Laut Aao fir na Jane ke Liye
Laut Aao fir na Jane ke Liye

Hindi Motivation Story: अल सुबह ठंडी हवाएं उमड़-उमड़ कर तन से लिपटी जा रही थी।नीला आसमान नीले से धूसर होने की यात्रा में था। उसने अपनी साड़ी को कसकर अपने तन से लपेट लिया।ठंडी हवा के झोंके तन पर सिरहन पैदा कर रहे थे।कल रात से ही मौसम का मिजाज़ कुछ बदला-बदला सा था।सच कहते हैं लोग जीवन और मौसम का कोई भरोसा नहीं होता।चैत का महीना… खेतो में गेहूॅं की फसल अभी पूरी तरह से पकी भी नहीं थी,रात में जोरदार बारिश हो गई। गेहूॅं की फसल शरारती बच्चे की तरह अपनी जिद्द पूरी न हो पाने पर नाराज़ होकर रूठ कर जमीन पर लोट गई थी।एक समय था जब उसे बारिश बेहद पसंद थी,मिट्टी की सोंधी खुशबू,मौसम की तरलता उसके चेहरे पर खुशी बिखेर देता पर वक्त के साथ सब कुछ बदल गया था। घर के सामने लगे पेड़-पौधे नहाए धोए राजा बेटा की तरह लग रहे थे।

धुली-धुली सुबह भी न जाने क्यों उसके मन को खुश नहीं कर पाई थी। वक्त के साथ मन और जीवन में भी कालिमा पुत गई थी।घर के सामने बना घर उसके जीवन की तरह ही जर्जर हो गया था,हंसता-खेलता घर अचानक से खंडहर हो गया था।जिन दीवारों और इंच-इंच जमीन के लिए भाई -भाई का प्यासा हो गया था आज उसे पूछने वाला कोई नहीं था।दीवारें ढहने को आ गई थी और छतें खुद के लिए छत ढूंढने लगी थी। कभी इस घर का दरवाजा इस घर की शान होता था।आज जगह-जगह से उखड़ा पेंट उस घर, उस दरवाजे के दुर्दिन की कथा सुना रहा था। दो पल्ले का दरवाज़ा अपने वजन से लटककर वैसे ही झुक गया था जैसे किसी बूढ़े व्यक्ति की कमर वक्त की मार से झुक जाती है और दरवाजे पर लगी कुंडी उस बूढ़े व्यक्ति के बिना बत्तीसी के जबड़ों की तरह झूल रही थी।उसकी जिन्दगी भी तो इस घर की तरह ही तो हो गई थी। 

रविवार की वजह से सड़क पर हल्की-फुल्की चहल-पहल थी।सामने दीवार में लगी तस्वीर में सुरभि अभिनव के साथ मुस्करा रही थी।लाल पाड़ की बनारसी साड़ी में ढीला सा जूड़ा और उस में सलीके से लिपटे रजनीगंधा के फूलों का गजरा सजा हुआ था। रजनीगंधा…. रजनीगंधा की खुशबू अभिनव को कितनी पसंद थी।रजनीगंधा के फूल,अगरबत्ती, परफ्यूम,रूम स्प्रे और साबुन सब उसे रजनीगंधा की खुशबू वाले ही चाहिए होते थे।अभिनव की पसंद कब उसकी पसंद बन गई उसे पता भी न चला। कितना फर्क था उन दोनों की पसंद में उसे बारिश पसंद थी वह बच्चों की तरह नाव बनाकर तैराना चाहती थी। बारिश में घंटों भीगना चाहती थी, उसकी सोंधी खुशबू को महसूस करना चाहती थी पर अभिनव के लिए बारिश का मतलब पानी,कीचड़,बिजली गुल,गन्दगी,कीड़े-मकोड़े ट्रैफिक जाम से ज्यादा कुछ नहीं था।नमक-मिर्च लगे कच्ची कैरियों के स्वाद में आकंठ डूब जानें वाली सुरभि को अभिनव के ड्रैगन फ्रूट और स्ट्राबेरी के स्वाद कभी समझ नहीं आए पर उसने अभिनव के स्वाद में अपने स्वाद को ढूंढ लिया था।

“तुम अपने बालों में रोज़ गजरा लगाया करो।”

“रोज़?”

उसने आश्चर्य से कहा था,उस दिन से आज तक घर में रोज़ रजनीगंधा का गजरा आता और सुरभि के बालों में सजता पर अब…सुरभि ने अपने कंधे तक कटे गीले बालों को झटका और उन्हें सूखने के लिए खुला छोड़ दिया। रजनीगंधा आज भी घर में आता था पर वह सुरभि के बालों में नहीं भगवान के चरणों में सजता था। शायद एक उम्मीद आज भी दिल के किसी कोने में जिंदा थी कि अभिनव लौट कर आएंगे और यह गजरा उनके बालों में फिर सजेगा।अब तो लोगों ने अभिनव के बारे में पूछना भी बंद कर दिया था।रात-रात भर गायब रहने वाले अभिनव के इंतज़ार में उसने कितनी रातें खाली गुजारी थी,

“बाहर क्या कर रही हो, घर की लाइट रात-रात भर क्यों जल रही है।”

लोग पूछते नहीं थकते थे पर वह जवाब देते देते थक गई थी।अब तो उसके पास उनकी इन बातों का कोई जवाब भी नहीं था।याद है उसे आज भी वह दिन अभिनव जुए में उसका मंगलसूत्र हार आए थे।

“एक गहना ही तो है।फिर बनवा दूॅंगा”

“गहना?”

इससे पहले भी तो वह काफी कुछ हार चुके थे, जो गहने से भी कहीं ज्यादा कीमती था।सुरभि की आँखों में खुद के लिए सम्मान, विश्वास और शायद इंतज़ार भी…कितना लड़ी थी वह उस दिन अभिनव से …फिर धीरे-धीरे चुप होती चली गईं।शायद रिश्ते ठीक होने के सारे विकल्प भी अब ख़त्म हो गए थे। शायद अंदर कहीं कुछ मर गया था… हाँ शायद उनका रिश्ता? वह कहीं न कहीं मर चुकी थी पर वह तो सांसें ले रही थी।क्या सांसें लेने भर से इंसान को जिंदा मान लिया जाता है।तब तो किसी ने उसके दर्द को समझने की कोशिश नहीं की और न ही जानने की पर अभिनव के कायरों की तरह ही भागते ही अचानक से पास-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदारों की आँखों में सवाल खर-पतवार की तरह उग आए थे।यूँ अचानक से अभिनव सब कुछ छोड़कर कहाॅं और क्यों चले गए।

सुरभि ने दिमाग़ में घुमड़ते सवालों के सिरे को यूँ हवा में खुला छोड़ दिया और ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई। हल्के नम बालों में कंघी लगाई ही थी कि माँग मुँह बाए प्रश्न की तरह खुल गई। कभी-कभी उसे लगता बालों में खींची यह सीधी मांग घर के सामने बने उस खंडहर मकान की दीवारों की तरह है जो अनगिनत सवालों को लेकर खड़ी हो जाती है। ऐसे सवाल जिनके जवाब किसी के पास नहीं है। सुरभि ने सिंदूर दानी से सिंदूर निकाला और अपने मांग में टीक लिया।माॅं हमेशा कहती थी कि सुहागिन स्त्री को नहाने के बाद मांग जरूर भर लेनी चाहिए पति की उम्र लंबी होती है पर वह कैसी सुहागन थी। जिसके नाम का सिंदूर वह इतने वर्षों से भरती चली आ रही थी और उसे यह भी पता नहीं कि उसका सुहाग जीवित है भी या नहीं? है तो आखिर कहाॅं है।

तभी दरवाजे पर एक दस्तक हुई,अपनी सोच में मग्न सिंदूर में डूबी सुरभि की उंगलियाँ अचानक हुई इस आहट से चौंक कर कांप गई और सिंदूर उसकी नाक पर गिर गया।

“तुम्हारा पति बहुत प्यार करता होगा।”

यही तो कहा था दादी ने, प्यार…?मन न जाने क्यों सोच कर कसैला हो गया था।वह दरवाज़े की ओर बढ़ी।एक तीखी गंध से उसका सर भन्ना गया, कुछ जानी-पहचानी सी गंध थी।इस गंध से पहले भी तो रूबरू हो चुकी थी वो… अभिनव के घर छोड़ने से पहले वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया था जो इसका सेवन करते थे।अभिनव के मुॅंह से कभी-कभी ऐसी ही गंध आती थी।गांजे की ही महक थी, एक तेज़ भभका उसके नथुनों में घुस गया।उसके पैर पीछे हो गए।

“जय शिव शंकर!”

“तुम?” 

दरवाज़ा खोलते ही सुरभि ने चौंक कर कहा…सामने एक रिश्ता खड़ा था सात जन्मों तक साथ बिताने वाला रिश्ता ।सामने अभिनव खड़े थे उसके पति…कैसा रिश्ता था उसका जिसने बीच में हाथ छुड़ाकर सारे बंधन तोड़ दिए थे।मन खुशी के समंदर डूब-उतरा रहा था यही तो चाहती थी वो कि अभिनव लौट आए ।आज उसकी इच्छा पूरी हो गई थी पर…कितनी अजीब बात है कि इंसान के मन में इच्छाएं जन्म लेती है और उनके मन में उसके पूरे होने की आशा करती है और उसके पूरे होते ही बदल भी जाती है।क्या इस अभिनव के वापस आने की इच्छा की थी उसने…कुछ रिश्ते दरवाज़े खोल जाते हैं या तो दिल के या फिर आँखों के…आज एक रिश्ते ने हमेशा के लिए उसकी आँखें खोल दी थी।एक मिनट भी नहीं लगा था उसे अभिनव को पहचानते हुए पर कितना कुछ बदल गया था। 

सर पर जटाएं, तन पर गेरूआ वस्त्र, बढ़ी हुई दाढ़ी,कंधे पर कपड़े की झोली,माथे पर भभूत का त्रिपुंड, बाएं हाथ में  रुद्राक्ष की माला और दाहिने हाथ में कमंडल सचमुच कितना कुछ बदल गया था वह पर जो नहीं बदला था वह थी उसकी वो पनीली आँखें…जिसे वह आज भी हजारों में पहचान सकती थी।

क्या वह लौट आया था क्या वाकई पर किसलिए…प्रेम और विश्वास की आंच पर सीजते रिश्तों को तो वह काठ के बर्तन पर चढ़ा गया था।फिर अचानक यूॅं…

“कौन है माँ?”

सुरभि की आवाज सुन आठ साल की चुनमुन बाहर आ गई थी।

“तुम्हारी बेटी है?”

अभिनव ने उसकी मांग में भरे सिंदूर  की ओर देखकर हौले से पूछा,

“चुनमुन अंदर जाओ?”

सुरभि ने अपनी आवाज को सख्त करते हुए कहा,सुरभि वैसे ही दरवाजा पकड़कर खड़ी रही। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह अभिनव से क्या कहे,

“कैसी हो तुम…”

“जैसा तुमने छोड़ा था।”

सुरभि की आवाज़ न जाने क्यों तल्ख हो गई थी।

“अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?”

“सुना है सन्यास के बाद लोग सांसारिक जीवन से दूर हो जाते हैं।”

अनुभव चुपचाप वैसे ही खड़ा रहा, शब्द मानो चुक गए थे।

“तुम्हारे पति ?”

“ऑफिस गए हैं।’

सुरभि की मुठ्ठियाँ भिंच गई, उसने दरवाजे को हल्का से टेड़ा किया।दरवाजे के ठीक बगल में अभिनव और सुरभि की शादी की तस्वीर लगी थी।तस्वीर में कितने ख़ुश नजर आ रहे थे वे दोनों पर सिर्फ तस्वीर में…अभिनव की जुए की लत ने उसे कहीं का न छोड़ा था।कितनों से कर्ज ले रखा था उसने… एक दिन ऐसा भी आया लोग कर्ज के पैसे  लेने के लिए उसके घर तक पहुँच गए।अभिनव सब कुछ छोड़-छाड़कर भाग गए थे,उसे तो इस बात की खबर भी न थी कि चुनमुन उस वक्त सुरभि के पेट में थी।किसी ने कहा आत्महत्या कर ली तो किसी ने कहा सन्यास ले लिया पर वह आज भी तस्वीरों में सुरभि और चुनमुन के लिए जीवित था। सुरभि अंदर से चावल ले आई। अभिनव ने झोली आगे बढ़ा दी।सुरभि पूछना चाहती थी तुम अकेले आए हो या फिर कांधे पर लटके तुम्हारी इस झोली में उसके सवालों के जवाब भी लेकर आए हो पर उसके मुँह से एक शब्द नहीं फूटे।उसने बाबा की झोली में चावल डाल दिए और हाथ जोड़ लिए…अभिनव चुपचाप उसकी आँखों को देखता रहा। कितनी सूनी थी वह आँखें कोई भाव नहीं… न ही कोई शिकवा न ही कोई शिकायत!सुरभि ने दरवाजा बंद कर लिया।अभिनव के खड़ाऊ की आवाज उसके कानों को देर तक महसूस होती रही।

“मम्मा साधु बाबा गए?आप तो कहती थीं कि वो बच्चों को अपनी झोली में भरकर ले जाते हैं! क्या वह मुझे लेने आए थे?”

चुनमुन की आँखों में एक डर तैर रहा था।सुरभि बुत बनी खड़ी रही,

“मैं हूॅं न…तुम्हें कोई नहीं ले जा सकता।”

सुरभि ने दृढ़ता से कहा 

“मम्मा!ये देखो मैंने क्या बनाया है?”

सुरभि की आँखें धुंधला गई थी, आँखों में भर आए आँसुओं को पोंछते हुए उसने कहा

“अरे वाह ये तो बहुत सुंदर है।”

चुनमुन ने अपने नन्हे हाथों से पेंटिंग बनाई थी।

“मम्मा ये देखो ये पापा है ये आप हो और बीच में मैं…इसे कल ही पापा को पोस्ट कर देना।भूलना मत हमेशा की तरह…देखना पापा अब की अपनी प्रिंसेस की पेंटिंग पाकर बहुत खुश होंगे और हम से मिलने दौड़े चले आएँगे। इस बार हम सब साथ मिलकर मेरा बर्थडे सेलिब्रेट करेंगे।”

सुरभि चुपचाप उसकी बात सुनती रही,

“मम्मा!पापा आएँगे न?आप हमेशा कहती हो वो आएँगे पर वो कभी नहीं आते।”

वह एक दर्द में अब तक जी रही थी पर आज उस दर्द से वह मुक्त हो चुकी थी।वह अच्छा महसूस कर रही थी।वह अपने दर्द अपनी पीड़ा का श्रेय अभिनव जैसे लोगों को नहीं देना चाहती थी।अभिनव से उसका दिल का नहीं दर्द का रिश्ता था,गम का रिश्ता…सुरभि खिड़की से उस गेरुए आकृति को धीरे-धीरे दूर बहुत दूर जाता देख रही थी। एक उम्मीद थी कि अभिनव कभी तो लौटकर आएँगे पर वह आज उसे जाता हुआ देख रही कभी भी वापस न लौटने के लिए…उसने धीरे से फुसफुसाया।

“अभिनव चुनमुन मेरी नहीं हमारी बेटी है।”