भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
लगभग एक महीने से वह बिस्तर पर पड़ी थी। कमर दर्द के कारण डॉक्टर ने उसे एक महीना और 15 दिन बेड रेस्ट के लिए कहा था। शरीर बेशक स्थिर पड़ा था पर मन उतना ही अस्थिर। जाने यादें उसे कहाँ-कहाँ ले जाती। दवाई के कारण बीच-बीच में नींद आ जाती तो वह समझ भी न पाती कि यह सपना है या सच में घटित हो रहा है।
अक्सर माँ बचपन में एक किस्सा सुनती कि उसके जन्म के समय घर में कितनी खशी मनाई गई। उस समय में जब लडकियों को पत्थर कहा जाता था, उसके जन्म की खबर सुन कर उसके पिता ने नर्स को खुशी से पैसे दिए थे। नर्स ने हैरान होकर पूछा भी, “आपको पता है आपके यहाँ बेटी पैदा हुई है बेटा नहीं।”
माँ गदगद होकर कहती कि तब तेरे पिता ने नर्स से कहा, “हमें बेटी होने की खुशी है।”
बड़ा भाई भी उसके जन्म पर बेहद प्रसन्न हुआ था क्योंकि उसके मित्र के घर कुछ समय पहले एक छोटी बहन आई थी। वह अपने माता-पिता के प्रति नतमस्तक हो जाती, जब-जब कन्याभ्रूण हत्या के बारे में सुनती या पढ़ती। बार-बार मन में विचार आता कि कितना कष्टकारी होता होगा टुकड़े-टुकड़े हो कर मरना।
बाहर एक तेज रफ्तार मोटरकार निकली तो आवाज़ से उसका दिमाग जैसे सचेत हो गया। उसे याद आया कि होश संभालते-संभालते कैसे उसके नाजुक कंधों पर घर की ज़िम्मेदारी भी सवार होती चली गई। माँ अक्सर बीमार रहती थी और काम करना तो लड़कियों का काम है। घर में यही धारणा थी। इसलिए भाई को कोई काम करने को नहीं कहा जाता था। वह तो लड़का है। मगर उसे अहसास दिलाया जाता कि वह सेवा करने के लिए ही पैदा हुई है। माता-पिता, दादी-दादा और भाई की सेवा। उनकी सेवा को तत्पर हर समय हाज़िर। बचपन में कभी समझ ही नहीं पाई कि हमेशा भाई-बहन की आपसी लड़ाई में वही कसूरवार क्यों होती थी। क्यों भाई को माँ अपने आँचल में छिपा लेती थी। अगर वह भाई को कुछ भला-बुरा कहती तो माँ पंजाबी में जो कहती वह आज भी उसे ज्यों का त्यों याद है-“इहदे बिना तू फूकनी आं मैं? “अर्थात इसके बिना क्या तुझे जलाना है मैंने। क्यों भाई को बाहर घूमने की छूट थी और उसे बस घर में ही रहना था। क्यों इजाजत नहीं थी उसे किसी सखी-सहेली के घर जाने की? क्यों मनाही थी उसे खुलकर बात करने की, हंसने की? इस क्यों का उसे कहीं कोई उत्तर नहीं मिलता था।
अतीत एक दृश्य बन सामने खड़ा हो गया और ले गया 20-25 साल पीछे। पिता भाई को इंजीनियर बनाना चाहते थे। परन्तु भरसक प्रयत्न के बाद भी जब भाई एक-एक कक्षा में दो-दो साल लगा रहा था। तब उसने अच्छे, अंकों में बी. ए. पास कर एम. ए. करने की इच्छा जाहिर की। पिता का वह वाक्य खंजर-सा जिगर में उतर गया। जब उन्होंने कहा- “कितने पैसे लगेंगे? कल को तेरी शादी भी करनी है।” वह सकते में आ गई। उस दिन वह थोड़ा-सा मर गई।
पिता सोचते थे कि लड़की का ग्रेजुएट होना बहुत है। अब उसकी शादी कर दी जाए। परन्तु माँ की बीमारी के कारण कोई घर सँभालने वाला चाहिए। इसलिए भाई की शादी से पहले उसकी शादी नहीं कर सकते। इसलिए उसने पहले एम. ए. की फिर एम. फिल भी। मगर अब उसकी शादी ही सबसे बड़ी समस्या हो गई। पिता चाहते थे कि कहीं भी किसी तरह भी उसकी शादी हो जाए। उनकी नाक का सवाल था। समाज क्या कहेगा? पिता अपने मित्र के अनपढ़ लड़के से शादी करने को राजी हो गए। उसके जरा से विरोध पर पिता ने घर का सामान तोड़ डाला और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे, “अब मैं इसका क्या करूं? मरती भी तो नहीं। “उस दिन वह थोड़ा-सा और मर गई।
पंखे में टक-टक की आवाज़ हुई। वह स्वयं से ही बात करते हुए बड़बड़ाने लगी, “शादी ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। काश! मुझे नौकरी करने दी होती।”
वह चाहती थी नौकरी करना, परन्तु घर की ऐसी परम्परा नहीं थी। पहले खानदान में किसी लड़की ने नौकरी नहीं की थी। माँ ने कहा, “जो करना है, अपने घर जा कर करना। हमारे घर नहीं।”
उस दिन वह बेघर हो गई। उसे नहीं पता था कि उसका घर कहाँ है? वह खुशी जो उसके पैदा होने पर समाज को दिखाई गई थी। वह कहीं खो गई थी। उस दिन उसे समझ आया कि जन्म पर खुशी इसलिए थी क्योंकि घर में पहले से बेटा था। इसका स्पष्टीकरण तब हुआ जब भाई के घर में दूसरी बेटी पैदा होने पर मातम और उसके बाद कन्या भ्रूण हत्या हुई। उस दिन वह थोड़ा-सा और मर गई ।
घंटी बजी और कामवाली बाई अंदर आ गई। उसकी 12-13 वर्ष की बेटी को देखकर उसने पूछा, “यह आज स्कूल नहीं गई?” ।
उत्तर मिला, “बस अब नहीं जाएगी। हमारे में 15-16 बरस में शादी कर देते हैं।”
उसे समझाने के लहजे में कहा, “तो अभी दो-तीन साल और पढ़ने दे। दसवीं तो कर लेने दे।”
फिर सधा-सा जवाब, “अब मेरे साथ काम सीखेगी।”
मन में सोचा, “क्या अपने जीवन पर इसका कोई हक नहीं। महाभारत में कृष्ण ने तो कहा है कि सभी को अपना जीवन अपने अनुसार जीने का हक है, यदि आप दूसरों को जीने नहीं देते तो यह पाप है।”
दूसरे ही पल मन ने कहा, “तुम्हें कब था?”
गाय के गले में पड़ी रस्सी अपनी मर्जी से पिता ने किसी और के हाथ में पकड़ा दी। जांचा-परखा कि उसका वर भाई से ज्यादा पढ़ा-लिखा या धन-सम्पत्ति में उनसे बढ़ कर न हो। भाई और मायके का महत्त्व सदा उसकी ज़िन्दगी में बढ़ कर रहे। यह उसके मन का भ्रम नहीं था। यह तब पता चला जब उसके पति ने बड़ी कार ली। माँ ने झिड़कते हुए कहा, “पहले भाई को कार लेने देती।”
उसे समझ नहीं आया कि पति से क्या कहे? कैसे कहे? जब तक मेरा भाई कोई चीज़ नहीं खरीद लेता तब तक तुम कुछ नहीं खरीद सकते।
पास ही मेज पर उसकी डायरी पड़ी थी। उसे उठा कर लेटे-लेटे ही वह लिखने लगी। “समानता कुछ नहीं। एक मुखौटा है जो समाज में स्वयं को आदर्श दिखने के लिए पहना जाता है। कानून ने बेशक समानता का अधिकार दिया है लड़की-लड़के को। परन्तु समाज कब इस समानता को अपनाएगा, इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है।”
वह सोचने लगी, “समानता का अधिकार देकर कानून ने लड़कियों के साथ अच्छा किया या नहीं? इससे भावनात्मक रूप में तो उनका बुरा ही हुआ है। अपने ही माता-पिता, भाई-भाभी उन्हें शक की नज़र से देखने लगे हैं। उन्हें यही चिंता सताती रहती है कि कहीं लड़की अपना हक न मांग ले।”
लिखते-लिखते उसकी आँखे नम हो गई। उस दिन वह पूरी तरह मर गई जब भाई ने उसे हिदायत दी कि वह मायके कम आया करे। पिता ने अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा, “न जाने तेरे पति के मन में क्या है? शायद उसकी नज़र हमारी संपत्ति पर है।”
माँ ने तो धमकाते हुए कहा, “तू ज़बरदस्ती लेना चाहेगी तो हम कुछ नहीं देंगे।”
कामवाली बाई ने कमरे की लाइट जलाई तो साथ ही टी.वी. भी चल पड़ा। उसमें ‘कन्या पढ़ाओ-कन्या बचाओ’ का विज्ञापन आ रहा था। एंकर बोल रही थी, “कन्या भ्रूण हत्या पाप है।”
मगर आज पहली बार उसे कन्या भ्रूण हत्या पाप नहीं लगा। उसे लगा कि तिल-तिल मारने से अच्छा है। एक बार में हत्या कर दी जाए। अपनों द्वारा इस तरह मारना हत्या से कम नहीं।
हत्याहत्या! हत्या! देर तक यह शब्द उसके दिल और दिमाग़ में गूंजता रहा।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’