दरअसल उसका नृत्य औसत दर्जे का था और छोटे कस्बे के गणमान्य लोगों ने उसका एक मानदेय तय कर दिया था। नृत्यांगना को अक्सर यह बात चुभने लगती थी, सोचती ज्यादा मिलता नहीं तो प्रस्तुति में विविधता लाकर भी क्या करना, बस वैसी ही प्रस्तुति महल में देती जैसे किसी सामूहिक कार्यक्रम में देनी होती थी।

एक दिन वह नृत्यागंना कस्बे के एक पुराने रंगरेज से मिली। नृत्यागंना के कई लिबास उसी रंगरेज ने सादे से रंगीन बनाकर उसका रूप लावण्य कई गुना खूबसूरत बनाया था। वह रंगरेज मुंहमांगे पैसे लेता था दशकों बीत जाने के बाद भी उसका बाजार खत्म नहीं हुआ था। उसके चाहने वाले उस कस्बे में अनगिनत थे। नृत्यागंना ने अपनी वह मानदेय वाली बात रंगरेज के सामने रखी और उसे ताना दिया कि ‘‘ऐसा क्या है जो उसके नाच को मिलती है एक अशर्फी जबकि रंगरेज के लिए खजाना खोल ही देते हैं लोग।”

मुस्कराकर रंगरेज ने कहा कि ‘‘वह हर दिन अपने किये हुए काम की त्रुटियों पर खासा गौर फरमाता है। हर रात वह उन कमियों पर ही चिन्तन करता है, इसलिए उसका रंगरेज का काम हर दिन बेहतर से बेहतरीन होता चला गया। उसके ग्राहक कभी कम हुए ही नहीं और उसे मनमांगे दाम भी मिलते हैं।”

यह जवाब सुनकर नृत्यांगना शर्म से पानी-पानी होकर लौट गयी। उसी क्षण उसने संकल्प लिया कि वह अपने हुनर कोा घासकाटू काम नहीं वरन् तराशा हुआ हीरा बनाकर ही चैन से बैठेगी। अब उसकी कला का भी डंका बज उठेगा। 

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