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फातिमाबाई कोठे पर ही नहीं रहती – गृहलक्ष्मी कहानियां

उसे लगा कि बरसों पुरानी घिसन से चिकनी हो आई लकड़ी की सीढ़ियों में रपटन हो रही है। पैर सावधानी से जमा-जमाकर नहीं रखे और बाई तरफ जो ढबढबाते अंधेरे में काली चादर-सी तनी दीवार है, उस पर टेक के लिए पंजा नहीं जमाया तो निश्चित ही किसी भी क्षण दुर्घटना से उसकी मुठभेड हो सकती है । दीवार से पंजा छूते ही एक लिसलिसी चिकनाहट हथेलियों को भेदती पूरे शरीर में सिहर गई । मन एकबारगी घिना आया । न जाने कितनी और कैसी-कैसी हथेलियां टेक की खातिर इन दीवारों से चिपकी होंगी और… उसे टॉर्च साथ लेकर आनी चाहिए थी । लेकिन उसे क्या पता था कि इतनी खस्ताहाल सीढ़ियों और हिकाते अंधेरे से उसका पाला पड़ेगा ।

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दहेज – गृहलक्ष्मी कहानियां

पाँच लड़कों के बाद जब एक कन्या का जन्म हुआ, तब माँ-बाप ने बड़े लाड़ से उसका नाम निरुपमा रखा। इसके पहले इस समाज में ऐसा शौक़ीन नाम कभी किसी ने सुना नहीं था। प्रायः देवी-देवताओं के नाम ही प्रचलित थे‒गणेश, कार्तिकेय, पार्वती इसके उदाहरण हैं।

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दरमियान – गृहलक्ष्मी कहानियां

प्रवेश द्वार पर मुस्तैद खड़े वाचमैन मंशाराम की तरफ उसने वाउचर कॉपी बढ़ाई। मंशाराम ने परिचित मुसकान से अपनी खिचड़ी मूंछोंवाला चेहरा भिगोया और आहिस्ता से पत्रिका में दबी स्लिप खींच ली । वह लगभग तुनक-भरी चाल में बरामदे की सीढ़ियां उतरने लगी । प्रवेश द्वार पर स्लिप देने के लिए ठहरना उसे बड़ा बेहूदा लगता । सही शब्दों में अपमानजनक ।

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बस एक ही इच्छा – गृहलक्ष्मी कहानियां

उसका भोला-भाला चेहरा न जाने क्यों मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित किये जा रहा था। उसने मेरा सूटकेस पकड़ा और कमरे की ओर चल दिया। कमरे से सम्बंधित सभी जानकारी देने के बाद वह बोला‘अच्छा बाबू जी ! मैं चलूं? मेरी स्वीकृति के बाद वह लौट गया।

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शिनाख्त हो गई है – गृहलक्ष्मी कहानियां

सनसनाती हुई-सी उठी हौक ने मुझे चीर डाला । लगा, उठने की चेष्टा में मैं हाथ-पैर हिलाना चाहती हूं, लेकिन न तो अपनी उंगलियों को मुट्ठी की शक्ल दे पा रही हूं, न घुटनों से टांगें मोड़ सकती हूं, न धड़ उठा सकती हूं । बस, समग्र चेतना जैसे दृष्टि में आकारित हो लपकती है और टेलीफोन की घंटी से चिपककर खड़ी हो जाती है-कौन होगा फोन पर? कहां से आया होगा? कैसी सूचना होगी? ‘कहीं’ ‘कहीं…’ में व्याप्त आशंका समूची देह को एकबारगी थर्रा देती है। सत्य जानना-सुनना चाहकर भी शायद मैं नहीं सुन-सह सकती जो मेरी उम्मीद के लहलहाते नन्हे पौधे को बाड़ छांटनेवाली अजगर-सी कैंची चला लीलने को आतुर है। मैं सहमकर आंखें मींच लेती हूं, शब्दों से पहले चेहरे बोलते हैं और रिसीवर उठाए दीदी के चेहरे ने कुछ उगल दिया तो?

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प्रीति की विदाई – गृहलक्ष्मी कहानियां

पिछले एक सप्ताह से चल रहा बारिश का दौर अब थम सा गया। मौसम ठंडा और सुहावना हो गया था। शहर की पहाड़ियां हरी भरी आकर्षक हो गई थीं ।

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खामोश सा अफसाना – गृहलक्ष्मी कहानियां

शेफाली से बिछड़े अतुल को दस साल से ज्यादा हो गए थे पर अतुल उसे एक पल को भी नहीं भूल पाया। उसकी निगाहें हर जगह शेफाली को ही ढूंढती रहती। इस बीच अतुल की शादी हो गई और वो प्यारे से बच्चों का पिता भी बन गया पर शेफाली…

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चुनाव चकल्लस – गृहलक्ष्मी कहानियां

आजकल की राजनीति तो आप जानते ही हैं बिना बानरीय उछल-कूद, मार-पीट, पत्थर-बाजी सर फुटौव्वल, हाथ-पैर तुड़व्वल के चुनाव-प्रचार का न श्री-गणेश होता है न समापन! हो सकता है आने वाले अगले दशक में चुनाव-प्रचारक-महावीर अपने साथ अणु-परमाणु बम और मिसाइल लेकर निकलें!

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दुनिया की सबसे हसीन औरत – गृहलक्ष्मी कहानियां

“खुर्शीद ,नाम तो बहुत खूबसूरत है “,सादिक के चेहरे पर नाम सुनते ही जैसे मुस्कुराहट नाच गई “वह भी कम खूबसूरत नहीं होगी, सलमा भाभी की आवाज में शोखी घुल गई ।कई बार सादिक ने सोचा भी ,कि किसी बहाने खुद जाकर एक बार देख आये।आखिर पूरी जिंदगी की बात है, लेकिन फिर जैसे उसे अपनी इस सोच पर ही शर्म आई ।आखिर सलमा भाभी कोई पराई तो नहीं, उन्होंने देख सुनकर ही रिश्ता भिजवाया होगा।

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आत्मसम्मान – गृहलक्ष्मी कहानियां

रोज-रोज अपने आत्मसम्मान पर चोट सहन करती उर्मिला अपने मन में सोच रही थी कि आख़िर क्यों वह अपने आत्मसम्मान को प्रतिदिन तार-तार होने देती है? क्यों बात-बात पर ताने सुनती है? क्या इस परिवार के लोगों को सम्मान देना सिर्फ़ उसका ही कर्तव्य है? क्या उनका कर्तव्य कुछ नहीं जो उसे उसके परिवार से दूर अपने घर ले आए हैं?

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