Osho Life Lesson: ओशो ने मृत्यु को उसी सहजता और हर्ष से वरण किया था जिस प्रकार से एक आम व्यक्ति जीवन को करता है। उन्होंने जगत को यही संदेश दिया कि मृत्यु के प्रति सदा जागरूक रहो, उसे वरण करो। आज ओशो भले ही अपना शरीर छोड़ चुके हों लेकिन अपने विचारों के माध्यम से वो आज विश्व में कहीं ज्यादा विस्तृत, विशाल रूप से मौजूद हैं।
एक खतरनाक तूफान में कोई नाव उलट गई। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा पहुंचा। दिन, दो दिन, चार दिन, सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था वहां से कोई उसे बचाने आ जाए। फिर महीने बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। किसी को आते ना देख वह
धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल ही गया। तकरीबन पांच वर्ष बाद कोई जहाज वहां से गुजरा। उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया। उन लोगों ने कहा ‘क्या विचार कर रहे हैं, चलना है या नहीं? तो उस आदमी ने कहा ‘अगर तुम्हारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हो जो तुम्हारी दुनिया की खबर
लाए हों तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं। अखबार देखकर उसने कहा ‘तुम अपनी दुनिया संभालो और अपने अखबार भी और मैं जाने से इनकार करता हूं।

रहस्यदर्शी ओशो द्वारा सुनाई गई उपरोक्त कहानी कितनी ही पुरानी या काल्पनिक ही क्यों न हो, यह कहानी आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी कभी पहले, बल्कि पहले से कहीं अधिक सार्थक। जिस प्रकार आज चारों तरफ त्राहिमाम- त्राहिमाम मचा हुआ है, अपराध और आत्महत्याओं में तीव्रता से इजाफा हो रहा है, भूतकाल में ऐसा कभी ना था। समस्या पहले से कहीं अधिक गंभीर है, आज चारों ओर हिंसक घटनाएं दिन-ब-दिन इतनी
बढ़ती जा रही हैं कि इन पर रोक लगाना लगभग असंभव सा लगने लगा है। मनुष्य एक मृत अंत की ओर बहुत तेजी से बढ़ रहा है। तीसरे विश्व युद्ध की संभावना हर समय बनी रहती है।
ऐसे में क्या है समाधान? ओशो कहते हैं अगर मनुष्य की चेतना में अब भी कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होता तो आने वाला भविष्य मनुष्य के इतिहास में सर्वाधिक विनाशकारी होगा एवं भयावह होगा। ऐसे में मात्र ध्यान ही समाधान है और ओशो ध्यान के बादशाह हैं क्योंकि उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनुसार अनेक आधुनिक ध्यान विधियां इजाद की हैं। यदि दुनिया ओशो के दर्शन के अनुसार जीवन जीने लगे और ध्यान की ओर उन्मुख हो जाए तो बदलाव निश्चित ही होगा। ताजीवन ओशो की पूरी यही चेष्टा रही है कि दुनिया में बदलाव आ जाए।
स्पष्टत: यदि लोग तनावरहित, शांत व आनंदित रहने लग जाएं तो दुनिया निश्चित ही प्रेमपूर्ण व करुणामय हो जाएगी। यदि कुछ प्रतिशत लोग भी ध्यान की ओर उत्सुक हो जाएं तो पूरी दुनिया निश्चित ही रूपांतरित हो सकती है। क्योंकि ध्यान और प्रेम करने वाला व्यक्ति कभी भी हिंसा में उत्सुक नहीं हो सकता। परंतु यह
सभी जानते हैं कि ओशो का कार्य बहुत ही चुनौती भरा है। इस चुनौती को जो स्वीकार कर लेते हैं उसकी दुनिया बदल जाती है। भीतर से पूरी तरह बदलाव होने लगता है, जिसे व्यक्त करना भी बड़ा मुश्किल हो जाता है, गूंगे के गुड़ की भांति। जिस तरह मूक व्यक्ति गुड़ की मिठास का व्याख्यान नहीं कर सकता उसी
प्रकार ओशो से हमें जो मिला उसका व्याख्यान करना अति कठिन कार्य है। फिर भी ओशो के प्रेम पैगाम को बांटने का अपना ही आनंद है भले ही वह किसी भी माध्यम से ही क्यों ना हो।
मुझे याद आता है वह समय जब मैंने पहली बार ओशो की वाणी सुनी थी। बात 1990 की है जब उन्होंने शरीर छोड़ दिया था। मैंने एक अंग्रेजी समाचार पत्र में एक आकर्षक विज्ञापन पढ़ा। वह कुछ इस तरह था ‘आउटे्रजियस, आउटस्पोकन ओशो, आउट नाओ ऑन सीबीएस कैसेट्स। मैं उसी दिन मार्केट गया और कैसेट की दुकान से ‘खुमारी’ नामक एक कैसेट खरीद लाया। आते ही मैंने कैसेट-प्लेयर में लगा दी। उनकी वाणी में ऐसा जादू था कि मैं बार-बार उस गहन प्रवचन को सुनता रहा और यह सिलसिला कई दिनों
तक जारी रहा। फिर क्या था, मेरे जीवन में ओशो ही प्रमुख हो गए।
फिर तो ओशो मेरे दिलो-दिमाग में कुछ इस तरह छा गए कि कोई भी ओशो पुस्तकों -पत्रिकाओं या कैसेट्स की प्रदर्शनी लगती या कहीं कोई शिविर लगता, वहां पहुंचने की ललक रहती, और धन्यवाद के रूप में मैं उनके शुभ सन्देशों को नि:स्वार्थ रूप से प्रचारित-प्रसारित करने के लिए दिल से लगा रहता। शिविरों और प्रदर्शनियों के माध्यम से, जहां भी अवसर मिलता है, मैं आज भी ओशो की ज्वलंत मशाल लेकर नेतृत्व करता हूं। और अब तो बहुत ही सुंदर मौका इस बार मुझे डायमंड बुक्स द्वारा मिला है। साधना पथ के इस ओशो विशेषांक के लिए कार्य करना निश्चित ही ओशो के प्रति मेरे प्रेम की अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी। सोशल मीडिया के माध्यम से ओशो हमारे चारों ओर छाए हुए हैं परन्तु पत्रिका का अपना ही महत्त्व होता है, यह एक भौतिक उपस्थिति की तरह होती है। ओशो अपने जीवन काल में अनेक नाम और रूपों से पहचाने गए। उनका जन्म 11 दिसंबर 1931 को हुआ और माता-पिता ने रजनीश चंद्र मोहन जैन नाम रख दिया।
लेकिन बड़े होने पर उन्हें आचार्य रजनीश, और उसके बाद क्रमश: भगवान श्री रजनीश, रजनीश जोरबा द बुद्धा, ओशो रजनीश और जीवन के अंतिम वर्षों में सिर्फ ओशो नाम से संबोधित किया जाने लगा। सिर्फ नाम ही नहीं बल्कि समय के साथ-साथ उनकी वेशभूषा भी बदलती रही। पहले वे सिर्फ एक सफेद रंग की
सूती लूंगी ही पहना करते थे, वह भी पारंपरिक मराठी शैली में।

बाद में वह धीरे-धीरे किसी संभ्रांत शहंशाह से भी अधिक आलीशान पोशाकें पहनने लगे। उनके बेशकीमती परिधान लीक से हटकर हुआ करते थे। कहा जाता है कि उन्होंने कभी अपनी दाढ़ी नहीं बनाई। शायद यह उनकी सरलता ही थी, क्योंकि वह प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहते थे। वह बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे और उससे भी बढ़कर एक अत्यंत प्रभावशाली प्रेरक एवं कुशल वक्ता। उनकी विचार क्षमता की कोई सीमा नहीं थी, इसलिए वह छोटी से छोटी बात में भी बारीकियां निकाल लिया करते थे।
वह संवेदनशील मुद्दों पर भी बड़े ही दिलचस्प अंदाज में सहजतापूर्वक सटीक और निर्भीक टिप्पणी करते कि सुनने वालों को पता भी ना चलता, और घंटो बीत जाते। इसके अलावा वह अपनी बात को हमेशा ही शालीनता के साथ रखते और तर्क-वितर्क करने में तो उनका कोई सानी ना था। हालांकि ध्यान, प्रेम और जीव मात्र
के प्रति समादर की भावना उनके प्रमुख संदेश थे, लेकिन वह धर्म-कर्म, काम, क्रोध, लोभ, विज्ञान, वासना, राजनीति, पाप-पुण्य इत्यादि हर संभव, लौकिक- परालौकिक, विषयों पर बेबाकी के साथ बोलते। अपने अत्याधुनिक दुस्साहसी एवं क्रांतिकारी विचारों के कारण ओशो जीवन भर विवादों के चक्रव्यूह में घिरे रहे। शुरुआत में, उन्होंने भारत के कई क्षेत्रों की यात्राएं की एवं जनमानस को संबोधित भी
किया। लेकिन बाद में वह स्थाई रूप से पुणे आकर बस गए। कुछ समय बाद उनके पास आने वाले श्रोताओं की संख्या में इजाफा होने लगा और धीरे-धीरे दुनिया के कोने-कोने से लाखों लोग उनकी गैरपरंपरावादी वाणी सुनने के लिए आने लगे। उनके प्रशंसकों की संख्या तेजी से बढ़ रही थी। परिणामस्वरूप उनके चाहने वालों ने अमेरिका में अपनी सृजनात्मक शक्ति के बल पर उनके लिए एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भव्य आश्रम का निर्माण कर डाला, जो कि दुनियाभर में रजनीशपुरम के नाम से जाना गया। आरेगन सिटी, जो आश्रम बनने से पूर्व एक पथरीली, बंजर एवं मरुस्थलीय जमीन थी, अब वहां चहल-पहल रहने लगी थी, बंजर भूमि में हरियाली व खेत लहराने लगे थे। पहले श्मशान की भांति शोकाकुल भूमि में अब आनंद-उत्सव के जीवन्त मेले लगने लगे। मृग-मयूर आदि जीव जंतु भी वहां निर्भीक होकर विचरण करने लगे। रजनीशपुरम दुनिया भर के समाचार-पत्रिकाओं के लिए चर्चा का विषय बन गया। ओशो तथा उनके आश्रम की बढ़ती लोकप्रियता अमेरिका के कुछ सत्तालोलुप शीर्ष राजनीतिक अधिकारियों और आडम्बरी धर्मगुरुओं को रास नहीं आई।
उन्हें अपनी सत्ता खो जाने का भय सताने लगा, और इसी के चलते ओशो उन्हें आंख में पड़ी कंकड़ी की तरह चुभने लगे। उल्लेखनीय है कि ओशो ने पूर्वी एवं पश्चिमी सभ्यता का इस कदर समायोजन किया कि वहां रंगभेद या जातिवाद के लिए कोई स्थान न बचा… फूट डालो और शासन करो वाली उनकी मलिन नीति धूमिल होने लगी थी। धूर्त अधिकारियों को यह कतई गवारा ना हुआ और इसी के चलते उन्होंने धीरे-धीरे ओशो के खिलाफ षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया। उन्होंने ओशो पर कुछ गद्दारों के साथ सांठगांठ करके अभियोग चलाया, तरह-तरह के आधारहीन आरोप लगाए और अंतत: रीगन सरकार ने ओशो को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया। उन्हें खूब यातनाएं दी और अवसर मिलते ही ओशो के भोजन में थैलीयम नामक जानलेवा विष मिला दिया, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप धीरे-धीरे ओशो का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। उनका शरीर जराजीर्ण होने लगा। उनकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि भारत आगमन के कुछ ही वर्ष पश्चात् 19 जनवरी 1990 को मात्र 59 साल की आयु में ही उनका देहावसान हो गया। तत्पश्चात् पुणे के कोरेगांव स्थित ओशो कम्यून में बने उनके शयन कक्ष को ही उनकी अंतिम इच्छा अनुसार आलीशान समाधि स्थल में रूपांतरित कर दिया गया। वहां के ध्यानमय वातावरण में ओशो की उपस्थिति का गहन एहसास होता है, मानो ओशो आसपास ही हो। समाधि कक्ष में प्रवेश करते ही अनेक आंगतुकों के चक्षुओं में सहज ही अश्रुधारा बहने लगती है।
इसी पवित्र स्थान पर ओशो द्वारा पठित एक लाख से अधिक महत्वपूर्ण पुस्तकें सुसज्जित हैं, जो आज भी उनके जीवित होने का पल-पल अहसास करवाती हैं। ओशो की समाधि पर उन्हीं के अंतिम निर्देशानुसार स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया गया कि वह ना कभी मरे ना कभी जन्में, 11 दिसंबर 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच उन्होंने इस पृथ्वी पर मात्र विचरण किया।
ओशो को समझने के लिए भीतर से संवेदनशील होना अति अनिवार्य शर्त है। ओशो एक ऐसी सत्ता है जो शरीर छोड़ने के बावजूद सदा विद्यमान है, आज भले ही उनके देहावसान को 30 साल हो गए हो परंतु वह सदा हमारे बीच हैं। उनका कोई भी सच्चा शिष्य ओशो को भूतकाल का हिस्सा नहीं मानता। एक
प्रवचन के दौरान उन्होंने वादा किया था कि मैं संध्या सत्संग में हमेशा आपके बीच रहूंगा, मुझे कभी मृत मत महसूस करना मैं सदा वर्तमान हूं। यदि श्रद्धा और प्रेम गहन हो, तो आप अपने गुरु को कभी मृत मान
ही नहीं सकते और हो न हो ये उनके संन्यासियों की अटूट श्रद्धा और समर्पण का ही तो परिणाम है कि उनके लिए निराकार रूप में ओशो सदा उपलब्ध हैं।
