भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
वह सुन्न निष्क्रिय खड़ी रही। नीला लिफाफा हाथों में पकड़ होने पर भी हवा में फड़फड़ा रहा था। उसे लगा होस्टल की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते वह भी पत्ते की मानिन्द फड़फड़ा रही है। एक अर्से के बाद यह उसे क्या सूझी? गेट से लेकर अपने कमरे तक पहुंचते-पहुंचते वह एक ही तरह के वाक्य का कोटि बार उच्चारण कर चुकी थी- ‘रसना प्रिय, मैं आ रहा हूँ तुम्हारे पास……’ शेष वाक्य वह पढ़ते हुए भी दोहरा नहीं सकी थी। ‘शिवांग’ के साथ पिछले वर्ष से उसका रोमांस चल रहा था। रोमांस कह लो या प्रेम कि वे एक-दूसरे से टूटने की कल्पना पर ही रोमांचित हो जाया करते थे। दबी-दबी जुबां से हज़ारों बार वे एक दूसरे को कह चुके थे। ‘तुम्हारे बिना अब जीवन कैसा?’ जागते हुए मनुष्य हजारों बन्धनों और नियमों में कसता रहता है सत्य से दूर!
उन दोनों का साक्षात्कार ‘धर्मशाला’ के अदना से होटल के कम्पाऊण्ड में हुआ था और कब वे एक-दूसरे के हाथों को कस कर पकड़े उन पहाड़ी पगडण्डियों पर उतर-चढ़ रहे थे पता ही न चला। वे कब से ‘बुद्ध’ की विशाल स्वर्ण-प्रतिमा में एक-दूसरे की परछाई तक रहे हैं, एहसास ही न हुआ और कब से दलाईलामा का एक ही सुर का मधुर संगीत उन दोनों को बांध रहा है, पहचान ही न सके।
पंजाब और जम्मू के मैदानी बार्डर शहर में वे दोनों रहते हैं। अपनी-अपनी अमूल्य निधि ‘प्रेम’ को सम्भाल कर रखने की ललक में उन्हें एक शहर में होते हुए भी जीविकार्जन के लिए विभिन्न स्थान पर रहना पड़ रहा था। दोनों की पोस्टिंग पहाडी के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक सीमित है। चाहने पर भी वे प्रतिदिन मिल नहीं सकते। ‘रसना’ ने खूबसूरत-सा मकान किराए पर लिया हुआ था। ‘शिवांग’ छुट्टी का दिन ‘रसना’ के मकान पर ही बिताया करता था। वीकएण्ड पर उसके पास आ उसे प्रेम-विभोर किया करता। उसे लगता ज़िन्दगी का सूत्र ‘शिवांग’ द्वारा दिए क्षण से ही बंधा हुआ है। कुछ न पाकर भी वह तृप्त है, आसक्त होकर भी सशक्त है। वह ‘शिवांग’ को सामने देखते ही असहाय-सी हो जाती है। जिस तरह आज उसके हाथों की लिखावट पहचान कर ही असहाय हो गई है।
ताला खोलते हुए उसके हाथ कंपकपाते हैं, उसे प्रतीत होता है अभी स्विच ऑन करते ही ‘शिवांग’ कहीं से अचानक आकर उसे बाहों में बांध लेगा और माथे पर भरपूर चुम्बन अंकित कर देगा, फिर उसके अधरों पर लाली देख अचकचा उठेगा। ‘नहीं, प्लीज़ लिप्स्टिक लग जाएगी’ और वह बेतहाशा उसे लिपस्टिक के रंग में डुबो देगी। लेकिन स्विच ऑन करते हुए कुछ भी नहीं हुआ। उसके हाथ में सिर्फ लिफाफा फड़फड़ाने लगता है। वह बेचैन है- ‘कुछ होता क्यों नहीं?’
पीछे झांकती है, चोरी छिपे मिलते रहने से ऊब कर, वह शिवांग के साथ घर बसाने की चाह में किसी और शहर जाकर रहना चाहती थी ताकि वे दोनों विवाह सूत्र में बंध एक-दूसरे के हो सकें। इसीलिए उसने अपना तबादला नए निर्मित शहर चण्डीगढ़ के निकट करवा लिया था और तीन माह पहले ‘शिवांग’ उसे इस सेमी-पहाड़ी प्रदेश के तल में भटकने को छोड़ गया। उसे अपने विभाग से ज्यादा छुट्टियां नहीं मिली थीं। वे इस दौरान उस निर्माणित शहर में भटकते रहे थे। उसे उस सेमी-पहाड़ी इलाके में मकान नहीं मिल सका था। वे दोनों ढूंढ-ढूंढ कर थक चुके थे और कुछ दिनों के लिए वह चण्डीगढ़ के वर्किंग होस्टल में आ गई थी। अन्तिम दिन ‘शिवांग’ उसे फिर दिलासा देकर अपनी नौकरी पर जा चका था। उसे याद है जब वे दोनों चण्डीगढ़ के ‘लियोन्ज रेस्तरां’ में आमने-सामने बैठे थे तो उसकी आंख भर आई, न जाने उसे ऐसा क्यों लगा था कि ‘शिवांग’ अब नहीं आएगा। वह इस ख्याल को झटकती, उससे आश्वासित होने का यत्न करती है।
‘क्यों चुप हो?’ उसने कहा भी ।
‘मकान मिला नहीं और अब तुम भी जा रहे हो’ उसने उदास हो जवाब दिया, तो वह हंसा था।
‘मिल जाएगा, उतावली क्यों होती हो, सब कुछ मिल जाएगा। किराए का…’ शिवांग ने न जाने किस क्षण के वशीभूत हो उसे छेड़ने का प्रयास किया था।
वह रुष्ट हो जाती है। ‘सब-कुछ’ का क्या मतलब? उस दिन उसे सामने बैठा पुरुष ‘शिवांग’ नहीं लगा। लगा था जैसे कोई दूसरा पुरुष बैठा उसे भी मकान के भाव-तोल में तोल रहा हो। वह अनमनी-सी लौट आई थी, जागृतावस्था में आदमी खुद को छल सकता है, धोखा दे सकता है, लेकिन ‘सो जाने’ पर छल और धोखे की परतें हट जाती हैं, सभी नियम और बन्धन टूट जाते हैं। स्वप्न में वास्तविक इच्छाओं की तृप्ति हो जाती है। ‘वह भी अब तक सोती ही आ रही है’ वह दोहराती है। ‘शिवांग’ उसके बाद क्यों नहीं आया? दो खत भेजने के बाद उसका अहम उसके रास्ते में अड़कर खड़ा रहा। वह इस पत्थरों के शहर में आकर ‘शिला’ बन गई, जड़ हो गई। सभी स्वप्न फूल से झर गए।
बाद में उसे उड़ती-उड़ती खबर मिली उसके यहां से जाते ही ‘शिवांग’ ने शादी रचा ली है। शिवांग उससे इस तरह एकदम कैसे टूट सका। उखड़ी-उखड़ी बदहवाश कुछ न सोच सकी वह। शिवांग का वहां ‘एक नज़र का प्रेम’ फिर हो गया था किसी से। ख़बर मिली, उसे पुत्र प्राप्ति हुई है। अपने प्रेमी के पुत्र प्राप्ति पर वह खुश हो या आत्महत्या कर ले? खोई-खोई-सी बस खूब रोती रही और उसके द्वारा मिली अपनी प्राप्तियों को टटोलती ही थी। क्या मिला उसे ‘कैनवस पर पड़ी हथेलियों के छिद्रों की सिर्फ पहचान मात्र?’ वह और जड़-पत्थर हो गई थी। मकान अभी तक नहीं मिला था। उसे लगा इस सेमी. पहाड़ी क्षेत्र में वह ‘मकान’ ढूंढते-ढूंढते और चण्डीगढ़ के इस होस्टल की सोढ़ियां चढ़ते-चढ़ते एक उम्र लांघ आई है, जहां प्रेम, प्यार, क्रोध, तड़प, मिलन, इच्छा-अनिच्छा का कुछ अर्थ नहीं है। अनिन्द्य रुप लेकर नहीं आई वह, न ही इतनी अतृप्ति कि पुरुष का बदलाव कर सके। उसे किसी और पुरुष की इच्छा न रह गई थी। वह अपने आप में सिमटी, स्वयं में सलंग्न रहती।
न जाने उसे क्या हो जाता है कि वह बार-बार चौंकती है। जैसे अभी कोई आया हो। उसे लगा कोई उसके पांव के तलुए चाट रहा हो, वह हड़बड़ा उठती है। होस्टल से बाहर पास वाले मकान का ‘पालतु’ अल्सेशियन कुत्ता था। ‘हिश्-हिर’ करती वह उसे दुत्तकारती है और वह है कि उससे लिपटता ही आता है। वह रुआंसी हो आती है। चीखना चाहती है। वह अकेले जिस्म के साथ रह रही है लेकिन कड़वी यादों के पलों में। कोई भी उसे अकेला नहीं रहने देता? ‘कभी खत फड़फड़ाता है, तो कभी बांह के रौएं खड़े हो जाते हैं, कभी शिवांग सामने खड़ा घूरता है तो कभी अल्सेशियन कुत्ता उसके तलुए स्पर्श करता है, क्यों-क्यों-क्यों?’ वह चीखती है दो वर्ष होने को आ रहे हैं उसे मकान ढूंढते, अभी तक ढंग का कोई मकान न मिला। अकेली लड़की को कोई मकान दे कर राजी नहीं। हार कर होस्टल में रच-बसने लगती है कि फिर जहन में एक विचार आता है, अपना सजा-संवरा घर होना चाहिए। होस्टल की भी क्या ज़िन्दगी? फिर रोज़ के सफ़र से वह तंग हो उठी है। वह सभी से तंग हो उठी है, यहां तक कि पसन्द के पुरुष का इन्तजार करते-करते मौत की आने वाली घड़ी से भी। खिन्न हो वह पिछले दिन का अखबार पढने का प्रयास करती है। ‘प्रेमिका ने कपड़ों में आग लगा ली।’ वह कटु मुस्कुराती सोचती है, वह भी अपने कपड़ों में आग क्यों नहीं लगा लेती!’ इस बार-बार के जलते रहने से अच्छा तो यही है।
घास-फूस जड़ तक अकेले नहीं। बलखाती बेलें भी पेड़ों से गले मिलती सटी हुई हैं। उसे किसी पेड़ की छाया तक नसीब नहीं, क्यों? क्यों वह बेलों में खिले छोटे छोटे फूलों को स्पर्श करते हुए भी डरती है?
वह माथे की उभरी नस पर जोर डाल कर सोचती है कि उसे मकान के सिलसिले में उस मैजिस्ट्रेट से मिलने जाना है, जो उसके विभागीय अध्यक्ष का मित्र है। वह मैजिस्ट्रेट उसे आश्वासन ही नहीं देता बल्कि अपनी धीमी आवाज़ में उसे बार-बार बोर करता है- ‘मिलेगा क्यों नहीं, हम किसलिए हैं?’ फिर अपने अर्दली को आवाज़ देता, ‘अभी जाओ, कोई मकान तलाश करो, ‘यह सनकी है शायद’, वह मुस्कुरा उठती है। वह इस कोर्ट में बार-बार चक्कर लगाती थक गई है, तंग आ चुकी है। लोगों की उत्सुक निगाहों से उकता गई है। वह भी मकान की तलाश में सनकी होती जा रही है शायद।
वह अकेली है, इस बात का एहसास लिए वह अपनी साड़ी के पल्लु को चारो ओर बाखूबी लपेटे रखती है। होस्टल की लड़कियां व्यंग्य कसती है- ‘शिवांग तुम्हे छोड़ सकता है, तुम क्यों नहीं’ ‘मैने कहां पकड़ा है उसे’ वह बहस करती है लेकिन सामने अंगूर की सूखी टहनो को देख मन में कसक उठती है- ‘सुन्दर-सी देह, शिवांग जैसे पुरुष की चाह में सूखती जा रही है।’
‘प्लीज, मैं अब नहीं आऊंगी, मुझे सूचना दे देना’, वह बताता है कि उसने किसी काम से उसके होस्टल की ओर आना है, खुद बता देगा। उसने कल बाजार जाना था वह वहां मिलना स्वीकार कर लेती है।
वह देखती है, अधेड़ उम्र का मैजिस्ट्रेट कोर्ट की चारदिवारी में कैसा मुजरिम-सा लगता रहा है, उसे उसके चेहरे से ही घिन्न आने लगती है ‘प्लीज, कोई प्रोगेस हुई?’ वह उसके आते ही प्रश्न करती है और एक दुकान के डायस के सहारे खड़ी हो जाती है।
‘कुछ खाओगी’ वह उत्तर देता है।
उसे क्रोध आता है।
‘थैक्स, मैं लंच लेकर आई हूँ’
‘कुछ पी ही लो’
वह इधर उधर बेचैन-सी तकती है।
‘जी नहीं….थैक्स, मैं मकान….’
‘कुछ तो लेना ही होगा’ उसका मन चाहा वह भाग जाए, वह उकता जाती है और चेहरे को सख्त बना लेती है। औपचारिकता में नहीं जीती वह। यह पुरुष समझता क्यों नहीं, मन एक उमस से भर उठता है।
‘मैंने सुना तुम अकेली रहती हो?’
वह खीज उठती है। ‘जी हां’ अन्मयस्क-सी हो जवाब देती है।
‘किसी से प्रेम-प्रेम- अभी तक विवाह’ उसकी निगाह में शिकारी-सी चमक कौंध जाती है।
‘आपसे मतलब,’ प्रतिक्रिया में तड़प उठती है वह, जैसे उसके सारे जिस्म में घमौरियां उभर आई हों और पैर पटकती तेज-तेज चल पड़ती है। वह हक्का-बक्का खिसियाना-सा उसे तकता है।
यह पुरुष उसे एक्सप्लायट कर रहा है, खूब समझती है, रोज़-रोज़ मिलने का बहाना। और यह शिवांग, वह चौंक उठती है, उसे लगता है, सामने बैठा पुरुष ‘शिवांग’ ही था, जो एक अर्से बाद उससे औपचारिकता निभा रहा है, उसके तलुए चाट रहा है उसे इस पुरुष से अल्सेशियन कुत्ते की गंध-सी आने लगी थी।
बाज़ार से वापस आ वह सोने का प्रयत्न करती है, लेकिन शिवांग के खत में मिलने आने की बात दिमाग के किसी कोने में चक्कर काटती उसे निद्रामग्न नहीं होने देती। शिवांग उसके दिलो-दिमाग में घर कर गया है, उठते-बैठते, सोते-जागते वही नजर आता है। वह अपने में दृढ़ता लाने का प्रयास करती है, वह किसी शिवांग को अपने पास आने नहीं देगी। किसी शिवांग को प्रेम के नाम पर अपने जिस्म में पनाह नहीं देगी। यह मन, यह जिस्म किराए का है क्या जब जी चाहा आ गए, जब जी चाहा चल दिए’ अर्धविक्षिप्त-सी सोचती है, मन और मकान दोनों गडमड हो रहे हैं।
अचानक वह उठ कर बैठ जाती है, ‘यह अल्सेशियन कुत्ता क्यों चिपटता आता है। यह शिवांग क्यों आना चाह रहा है-‘ उसे शिवांग अधेड़ उम्र का मैजिस्ट्रेट ही लगा, जो किसी बहाने लड़कियों के सम्पर्क में चाय पीने का बहाना ढंढता हो या मनोरंजन का जरिया। उसने अनभव किया, जैसे अल्सेशियन कुत्ता ‘इस क्षण’ उसे बहुत-बहुत दुलार रहा है और उसके टखने-तलुए जैसे सफ़ेद हो गए हों, लहु निचुड़ गया हो, इस गंध को नेस्तनाबूत करना चाहती है वह। बाथरूम में जा खूब मल-मल के नहाते हुए बाहर और भीतर की भड़ास को निकालने के यत्न में ऊंचे स्वर में रुलाई फूट पड़ती है उसे लगा चारों ओर जैसे अल्सेशियन की गंध उसके कमरे, उसके जिस्म में भड़भड़ा कर घुस आई हो।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
