मुबारक हो आखिर बोर्ड के रिजल्ट निकल आये,वरना तो इस बैच के जैसे नकारा और फालतू बच्चे तो कभी
हुए ही नहीं।अब पूछिये मैंने ये क्यों कहा…कुछ वर्षों पहले एक फ़िल्म आई थी जिसका शीर्षक था “फालतू”…।
अनायास ही मुझे वो फ़िल्म याद आ गई, जिसमें निर्देशक ने यह दिखाने का प्रयास किया गया था कि बॉर्डर
लाइन पर पास हुए बच्चों को किसी भी कॉलेज में एडमिशन नहीं मिल पाता। यह बच्चे घर के लिए भी फालतू
है और समाज के लिए भी… यह बच्चे पास होकर भी जिंदगी के गणित में फेल है क्योंकि उन्हें कहीं एडमिशन
नहीं मिल पाता।
कोरोना के कारण उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग, व्यवसायी से लेकर नौकरी पेशा वाले सभी को नुकसान हुआ
है पर सबसे ज्यादा नुकसान जिसका हुआ है वो है छात्र,हमारे बच्चे हमारा भविष्य इस देश का भविष्य…इन
दिनों टी वी पर एक प्रचार बहुत तेजी से प्रसिद्ध हो रहा है। जिसमें एक विद्यालय की छात्रा अपने और अपने
जैसे बच्चों पर हंस रही है। हमारा बैच किस नाम से याद किया जाएगा। 2022 का बैच जो बस यूँ ही दो साल
तक घर में बैठा रहा और घर में बैठे-बैठे ऑनलाइन इम्तिहान देकर पास हो गया।जीवन भर हर इम्तिहान में
लोगों की नजर में हमेशा वे एक संदेह की दृष्टि से देखे जायेंगे पर सबसे ज्यादा खामियाजा भी इन्होंने ही भुगता
है।
इस देश की शिक्षा प्रणाली बस भगवान भरोसे ही चल रही है।दो साल यह समझने में ही लग गये कि बच्चों
को कैसे पढ़ाया जाए, पढ़ाया जाया जाए भी या नहीं… ऑनलाइन- ऑफलाइन की आँख-मिचौली में दो वर्ष
निकल गये। ठीक है उनका भी कहना सही था बच्चों के जीवन से बढ़ कर तो कुछ भी नहीं पर जरा सोच कर
देखिए जिस स्थिति में आज हम खड़े हैं रास्ता कहीं भी नहीं दिख रहा। हमारी महान शिक्षा प्रणाली के तहत
दसवीं और बारहवीं के इम्तिहानों को दो टर्म में बांट दिया गया।पाठ्यक्रम में भी तीस प्रतिशत की कटौती कर
दी गई पर विचार करने वाले महानुभावों ने एक बार भी ये नहीं सोचा कि एक इम्तिहान की तैयारी के लिए
आठ से नौ महीने और दूसरे में चार से पाँच…पहले टर्म के परिणाम भी गुमशुदा के तलाश टाइप हो गए है ।हम
तो सोच रहे हैं अखबारों में एक विज्ञापन भी निकलवा दें,” जानकारी देने वाले को पच्चास हजार का इनाम।”
छात्र-छात्राएँ अजीब पेशोपेश में थे…इंतज़ार की घड़ियाँ इतनी लंबी होगी,ये तो किसी ने भी नहीं सोचा
था…स्थिति तो अभी और विकट आनी बाकी थी ।अप्रैल माह से नया सेंशन शुरू होता है।पीछे वाले छात्र
पेट्रोल खत्म होंदा ही नहीं टाइप पढ़ाई किए जा रहे थे।विधालयों ने प्रैक्टिकल और प्री बोर्ड के नाम पर फीस
अपनी जेब में पहले ही डाल ली थी।स्कूल हो या कोचिंग सब जगह इतनी बुरी स्थिति थी कि पूछिये ही मत
पुराना बैच पढ़कर निकला नहीं,नया बैच आने को तैयार खड़ा है।विधालयों में अजीब स्थिति थी, नये बैच को
कहाँ बैठाए, पुराने को कहाँ पढ़ाये और क्यों पढ़ाये।फीस उनसे अब मिलनी नहीं कमरे इतने है नहीं…शिक्षक
उतनी ही तनख्वाह में पुराने छात्रों को पढ़ाने के लिए उत्सुक नहीं। ले देकर इन छात्रों की स्थिति त्रिशंकु की
तरह थी। भविष्य के बारे क्या सोचे और कैसे सोचे,जब वर्तमान ही अधर में लटका हो।वे भी उस फ़िल्म की
तरह समाज के लिए फालतू ही न बन कर रह जाये,बस इस बात का ही डर है। जय हो भारत की शिक्षा प्रणाली|