नीम अंधेरी रात थी। मौन रात के सन्नाटे के बीच रह-रह कर फड़फड़ाते पत्तों की आवाज़ दिल में अजीब सी दहशत पैदा करने लगी थी। दूर कहीं बहुत दूर से आती कुत्तों की आवाज़ और दरवाजों के बंद होने व खुलने की चरमराहट वातावरण में मनहूसियत घोलने लगी थी। पिछले आधे घंटे से निधि इस सुनसान अंधेरी सड़क पर खड़ी विरेन का इंतज़ार कर रही थी। सामने की बिल्डिंग में अब भी कुछ घरों की बत्तियां जल रही थी।
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अढ़ाई गज की ओढ़नी – गृहलक्ष्मी कहानियां
डोंगे में लबालब ‘फ्रूटक्रीम’ भरकर उसका ढक्कन लगाने से पहले उमा ने प्रिया को गुहार लगायी कि वह रसोई में आकर ‘फ्रूटक्रीम’ देखकर तनिक अंदाजा लगा ले कि एक डोंगा ‘फ्रूटक्रीम’ से उनकी पिकनिक का काम चल जायेगा या उमा शेष बची ‘फ्रूटक्रीम’ मिलाकर उसे किसी बड़े डिब्बे में भरकर पूरी की पूरी उन्हें दे दे ।
छुट्टी – गृहलक्ष्मी कहानियां
बालकों के सरदार फटिक चक्रवर्ती के दिमाग़ में चट से एक नए विचार का उदय हुआ नदी के किनारे एक विशाल शाल की लकड़ी मस्तूल में रूपांतरित होने की प्रतीक्षा में पड़ा था; तय हुआ, उसको सब मिलकर लुढ़काते हुए ले चलेंगे।
इस हमाम में – गृहलक्ष्मी कहानियां
आज उसकी घंटी नहीं बजी, न ही आवाज सुनाई दी ।
रोज सुबह दरवाजे के बाहर से उसकी आवाज सुनाई पड़ती-‘बाई, कचरा!’ इसी तर्ज में वह यानी अंजा हमारे लंबे कॉरीडोर से जुड़े हुए फ्लैट की घंटी बजाती हुई ‘कचरा’ शब्द का उच्चारण करती, फिर कचरा लेने उसी फ्लैट के सामने पहुंच जाती जिसकी घंटी उसने सबसे पहले बजाई थी । ऐसा शायद वह सुविधा के लिए करती थी कि तब तक हर फ्लैट का बाशिंदा अपने-अपने कचरे का डिब्बा दरवाजे के बाहर रख दे और अंजा को व्यर्थ प्रतीक्षा न करनी पड़े । दस माले की ऊंची इमारत के हर घर से उसे कचरा इकट्ठा करना पड़ता था । लोगों को भी आदत हो गई थी । वे उसकी घंटी पहचानते थे । सुबह दूधवाले की घंटी…पेपर…वाले की…और अंजा की । सुबह की व्यस्तता के बावजूद लोग उसकी आवाज सुनते ही दरवाजा खोल अपना कचरे का डिब्बा बाहर रख देते और बिना अंजा की प्रतीक्षा किए हुए अपने काम में लग जाते । अंजा एक-एक का कचरा क्रमशः अपने प्लास्टिक के भारी झाबे में उड़ेलती, खाली डिब्बा यथास्थान रखकर दूसरे फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच जाती । बाद में लोग अपना-अपना डिब्बा सुविधानुसार उठा लिया करते । शुरुआत के दिनों में मैं भी ऐसा ही करती थी ।
नई जिन्दगी – गृहलक्ष्मी कहानियां
हमेशा की भांति आज भी वह छड़ी लिए अपनी ही धुन में सवार उस सड़क पर चलते-चलते बहुत दूर निकल गया था। प्रातःकाल की इस सुनहरी बेला में चिड़ियों का चहचहाना नव प्रभात का सन्देश दे रहा था। सामने की ओर बर्फ से आच्छादित पहाड़ियां अत्यधिक मनमोहक लग रही थी। मन्द-मन्द चल रहे पवन के झोंको से जहां आनन्द की अनुभूति हो रही थी, वहीं गरम कपड़ों से पूरी तरह ढके अंग-प्रत्यंग में भी एक सिहरन सी दौड़ जाती थी। मौसम खराब होने के साथ-साथ आस-पास की सारी पहाड़ियां बर्फ से पूरी ढक सी गई थी। अन्य दिनों की अपेक्षा आज नदी का प्रवाह भी बढ़ गया था।
मुझे माफ कर देना – गृहलक्ष्मी कहानियां
माफी मांग लेने से की गई गलती सही तो नहीं हो जाती, पर इससे मन का भार काफी हद तक कम हो जाता है। सुभाष नीरव की ये कहानी भी कुछ ऐसी ही मानवीय संवेदना को व्यक्त करती है।
फातिमाबाई कोठे पर ही नहीं रहती – गृहलक्ष्मी कहानियां
उसे लगा कि बरसों पुरानी घिसन से चिकनी हो आई लकड़ी की सीढ़ियों में रपटन हो रही है। पैर सावधानी से जमा-जमाकर नहीं रखे और बाई तरफ जो ढबढबाते अंधेरे में काली चादर-सी तनी दीवार है, उस पर टेक के लिए पंजा नहीं जमाया तो निश्चित ही किसी भी क्षण दुर्घटना से उसकी मुठभेड हो सकती है । दीवार से पंजा छूते ही एक लिसलिसी चिकनाहट हथेलियों को भेदती पूरे शरीर में सिहर गई । मन एकबारगी घिना आया । न जाने कितनी और कैसी-कैसी हथेलियां टेक की खातिर इन दीवारों से चिपकी होंगी और… उसे टॉर्च साथ लेकर आनी चाहिए थी । लेकिन उसे क्या पता था कि इतनी खस्ताहाल सीढ़ियों और हिकाते अंधेरे से उसका पाला पड़ेगा ।
गार्ड से क्लास रूम तक का सफर
तीन बच्चों के पिता राजमल जिस कॉलेज में गार्ड थेे अब उसी में पढ़ाई करेंगे। जीवन में दो तरह के लोग होते हैं, एक जो अपने हालातों से समझौता कर उसी को जीवन मान लेते हैं और एक होते हैं, जो हालातों को कभी अपने सपनों पर हावी नहीं होने देते। कैसी भी परिस्थिति, कितनी भी कठिनाइयां, परेशानियां और उन्हें उनके सपनों को पूरा करने से रोक नहीं पातीं। हमेशा से ही पढ़ाई के प्रति रुचि रखने वाले मीणा को अपने घर के हालातों के चलते अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी थी। राजमल मीणा साइंस के विद्यार्थी थेे। बीएससी फर्स्ट ईयर भी किया। लेकिन 2003 में शादी हो गई, पारिवारिक जिम्मेदारियां बढीं, तो पढ़ाई छूट गयी। इस बीच उन्होंने मजदूरी भी की।
दहेज – गृहलक्ष्मी कहानियां
पाँच लड़कों के बाद जब एक कन्या का जन्म हुआ, तब माँ-बाप ने बड़े लाड़ से उसका नाम निरुपमा रखा। इसके पहले इस समाज में ऐसा शौक़ीन नाम कभी किसी ने सुना नहीं था। प्रायः देवी-देवताओं के नाम ही प्रचलित थे‒गणेश, कार्तिकेय, पार्वती इसके उदाहरण हैं।
दरमियान – गृहलक्ष्मी कहानियां
प्रवेश द्वार पर मुस्तैद खड़े वाचमैन मंशाराम की तरफ उसने वाउचर कॉपी बढ़ाई। मंशाराम ने परिचित मुसकान से अपनी खिचड़ी मूंछोंवाला चेहरा भिगोया और आहिस्ता से पत्रिका में दबी स्लिप खींच ली । वह लगभग तुनक-भरी चाल में बरामदे की सीढ़ियां उतरने लगी । प्रवेश द्वार पर स्लिप देने के लिए ठहरना उसे बड़ा बेहूदा लगता । सही शब्दों में अपमानजनक ।
