Grehlakshmi Kahani: इंदु जी ने घड़ी देखी अभी सुबह के ग्यारह बजे हैं। इत्तेफाक सहज ही इस समय उनकी नजर घड़ी पर जाती है। यह सोचने के लिए अब सारा दिन क्या किया जाए? दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर सारा दिन काटे नहीं कटता। बेटा गौरव अपने काम पर चला जाता है दोनों बच्चे स्कूल। बहू श्रेया का अलग आना-जाना है। कभी कहीं गपशप करने या फिर किटी पार्टी में जाना लगा ही रहता है, अधिकतर रात में डिनर के समय ही सब लोग इकठ्ठे हो साथ बैठ हंस-बोल पाते हैं। फोन उठाया, बेटी से बात कर ली जाए फिर रख दिया वो भी अभी कहीं ना कहीं व्यस्त होगी, शाम को कर लूंगी। फिर सोचा, क्या किया जाए?
खैर इंदु जी की जिंदगी में यह खालीपन सुदर्शन जी के रिटायरमेंट के बाद से ज्यादा आ गया, उम्र और समय के साथ इंसान के कार्य व जिम्मेदारी दोनों ही कम होते जाते हैं। सुदर्शन जी प्रशासनिक सेवा में उच्च पद के अधिकारी थे, दोनों बच्चे भी साथ थे। बच्चों व घर की जिम्मेदारी के बीच वक्त ही नहीं था तब सारा दिन इंदु जी को लगता ऐसा क्या कर लूं? जो थोड़ा समय अपने लिए भी मिल जाए और अब एकदम विपरीत ऐसा क्या-क्या कर लूं? जो समय अच्छे से व्यतीत हो जाए मन भी व्यस्तता की वजह से लगा रहे।
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नाते-रिश्तेदार तो रहते ही हैं पर उनके साथ भी समय बिताने की एक सीमा हो जाती है, सबका अपना परिवार बढ़ने से एक दायरा सा बन जाता है सभी उसी में मग्न या कहीं न कहीं जिम्मेदारियों में फंसे ही रहते हैं। अब जिंदगी तो बितानी ही है जैसी जिसकी कट जाए किन्तु वही जीवन मनमाफिक किसी नेक कार्य में व्यतीत हो तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? आंतरिक खुशी व संतुष्टि एक साथ मिल सकती है।
इंदु व सुदर्शन जी को वैसे तो इस उम्र में घर-परिवार, रुपये-पैसे की तरफ से कोई दिक्कत नहीं थी, जरूरतें भी कम होती जाती हैं। जीवन तो बिना किसी मुश्किल के कट ही रहा था लेकिन फिर भी यही लगता रहता कुछ खास नहीं कर पा रहे। यूं ही सुबह से शाम फिर शाम से सुबह हो जाती है, अपने अनुभवों, अपनी क्षमता से कुछ सकारात्मक रचनात्मक कार्य कर सकें तो सोने पे सुहागा। समय भी कटेगा सुकून भी मिलेगा।
क्या किया जाए? यही सोच-समझ फिर उस पर अमल करना था। इंदु जी का व्यवहार सभी के साथ अच्छा था। इसी वजह से जो भी जान-पहचान का घर आता उनसे मिले बिना ना जाता। अपने घर आने का न्यौता भी अवश्य देता। एक दिन बेटे के दोस्त के यहां बच्चे के जन्मदिन की पार्टी में इंदू व सुदर्शन जी दोनों का जाना हुआ, घर से कुछ देर के लिए निकल कर बहुत अच्छा लग रहा था। तभी कुछ देर बाद सभी को भूख लगने लगी, यह देख बहू श्रेया भी किचन में सहायता के लिए जाने लगी किन्तु सबके होने के बाद भी खाने में देरी हो रही थी।
अब तो इंदु जी से रहा नहीं गया वह किचन की ओर गई तो वहां का नजारा देखते ही बनता था। सबके एक साथ होने से किचन तो अस्त-व्यस्त हो ही गई थी साथ ही सबकी अपनी-अपनी राय होने से अधिक देर हो रही थी। सब देख-सुन इंदु जी ने कहा, ‘आप में से एक-दो ही यहां मेरे साथ रहो अभी दस मिनट में खाना टेबल पर आ जायेगा सभी को बुलाकर टेबल पर बैठाना शुरू करो।’
समझदारी व निपुणता की वजह से सब्जियों में जो कुछ कम दिख रहा था अनुभवी हाथों ने मसालों की सहायता से मिनटों में सब तैयार कर खाना पहुंचवा दिया। इसके अलावा मेथी बारीक-बारीक काट कुछ मेथी की तो थोड़े से आटे में पालक व बेसन मिला मसाला पूड़ी तैयार कर दी। स्वाद व जायका दुगुना कर दिया।
कनिका जिसके बेटे का जन्मदिन था वो तो बार-बार इंदु जी को धन्यवाद बोले जा रही थी। ऑन्टी आज आपकी ही वजह से मेरे खाने की तारीफ हो सकी थैंक्यू ऑन्टी! सबके चेहरे पर भी खुशी व तृप्ति साफ झलक रही थी।
इंदु जी को यह सब देख बहुत अच्छा लगा, कहने लगी, ‘बेटा जब भी आप लोगों को कुछ पूछना या जानकारी लेनी हो ले लिया करना, घर आ सको तो सामने से बता दूंगी नहीं तो फोन से पूछ लिया करना। हमारे अनुभव तुम्हारे काम आ जाएं इससे अच्छा भला और क्या हो सकता है? इसमें दो फायदे हैं, जहां तुम सब कुछ नया सीख सकोगी जिन्दगी ज्यादा आसान व सहज बीतेगी वहीं तुम लोगों के साथ रहने से मेरा समय भी आसानी से बीतेगा, अपनों का साथ मिल सकेगा?’ ठीक है ऑन्टी! सभी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया, ‘अब आपका प्यार और साथ हमारे बीच है तो खाना बनाना या घर से संबंधित किसी भी बात की कोई टेंशन अब से नहीं रहेगी थैंक्यूथैंक्यूऑन्टी। मन ही मन इंदु जी को समय भलीभांति बीतने का का नया जरिया मिलता देख बड़ा ही सुकून मिल रहा था।’
ऐसा ही सुदर्शन जी के साथ भी हो रहा था बेटे व उसके दोस्तों के बीच बैठ उन्हें मालुम हुआ। ऐसे बहुत से काम हैं जो ये बच्चे जानते-समझते हुए भी समयाभाव की वजह से नहीं कर पा रहे हैं और इस कारण इन्हें मुश्किलें आ रही हैं। मसलन! जिस सोसाइटी में रह रहे हैं वहां पर बिजली व नियत समय पर पानी की सप्लाई व्यवस्था, माली व गार्ड की नियमित रूप से चेकिंग। कहने का तात्पर्य है कैंपस की उत्तम देखभाल, हरा-भरा वातावरण व उचित सफाई-सुरक्षा के सही पुख्ता इंतजाम।
सुदर्शन जी ने कहा, ‘मुझ से जितना बनेगा मैं अपनी तरफ से सोसाइटी की देखभाल कर लिया करूंगा। हम लोग जो मासिक आमदनी इन व्यवस्थाओ के लिए खर्च करते हैं। उन सबका हिसाब-किताब रखने में कुछ अपनी तरफ से मदद भी कर दूंगा। इससे जहां आप लोगों का काम आसान होगा वहीं मेरा भी समय भलीभांति बीत जाया करेगा।’ सिर्फ मैं ही नहीं इस सोसाइटी में मेरे हम उम्र के जो भी हैं सभी को एक साथ मिल-जुलकर अपनी सोसाइटी की उचित रूप से देखभाल व ध्यान रखा जा सकता है।
‘इसमें हम सभी का फायदा है क्योंकि सभी के सहयोग से जहां सोसाइटी की व्यवस्थाओ पर नजर रखी जा सकेगी वहीं इस उम्र में शारीरिक व मानसिक रूप से हम व्यस्त भी हो जाएंगे। कुछ तो करने को है इसी सोच से व्यस्तता का अनुभव होने से हमारा दिन अच्छा बीतेगा आप लोग भी बेफिक्र हो अपने-अपने काम कर सकेंगे।’
सुदर्शन जी की बातें बेटे व उसके दोस्तों को बहुत अच्छी व सटीक लगीं, सभी ने हाथ जोड़ उनका स्वागत किया व तहेदिल से उनकी बात का समर्थन करते हुए सराहना की। सबका यही मानना था इस तरह एकजुट रहने से जहां बड़े बुजुर्गों का समय अच्छा व्यतीत होगा। वहीं हमारी सोसाइटी भी भली-भांति आबाद रह सकेगी। घड़ी पर नजर गई काफी रात हो रही थी। मन तो किसी का भी उठने का नहीं था पर घर तो जाना ही था सो फिर जल्दी ही मिलने का वादा कर सबने एक-दूसरे से विदा ली।’
अगली सुबह फिर घड़ी ने ग्यारह बजाए पर आज की बात ही और थी। बेचैनी तो अब भी टाइम पास की थी लेकिन वैसी नहीं जो पहले हुआ करती थी। कहीं न कहीं दिल को थोड़ा सुकून तसल्ली थी एक नयी राह की तलाश जो हो गयी है।
इंदु जी यह सब सोच ही रही थी कि बेटे की आवाज सुनाई दी, ‘पापा, विक्की का फोन आया है उन सबने तय किया है अंकल को हिसाब-किताब का रजिस्टर पकड़ा दिया जाए, ताकि आप सही तौर-तरीके के साथ इस सोसाइटी की पूर्ण रूपेण देखभाल करें और सभी आवश्यक भौतिक सुविधाओं का हमें लाभ मिल सके।’
बेटे की बात पूरी भी न हो पाई की बहू भी कमरे में आ गई तथा कहने लगी, ‘मम्मी क्यूं ना एक-दो दिन में हम अपने घर सभी का डिनर कर लें। आपके हाथ की दाल की कचौरी, दम आलू के साथ और दही भल्ले व यम्मी-यम्मी गाजर के हलवे का लुत्फ सभी खा कर उठाएं साथ ही इन्हें बनाने की रेसिपी भी आप से सीख लें। इससे एक पंथ दो काज की कहावत चरितार्थ हो जाएगी खाने का खाना और सीखने का सीखना।’
बहू का कहने का अंदाज ऐसा था कि चारों ठहाका लगा हंस दिए और इंदू और सुदर्शन जी तो अपने यथार्थ होते ‘सपने’ देख दिल से एक-दूसरे की आंखों में देखते हुए वास्तविक हंसी हंसे। चूंकि आज सही मायने में समय बिताने की उनकी खोज पूरी होती दिख रही थी…।
