Osho Discourses: कलाकार के लिए ओशो कहते हैं कि ‘सारी तकनीक छोड़ दो और शून्य चित्तदशा में कला का सृजन करो।’ इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं। इस स्थिति में ही कला में वह अनगढ़, शक्तिशाली तत्त्व आ सकेगा जो कि वास्तविक सृजन का स्रोत है। इस बात को मैंने तब महसूस किया जब ओशो के प्रवचनों को चित्रित करने के लिए मैं मुंबई गया था। सूफियों पर उनके प्रवचन चल रहे थे। अब सूफियों की रूहानी मोहब्बत पर ओशो जैसा आदमी बोल रहा हो तो यह मौका तो मैं छोड़ने वाला नहीं था। म्यूजिशियन्स के लाइव म्यूजिक को पेंटिंग्स में उतारने का मेरा सिलसिला शुरू हो चुका था, सो सोचा कि सूफियों पर ओशो के प्रवचनों को भी पेटिंग्स में जरूर उतारूंगा। ओशो की ओर से इजाजत भी मिल गई। मुझे याद है कि जब ओशो का प्रवचन शुरू हुआ तो दिमाग तो न जाने कहां काफूर हो गया। दिल को कभी लगे कि यह आवाज म्यूजिक है, कभी लगे कि कोई डांस चल रहा है, और कभी अहसास हो कि कोई पेंटिंग सजाई जा रही है। बस कैनवास पर क्या उतरता चला गया, मालूम ही नहीं-कोई तकनीक नहीं, सिर्फ एक शून्य चित्तदशा। उस समय मैं अपने सृजन के रुाोत के रूबरू था। 1977-78 में मैं फिर कई बार पूना आया और ओशो के प्रवचन सुने। जैसे हर कोई ओशो के प्रवचनों में से कुछ न कुछ चुन लेता है, कुछ न कुछ सुन लेता है- मुझे हमेशा एक पेंटिंग बनती नजर आई, बिना ब्रश और कैनवास के। उनके प्रवचन एक पेंटिंग हैं जिनमें हम जितनी बार उतरें उतनी बार नए रंग खिलते चले जाएंगे।
मैं उनकी याददाश्त का कायल हूं

मैंने ओशो को सबसे पहले 1965 में रेडियो पर सुना। उनकी वाणी मुझे बहुत ही प्रभावशाली लगी। शब्दों को सामने वाले के जहन में उतार देना और फिर खुला छोड़ देना यह उनका ढंग था। ओशो ने हर चीज को वैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत करके लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया। लोगों को लगने लगा कि जिन चीजों को हम सदियों से जानते-मानते, पढ़ते-सुनते आ रहे हैं उनमें कहीं कोई गड़बड़ है। ओशो अपने आप में क्रांतिकारी थे। वह विकुंठ होकर सामने आए। ओशो पुरानी इमारत और ढांचों को नया रूप रूप देना चाहते थे। अपनी बात को स्थापित करना, संचार और निर्माण करना, दोनों ओशो ने किया। उन्होंने पूर्ण अध्यात्म और ग्लैमर को जिया। ओशो वाचन परंपरा के थे, वह अपने जमाने के ऋषि थे। जितना और जिन विभिन्न विषयों पर उन्होंने बोला शायद ही किसी और ने बोला होगा। लोग उनको सुनकर अनुयायी भी हुए और भौंचक्के भी। उन्होंने अपनी बातों को कभी कहानियों के, तो कभी लतीफों के जरिए रखा। कई किस्से, कई संतों की जीवनी तथा कई ऐतिहासिक पात्रों को अपना माध्यम चुना। यहां तक कि कई पात्र भी ईजाद किए और अपनी बात रखी। ओशो पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने संभोग जैसे विषय को इतने सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया। सच तो यह है कि ओशो ने जो भी प्रस्तुत किया, वह अपने आप में नायाब और बेजोड़ था। ओशो ने कुछ भी ऐसे ही नहीं कहा, हर चीज का मंथन किया। मैं उनकी याददाश्त का कायल हूं, वह कमाल की, प्रखर थी। उन्होंने न केवल खूब पढ़ा था, बल्कि उसे याद भी रखा और आत्मसात भी किया। यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं उनसे मिल न सका।
ओशो स्वयं के पर्याय व पूरक हैं

ओशो के बारे में कोई क्या बोलेगा? ओशो के बारे में बोलने के लिए बोलने वाले को ओशो से बड़ा होना चाहिए, उनसे अधिक, ज्ञानी, ऊर्जावान होना चाहिए। ओशो पहले से ही हर विषय पर इतना बोल चुके हैं कि और कुछ बोलने को नहीं बचता। किसी को या आपको कुछ छापना ही है तो ओशो जो छोड़ गए हैं उसको छापिए, वो काम का है। मैं क्या सोचता हूं या क्या बोलूंगा, वो कोई काम का नहीं है जो कुछ भी बोला जा सकता था वो बोला जा चुका है। ओशो के प्रति दूसरों की राय लेकर आप अपना मुद्दा हासिल कर सकते हैं पर आप ओशो को प्रस्तुत नहीं कर सकते। मेरी नजर में ओशो कौन है, क्या हैं? यह बात पूछना ही बेकार है ओशो को जानने, समझने या समझाने के लिए किसी को या दूसरों को चुनना ही गलत है। ओशो के लिए ओशो ही पर्याय व पूरक हैं। उनको उन्हीं की वाणी के साथ लोगों में पहुंचाया जाए।
