महेश के मातापिता बहुत गरीब थे। वे उसकी पढाई  का खर्च उठाने में भी असमर्थ थे। पांच भाई बहनों में वह सबसे  बड़ा था।  पांचवीं कक्षा में प्रथम आने पर उसके अध्यापकों ने उसे प्रतिभा विद्यालय में जाने की सलाह दी। कहते हैं जहां चाह वहां राह। उसका चयन प्रतिभा विद्यालय में दाखिले के लिए हो गया, इतना ही नहीं, उसने सभी बच्चों में प्रथम स्थान भी पाया था। अब प्रश्न था कि वह दूसरे शहर में रह कर किस तरह से पढ़ाई करेगा, कहां रहेगा। एक दिन वह इसी उधेड़बुन में मंदिर की सीड़ियों पर बैठा था कि तभी पुजारी जी उसके पास आये और उसकी उदासी का कारण पूछा। नन्हा बालक अपने को रोक न पाया और सुबकने लगा। पुजारीजी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसे ढांढस  बंधाया और शांत होने के लिए कहा। वह वहीँ मंदिर की सीड़ियों पर बैठ गए। जब महेश शांत हुआ तो उसने बताया कि उसका एडमिशन दिल्ली में एक प्रतिभा विद्यालय में हो गया है, पर वह गांव से बहुत दूर है। वह शहर में कैसे और कहां रहेगा?। इसका खर्चा कहां से करेगा ? पुजारीजी ने समझा बुझा कर उसे घर भेज दिया और कहा कि वे अवश्य ही कुछ करेंगे ।

महेश को चित्र बनाने का बहुत शौक था। उसके पास हमेशा कापी और पेंसिल रहती। वह हर समय चित्र बनता रहता था। अगले दिन भी वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा चित्र बना रहा था, कि एक बड़ी सी गाड़ी से एक बजुर्ग उतरे और मंदिर में चले गए। महेश ने उन्हें देखा और कापी में उनका स्केच बना दिया। जब वे थोड़ी देर बाद मंदिर से बाहर निकले तो महेश के हाथ में अपने स्केच को देखते ही रह गए। उन्होंने महेश से जब उसकी कापी मांगी तो वह घबरा गया और भयभीत हो कर कांपने  लगा। कुछ और लोग भी अब तक वहां आ कर खड़े हो गए थे। भीड़ देख कर पुजारी जी भी आ गए। वह देखते ही सारी  बात समझ गए और उन्होंने उन बुजुर्ग से महेश का परिचय कराया।

वे बुजुर्ग सेठ दीनानाथ थे जो बहुत ही सज्जन और धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। महेश ने अब अपनी कापी उनके हाथ में थमा दी। अपना इतना सुंदर चित्र देखते बहुत प्रसन्न हुए और एक सौ का नोट निकाल कर उन्होंने महेश को पुरस्कार स्वरूप थमा दिया।

 पुजारीजी ने उन्हें जब महेश की समस्या के बारे में बताया तो वे बोले मैं दिल्ली में स्कूल के पास ही एक मंदिर में इसके रहने की व्यवस्था करवा दूंगा और इसकी पढाई का भी पूरा खर्च उठाऊंगा। महेश एक स्वाभिमानी लड़का था उसने हाथ जोड़ कर कहा कि आप मेरे रहने की व्यवस्था करवा दें, बस उतना ही काफी है। दीनानाथजी अनेक मंदिरों में दिल खोलकर दान करते थे। उन्होंने स्कूल के पास ही एक मंदिर में उसके रहने का इंतजाम करवा दिया। अब महेश वहीँ रहने लगा। सुबह जल्दी उठ कर वह मंदिर की सफाई करता और फिर खाना बना कर अपने स्कूल  चला जाता।

 मंदिर जी के पुजारीजी भी उसका बहुत ध्यान रखते थे। समय बीतता गया और महेश प्रतिवर्ष अपनी कक्षा में प्रथम आता। खाली समय में वह पेंटिंग्स भी बनाता रहता था। अनेक चित्रकारी प्रतियोगिताओं में वह इनाम जीत चुका था। उसकी अध्यापिका उसे हमेशा प्रोत्साहित करती रहती थी।

आज उसका बाहरवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आना था। वह कैनवास पर उगते सूर्य का चित्र बना रहा था। तभी बाहर कुछ जानी पहचानी आवाज़े सुन कर वह बाहर गया। उसके दोस्तों ने उसे उठा कर उछालना शुरु कर दिया। इस बार भी वह परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ आया था। स्कूल प्रशासन  की तरफ से उसे आगे की पढाई के लिए छात्रवृति भी मिल गयी थी। आज की सुबह उसके जीवन में आशाओं का नया सूरज ले कर आई थी।

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