Osho: ओशो अपने प्रवचनों में प्रेम और सेक्स पर बोला क रते थे। विवाह को सड़ी-गली परंपरा तथा प्रेम को मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता बता रहे थे। इतना ही नहीं अविवाहित लोग जो ओशो को समझ रहे थे वह अपने घर में स्वयं विवाह के खिलाफ थे। साथ ही आए दि सड़क पर ओशो संन्यासी को कभी किसी नए साथी के साथ देखा जाता या बिना विवाह के किसी एक के साथ रोज देखा जाता तो लोग समझने लगे कि ओशो न केवल विवाह के खिलाफ हैं बल्कि लिव-इन-रिलेशन के पक्ष में हैं और यह भ्रांति धीरे-धीरे घनी हो गई। इस
धारणा से जुड़ी हकीकत को जानिए निम्न विचारों से-
ओशो निश्चित ही प्रेम के पक्ष में हैं। उन्होंने विवाह को वेश्यागिरी कहा। वेश्या को घण्टे भर को खरीदते हो, पत्नी को उम्र भर को खरीद लेते हो। फर्क कहां है? ओशो ने बिना प्रेम के विवाह को सिरे से खारिज किया है। प्रेम के अभाव के कारण ही जगत में इतनी हिंसा, युद्ध, आतंकवाद व बलात्कार आदि हैं। ओशो किसी को कुछ करने या न करने को नहीं कहते। अपनी अंतर्दृष्टि को हर संभावना शेयर भर करते हैं। जब प्रेम न रह जाय तो प्रेमियों को अलग हो जाने की सुविधा होनी ही चाहिए। एक ओर ओशो ने यदि यह कहा है कि तो दूसरी ओर ओशो
ने यह भी कहा है कि बार-बार पार्टनर बदलते रहने से प्रेम की गहराइयों में जाना संभव नहीं। इससे प्रेम बड़ा सतही हो के रह जाता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के संबंध में स्वयं निर्णय लेने को
कहा है। अगर एक घंटे रोज ध्यान करते हैं तो स्वयं की दृष्टि इतनी साफ होगी कि प्रेमी स्वयं निर्णय ले सकता है।
-स्वामी अगेह भारती
ओशो कहते हैं कि प्रेम से विवाह निकलना चाहिए। अक्सर विवाह से प्रेम नही निकलता, यह तथ्य तो सर्वविदित है। बारंबार साथी बदलने के पक्ष में ओशो कैसे हो सकते हैं, जिनका मूल उपदेश यही है कि परिस्थिति नहीं, मन:स्थिति परिवर्तित करो। वे कहते हैं- जहां हो, वहीं रहो। घरवार और परिवार नहीं छोड़ना है, अपना पुराना जीने का ढंग छोड़ना है। अगर तुम पति हो तो ज्यादा प्रेमपूर्ण पति बनो। पिता हो तो अधिक करुणावान पिता बनो। यदि कोई पत्नी है, बहन है, मां है, तो वह और बेहतर, संवेदनशील, उत्तरदायी शैली से अपनी
भूमिका निभाए, क्योंकि परकेन्द्रित, दूसरों को बदलने में उत्सुक व्यक्ति राजनीतिक होता है। स्वकेन्द्रित, आत्म-रूपांतरण करने वाला जिज्ञासु साधक धार्मिक होता है। ऐसी शिक्षा देने वाला सद्गुरु जीवन-साथी बदलने की बात क्यों कहेगा? हां, अपवाद स्वरूप, कभी-कभार यदि संबंध कैंसर बन जाए, तब उसकी सर्जरी भी जरूरी है। जैसे डेन्टिस्ट हर संभव प्रयास करता है कि मरीज के दांतों को बचा ले, परंतु किसी खास सीमा के आगे रोग बढ़ जाने पर दांत उखाड़ भी देता है। मुख्य बात है रोगी की भलाई, हित, सेवा करना, न कि दांत की रक्षा करना।

-मा ओशो प्रिया
स्वभावत: ओशो संस्था और व्यवस्था मात्र के विरोध में थे और फिर विवाह भी तो सामाजिक दृष्टिकोण से एक संस्था और व्यवस्था मात्र ही है। आज के सन्दर्भ में विवाह कलुषित और विकृत होता जा रहा है क्योंकि आज जीवन जटिल और हाईटेक हो गया है। व्यक्ति स्वतंत्रता चाहता है पर विवाह तो बंधन की नींव पर टिकी हुई
व्यवस्था है। दूसरी बात, विवाह उन्मुक्त प्रेम तो पैदा ना कर सका अपितु रेचन का एक साधन मात्र रह गया। अत: ओशो विवाह के पेशकारी ना होकर लिव-इन-रिलेशन में विश्वास करते थे। जिसमें साथ रहने का
कोई बंधन नहीं है जब तक प्रेम है साथ रहो और प्रेम चुक गया तो साथी बदल दो। पर यहां हम एक बहुत गहरे राज से चूक जाते हैं जो सिर्फ ओशो जैसी चेतना ही कह सकती है कि यदि तुम ध्यान में रोज नए हो
रहे हो तो तुम्हारा साथी भी तुम्हें हर क्षण नया प्रतीत होगा।
आज विवाह विवाद बन गया है। लिव-इन रिलेशन भी तभी सहयोगी होगा जब व्यक्ति ध्यान के माध्यम से वासना को प्रार्थना में बदलने में सक्षम होगा। और अंतिम परिणति यही है कि भीतर के स्त्री और पुरुष का
मिलन हो जाए और एकलयता और एकलीनता की स्थिति पैदा हो जाए और साधक पूर्णता को उपलब्ध हो जाए।
-स्वामी बोधि मन्यु
असल में ओशो, प्रेमपूर्ण जीवन के समर्थन में और नर्कपूर्ण जीवन के खिलाफ थे। जहां निभती न हो और जबर्दस्ती, अडस्टमेंट के नाम पर, पूरा जीवन लड़ाई-झगड़ा करते हुए पशुवत जिंदगी जीने के खिलाफ थे। उनका सन्देश है कि प्रेम ही परमात्मा है। और मनुष्य के जीवन की गरिमा है। उन्होंने प्रेम को मूल्य दिया। वह विवाह के विपक्ष में नहीं, प्रेम के पक्ष में थे। अगर विवाह नर्क है, तब उन्होंने कहा कि चाहो तो रिलेशनशिप
में रहो और वो भी जब नर्क बनने लगे तो उसे भी समाप्त करो। आज नहीं कल, इस मुल्क में मनुष्य जब प्रेमपूर्ण होगा तो यह भी समय आयेगा, जबकि विदेशों में खासतौर पर पश्चिम में करीब-करीब आ चुका है। स्विडन में लिव-इन रिलेशन आ चुका है शादी बन्द हो चुकी है, बाकी दुनिया में भी जल्द ही यह हो जायेगा।
ओशो ने वक्त से पहले यह कहा, इसलिए उन्हें गलत समझा गया। प्रतिभाशाली व्यक्ति की पहचान ही यही है कि वह अपने वक्त के पहले आ जाता है।
-ओशो प्रदीप
यह कहना आंशिक सत्य है, क्योंकि उन्होंने कई विवाह अपने हाथों से कराए। हालांकि विवाह न करने या करने का निर्णय लेने को पूरी स्वतंत्रता वे सदैव देते रहे पर ‘विवाह की संस्था का उन्होंने जरूर विरोध किया
और वह भी कई कारणों से।
विवाह के कारण एक दूसरे के साथ जीवन पर्यन्त बंध जाने का निर्णय लेना तो सरल है पर इसे निभाना और साथ ही अपने साधक-चित्त को बचाए रख लेना बड़ा कठिन। ‘विवाह की संस्था व्यक्ति को पत्नी या पति पर मालकियत का अधिकार सा देती है जो कि मनुष्य की गरिमा के खिलाफ है। यह अधिकार और भावना यदि
पे्रम से आती है तो इसमें बड़ा बल है, बड़ी गरिमा है। पर सामाजिक रीति के तहत, बिना एक दूसरे को बिना जाने, सदैव के लिए साथ हो जाना, व्यक्ति के आत्मिक विकास के लिए कैसे सही है? इसमें चुनाव
का विकल्प कहां है? जहां चुनाव की स्वतंत्रता नहीं है, वहां आत्मिक संतुष्टिï कैसे होगी? विकास कैसे होगा?
इन्हीं सब बातों के कारण वे इस संस्था पर चोट किए पर इसका अर्थ यह नहीं है कि विवाह करने वालों पर भी वे चोट करते रहे। इसके विपरीत जीवन का दूसरा सत्य भी यहीं मौजूद है ओशो लोगों को साथी बदलने
की राय भी देते थे जो चित्त से बेचैन रहे। जिनकी आंतरिक दृष्टिï भोग पर ही लगी थी भले ही ऊपर-ऊपर वे ध्यान करते रहे हों। ऐसे लोगों को वे यही राय देते रहे कि पहले अपनी वासना को पूर्णता से जी लो, तभी फिर ध्यान और साधना को संकल्प व पूर्णता से कर पाओगे। आधे-अधूरे मन से लिया व साधा गया संन्यास पीछे बहुत मल व धूल छोड़ जाने वाला ही है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है, इसीलिए ओशो का इतना वैज्ञानिक विचार और दर्शन एक-तरफा लगने लगता है, पर आंतरिक सत्य कुछ और है। पर यह इतना सूक्ष्म है
कि जनमानस इसे पकड़ नहीं सकता, पकड़ पाएगा भी नहीं। कुछ संवेदनशील, विवेकवान लोग इस साधना को ले पाएंगे।
-स्वामी अंतर जगदीश
ओशो ने कहा कि परमात्मा प्रेम है। बिना प्रेम के अगर दो लोग साथ रहते हैं तो ऐसे संबंध की उन्होंने निन्दा की है। ऐसा संबंध शोषण व दमन पर आधारित होता है जिसमें पति-पत्नी यांत्रिक प्रेम और सहवास करते हैं तथा कालान्तर में उनके दमित सेक्स वाले चित्त, पीछे का दरवाजा अख्तियार कर लेते हैं। इसलिए उन्होंने प्रेम के नाम पर पाखंड पैदा करने तथा कलहपूर्ण जीवन जीने के बजाए अलग रहने की बात की।
-मा ओशो प्रांजलि
निश्चित ही ओशो विवाह की सड़ी-गली व्यवस्था के खिलाफ थे। हां लेकिन प्रेम को आधार बनाकर दो व्यक्ति साथ रहना चाहें तो वे उनकी इस स्वतंत्रता का सम्मान करते थे और यह भी कहते थे कि यदि प्रेम में
एक दूसरे को हम स्वतंत्रता दें तो यह संबंध ज्यादा मधुर एवं दीर्घगामी होता है।
-डॉ. ओशो दर्शन
जी नहीं, ओशो ने ऐसा कोई ठोस सिद्धांत नहीं दिया। हां, ओशो प्रेम के पक्ष में थे, मगर ‘बेशर्त प्रेम”अन्कन्डिशनल लव’ के पक्ष में थे। उनका कथन है कि प्रेम तभी प्रेम है अगर वो निष्काम, बिना अपेक्षाओं के है। बेशर्त प्रेम के लिए एक दूसरे का पूर्ण स्वीकार और एक दूसरे की स्वतंत्रता का आदर करना अनिवार्य शर्त है।
-मा ओशो अनु
ओशो का मानना था किसी भी युवक और युवती को किसी भी बच्चे को जन्म देने से पहले कुछ वर्ष एक साथ जरूर रह लेना चाहिए ताकि उन्हें पता चल जाए कि वह लम्बे समय तक प्रेम संबंध में रह पाएंगे कि नहीं। यदि एक बच्चा ऐसे हालात में पैदा हो जाता है जब मां-बाप की आपस में ही अनबन रहती है तो वह बच्चा भी पूरा
जीवन खंड-खंड ही जीता है, वैसे भी, जीवनभर अपने आप को प्रताड़ित करने से तो यही अच्छा है कि पहले किसी के साथ रहकर देख लो और यदि नहीं लगता कि हम आजीवन संग रह सकते हैं तो उन्हें अलग हो जाना चाहिए। अगर आजकल के हालात देखे जाएं, जिस प्रकार तलाक हो रहे हैं, कुछ भी, कोई भी संबंध टिकता नहीं तो यदि ओशो ने यह बात कहीं भी है तो क्या गलत है आज भी तो यही हो रहा है कि
ज्यादातर लोग लिव-इन रिलेशनशिप में ही रहना पसंद करते हैं।
-मा योग बिन्दु
आदिवासियों में यह प्रथा है कि लड़की और लड़के वयस्क होने पर अपना साथी स्वयं चुनते हैं। चुनाव के लिए वे साथी बदल बदलकर साथ रहते हैं और जिनसे उनका हृदय जुड़ जाता है उनसे वे जिंदगी भर के लिए रिस्ता जोड़ लेते हैं। और आदिवासियों में तलाक नहीं होता, घर नहीं टूटते, बलात्कार नहीं होते। इसी को आधुनिक
भाषा में लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं। आज की सामाजिक व्यवस्था में प्रेम को महत्त्व नहीं दिया जाता इसीलिए तलाक, धोखाधड़ी इत्यादि होते हैं।
-डॉ. ओशो प्रमोद,
विवाह को प्रेम पर आधारित करना कोई गलत प्रचार नहीं था। जहा तक लिव-इन रिलेशनशिप का प्रश्न है, यह सारे संसार में स्वीकृत है। ओशो ने जब कहा था तब लोगों को बिलकुल बुरा लगा था। लेकिन अब आप जानते हैं कि भारत में सर्वोच्च न्यायालय भी इसकी मंजूरी देता है। जहां तक साथी बदलने का प्रश्न है तो अब भी
विवाह को समाप्त करके, तलाक करके, पुनर्विवाह करके साथी तो लोग बदल ही रह हैं। तो जहां तक स्वतंत्रता का प्रश्न है, मधुर संबंध का प्रश्न है, वहां प्रेम ही विवाह का आधार होना चाहिए।
-ओशो प्रभाकर
यह बात बिलकुल गलत है। यह बात सही है कि ओशो विवाह की पुनर्व्यवस्था करना चाहते थे। ओशो हजारों साल पुरानी विवाह की परंपरा से सहमत भी नहीं हैं। 21वीं सदी में पचास साल के बाद ये परंपरा चलेगी भी नहीं। हमारे बच्चे विवाह कर भी लें मगर हमारे जो पोते होंगे वो विवाह करेंगे भी नहीं। कई देशों में तो लोग विवाह कर भी नहीं रहे वह स्वतंत्र प्रेम में रह रहे हैं और अगर विवाह कर भी रहे हैं तो 3-4 साल में विवाह टूट जाता है। अभी पूर्व के देशों में विवाह की संस्था बची हुई है तथा आने वाले समय में मूढ़ो के अलावा कोई विवाह
नहीं करेगा। विवाह सामाजिक व्यवस्था है प्रेम एक हार्दिक संबंध है।
-स्वामी आनंद अरुण
मन सदा एक से नहीं भरता, एक से सन्तुष्ट नहीं होता, शीघ्र ही कलह शुरु हो जाता है। इसलिए ओशो कहते थे कि साथी बदल कर देख लो वही कलह, वही हाल दूसरे साथी के साथ भी होगी। ओशो कहते हैं कि विवाह एक पाठशाला है जो तुम्हें एक बड़ा पाठ देती है कि दूसरे से तृप्ति नहीं मिल सकती और दूसरे से आनंद नहीं मिल
सकता और यह एक बहुत बड़ा पाठ है, क्योंकि इसका दूसरा पहलू है कि आनंद स्वयं में ही मिल सकता है।
-स्वामी आनंद सत्यार्थी
साथी बदलने को उन्होंने कोई अनिवार्यता नहीं कहा, केवल इतना संकेत किया कि अगर लिवइन में भी ऊब पैदा होने लगे तो साथी बदलना ठीक है। वे ठीक कह रहे हैं क्योंकि अगर ऊब के बावजूद बंधे रहे तो
फिर विवाह में बंधना ही क्या बुरा था! वास्तव में हमें प्रेमपूर्ण परिवार और समाज चाहिए। वह गाना आपने सुना ही होगा आपने: पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले झूठा ही सही। हर व्यक्ति प्रेम चाहता है।
उसे प्रेम मिलना चाहिए। विवाह में प्रेम एक नाटक है, मजबूरी है लिव-इन में इसकी एक संभावना है। चूंकि यह संबंध अभी एक नयी अवधारणा है, इसलिए हमें इसमें खतरे दिखाई देते हैं।
-मा प्रेम अनुपमा
