चार लोग मिलकर चला लेंगे। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।’ अनु ने साफ लफ्जों में कह दिया।

गेस्ट रूम को सुंदर गुलाबी रंग से पेंट करा दिया गया। चारों तरफ सुंदर पोस्टर और पेंटिंग लगा दिए गए। बच्चों के छोटे-झूले और खिलौनों से सजा कर क्रेच तैयार हो गया। फिर अनु ने अखबार में ‘चुनमुन क्रेच’ का इश्तहार छपवा दिया। दो-चार दिन में ही पांच कामकाजी माएं अपने बच्चों को लेकर वहां आ गई।

अनु ने उनको भरोसा दिलाया कि अपने बच्चों को क्रेच छोडक़र वे लोग निश्चिंत होकर अपने काम पर जा सकती हैं। क्रेच का समय सुबह दस बजे से शाम शह बजे तक का था। अनु और काशी मिलकर दस बजे तक घर का सारा काम निपटा देती थीं। तब तक वंदना क्रेच की सफाई और अपनी पढ़ाई निपटा लेती थी। अनु ने वंदना को प्राइवेट हाईस्कूल का फार्म भरवा दिया था।

सौरभ के ऑफिस जाने के पहले से बच्चों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता था। दिन में एक बार डॉ. निकिता आकर बच्चों की देखभाल करती। चुनमुन को बच्चों का साथ मिल गया था। अब वह दिन भर खेलता और खुश रहता।

एक महीना पूरा होने पर जब मांओं ने पेमेंट किया तो अनु की खुशी का ठिकाना नहीं था। अपनी मेहनत की कमाई अपने हाथों में लेकर वह सातवें आसमान पर थी। क्रेच के सब खर्च, काशीबाई और वंदना की तनख्वाह निकालकर अच्छी खासी रकम बची थी। निकिता ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया था।

शाम को काशीबाई और वंदना को साथ लेकर अनु बाजार गई। दोनों को उनकी पसंद के कपड़े और जरूरत का सामान दिलाया, फिर चुनमुन के लिए वॉकर और सौरभ के लिए एक शर्ट खरीदी। इसके बाद मंदिर में माता के दर्शन करके प्रसाद चढ़ाया। रात में अनु सुकून और आत्मविश्वास से लबरेज थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि मेहनत करके वह अपना मानसिक और आॢथक स्तर मजबूत कर सकती है। उसकी लगन, हौसला और मेहनत देख कर सौरभ के स्वभाव में भी नरमी आने लगी थी।

काशीबाई भी अपने कमरे में बैठी यही सोच रही थी कि हिम्मत करके घर छोडऩे से कैसे उसका जीवन बदल गया। वंदना को इत्मीनान से सोते देखकर उसने अनु मेमसाब का शुक्रिया अदा किया। कहां तो अनु और काशीबाई दोनों के ही पैरों के नीचे जमीन भी नहीं थी पर आज अपनी हिम्मत और लगन से दोनों ने अपना-अपना आसमान पा लिया था। 

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