क्या करूं-21 श्रेष्ठ युवामन की कहानियां पंजाब: Hindi Girl Story
Kya Karu

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

Hindi Girl Story: मैडम रवनीत मेरे शरीर की ओर बहुत ध्यान से देखती रही। कितनी देर तक मेरे चेहरे के भावों को पढ़ती रही। प्रश्नचिह्न बनी उसकी नजरें मेरे शरीर पर घूमते देख, मैं झेंप गई। रवनीत मैडम, एक नहीं अनेक बार मुझसे कह चुकी है, “किरन! अब तो हमें विवाह के लड्डू खिला ही दो। अब तो तुम्हारी आग जैसी उम्र है। ऐसी उम्र में अपने साथी के बिना कैसे रहा जा सकता है? मेरी तो समझ में नहीं आता। जब हम तुम्हारी उम्र में थे, हमारे शरीर से तो लपटें निकलती थी। ऐसी उम्र में आदमी पानी के पास खड़ा हो जाए तो पानी में आग लग जाती है। कहीं….चोरी-छिपे तो नहीं गुड़ की बोरी में मुंह मार रही हो।

“बेशर्म!” मैं बस इतना ही कह पाई। मेरे अंदर कुछ बुझ गया।

“नहीं क्या पता लगता है आदमी का…। जब तक यह शरीर अन्न खाता है, तब तक उसकी ईर्ष्या खत्म नहीं होती और तुम तो अभी कल की लड़की हो। वैसे भी हर काम अपने समय पर ही अच्छा लगता है। विवाह भी उम्र के हिसाब का मेवा है। बेवक्त छेड़ा राग किसी को नहीं भाता। फिर तो बस ऐसे ही घसीटने वाली बात हो जाती है। क्यों मिट्टी में मिला रही हो अपने सोने जैसी देह। को कर लो कोई हीला-हवाला। पड़े-पड़े तो सोना भी मिट्टी हो जाता है। देख ले…सोने जैसी तेरी काया….।”

“मेरी बहन…। कुछ नहीं होता इस काया को।”

“हैं। कुछ नहीं होता? कैसे कुछ नहीं होता? मैं तो हैरान हूं तुम पर। हमारे मन में तो विवाह के नाम पर गुदगुदी होने लगती थी। पता नहीं तुम पर असर क्यों नहीं होता। पता नहीं कौन सा धनिया उबाल-उबाल की पीती रहती हो। आप जैसी उम्र में आदमी वैसे ही बुझा रहता है। …ऊं हूं…मेरे भेजे में तो यह बात नहीं घुसती। मेरे जैसा तो चार-चार विवाह करवा कर भी चैन न ले। मैं तो छत से छलांग लगा दूं….विवाह का नाम सुन कर…।”

मैंने कुछ नहीं कहा।

“अरी मास्टरनी! मुझे लगता है, बाबे की एकेडमी में रह कर तुम्हारा मन वैसे ही मर गया है। मुगधर जैसी जांघे देख-देख कर।” रवनीत मैडम ने मेरी कमर में कोहनी मारी और जोर से हंसने लगी। इस प्राइवेट स्कूल में मैं जब से पढ़ाने लगी, एक रवनीत मैडम ही है, जिससे मैं बात करती हूं। वरना मैं हर एक से नजर चुराती रहती हूं। रवनीत मैडम मुझे खुश करने के लिए कभी-कभी इस प्रकार से छेड़ने लगती।

“चलो, धीमा-धीमा सेक अपने जज्बात को देती रहा करो। नहीं तो यूं ही मिट्टी हो जाओगी। जब लपटें उठने लगेंगी….तब अपने साथी की तलाश में आगे-पीछे भी नहीं देखोगी।”

यह सब सुन कर मैं और भी उदास हो गई। कैसे लपट बन कर जल उठेगी। बुझे हुए कोयले में सेक कहां से आएगा? कैसे बताऊं, इस जिस्म में कोई चिंगारी नहीं उठती। कैसे समझाऊं रवनीत मैडम जैसी औरतों को इस उम्र में किस का जी नहीं चाहता कि उसके पैरों में पड़े घुघरूओं की झंकार से किसी के अंदर हलचल पैदा हो। उसका भी कोई साथी हो, जो उसके सपनों में उतर कर कभी तेज बहाव की नदी बन जाए और कभी झील बन जाए।

कभी झील भी बनी थी किसी के लिए। सपने लेती थी कि वह मुझ में डूबने और तैरने की बातें करे। अब तो यह झील जैसा जिस्म कोयले की बुझी राख जैसा बना दिया गया। इस बुझी राख का अब कोई क्या करे?

छब्बीस मई, वह कोई आम दिन जैसा नहीं था। बारहवीं क्लास का रिजल्ट आया था उस दिन। क्लास के बत्तीस लड़के-लड़कियों में से बारह सहपाठी आगे नहीं जा पाए थे। सारी क्लास में पहले नंबर पर आने के लिए मुझे बधाइयां मिल रही थी। इसी दिन रिश्तेदारी में ताया लगने वाला मास्टर शमशेर सिंह हमारे घर बधाई देने आया। एक प्रकार से वह मेरी कैद का परवाना ही लाया था।

“भगवान सिंह! तुम्हारी बेटी ने बड़ी उपलब्धि हासिल की है। अब इसे घर में मत बिठा देना। आगे पढाओ इसे। अपने पैरों पर खडे होकर तम्हारा सहारा बनेगी। छोटे बहन-भाइयों को कंधे से लगाएगी। फिर क्या सोचा है तुमने इसकी आगे की पढ़ाई के बारे में?” मास्टर शमशेर सिंह को मालूम था, छठी फेल भगवान सिंह को ‘आगे क्या करना है’ इस बारे में क्या मालूम!

“मास्टर साब! परिवार की जिम्मेवारियां काफी भारी हैं। मुश्किल से इसे बारह तक पढ़ा पाया हूं। आगे पढ़ाने की हैसियत नहीं है मुझमें। आप से कुछ छिपा नहीं? गांव में किसी से सीख लेगी सिलाई-कढ़ाई का काम। गुजारे लायक हो जाएगी।” सुन कर मेरे दिमाग को झटका-सा लगा। मेरे साथ की कई लड़कियां शहर में कॉलेज में पढ़ने की तैयारी में थी। वैसे घर के बर्तनों में से भादो महीने ही गेहूं के खत्म हो जाने की जानकारी मुझे थी। इसी कारण आगे पढ़ने के बारे में अधिक उम्मीद नहीं लगाई थी।

“ना…ना…यह गलती मत करना। जब बेटा-बेटी पढ़ने वाला हो …तब कमी-पेशी नहीं देखी जाती। गृहस्थी की गाड़ी तो चलती ही रहेगी ऐसे ही ढिचकू-ढिचकू…। मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूं। इस बच्ची को किसी मुकाम पर पहुंचते देखना चाहते है।”

“वो तो ठीक है….मगर…?”

“भगवान सिंह…बीबी किरन को आगे पढ़ाना और वह भी बाबा जी वाली एकेडमी में। यह जिम्मेवारी मेरी रही। धेला नहीं लगेगा तुम्हारा। एक बात से निश्चित हो जाओ तुम। एकेडमी के बारे में तुम्हें मालूम ही है। कौम के बच्चे-बच्चियों को पढ़ाई के साथ-साथ धर्म में परिपक्व करना उनका मनोरथ है। दूर-दूर से बच्चे-बच्चियां वहां पढ़ते हैं। वहां दाखिला लेने के लिए दुनिया तरसती है। बाबा जी स्वयं सारा प्रबंध देखते हैं। छांट-छांट कर विद्वान और माहिर टीचर रखते हैं।”

“मास्टर जी! अपने सूबेदार दुल्ला सिंह के पोता-पोती का दाखिला वहां हुआ था। बीच से ही उन्हें निकाल लिया। कहने लगा, वहां का खर्च बहुत ज्यादा है। भाई साहब हम तो बच्चों की सरकारी स्कूलों की फीस भी नहीं दे पाते, प्राइवेट वालों की मार कैसे सहन करेंगे?”

“भगवान सिंह, एकेडमी इन दुल्ले वालों के बच्चों के लिए नहीं बनी। वैसे भी मैंने कह दिया न, यह सारी जिम्मेवारी मेरी है। अपने पूरे पंजाब से पांच लड़कियों को वो मुफ्त पढ़ाते हैं। एकदम फ्री। वहां होस्टल में ही रहेगी। और सनो….बी. ए. के बाद बी.एड. भी वहीं होगा। वहीं एकेडमी के स्कूल में नौकरी मिल जाएगी साथ के साथ। यह तो धर्म को समर्पण होने वाली बात है। तुम्हारे सिर से भार उतर गया समझो।”

“देख लो भाई साहब….वहीं रहना होगा? हमारा दिल कैसे लगेगा… अकेले बेटा-बेटी बाहर कैसे रह सकता है?” मां को समझ नहीं आ रहा था, क्या बात करें।

“अरी पागल न हो तो…बहन! यह लड़की तुम्हारा दूध सफल करेगी। एकेडमी इस समय देश की चोटी की शैक्षिक संस्थाओं में से एक है। फिर बाबा जी का उद्देश्य कौम को आगे ले जाने का है। आप सोचों, ये लड़के-लड़कियां क्यों बिगड़ते जाते हैं। इन स्कूल-कॉलेज में उन्हें नैतिक शिक्षा नहीं दी जाती। धर्म-कर्म नहीं पढ़ाया जाता। धर्म से जुड़ा बच्चा कभी अस्थिर नहीं होता। अब बच्चों पर कोई धर्म का कुंडा है ही नहीं? ये छोटी जातियां धर्म छोड़ कर गिरजे की ओर जा रही हैं। कुछ लड़के कानों में नतिआं पहन कर….जय मस्तों की…जय मस्तों की करते घूमते हैं। अब तुम ही बताओ, जब युवा पीढ़ी को कोई धर्म से न जोड़ दे….वे बिगड़ेंगे ही….।”

“यह बात तो है….।” बाप के लिए धर्म-कौम जैसी बड़ी-बड़ी बातों के क्या अर्थ थे?

“जसमेल कौर बहन…., एकेडमी में अनुशासन बहुत है। वहां चिड़िया भी नहीं फटकती। बाबा की मर्जी के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता। वहां तो भाई मां-बाप से भी तीन महीनों में एक बार मिलने की इजाजत मिलती है। वैसे भी तुम यहां दिल लगने की बात कर रहे हो….कुछ पाने के लिए, कुछ खोना भी पड़ता है।”

“हां, यह बात तो ठीक है भाई…।”

“अच्छे घरों वाले अपने बच्चे को पढ़ने के लिए कनाडा-अमेरिका भेज रहे हैं। बेगाने मुल्कों में। समुद्र पार। हजारों मील दूर। न अपनी धरती, न बोली, न अपने लोग। देखो यह तो है अपने यहां। चार हाथ ही दूर है। तीन-चार महीने के बाद दोनों जाकर मिल लिया करना। और क्या चाहिए…? पुत्र-पुत्री अपने पैरों पर खड़े हो जाएं…और क्या चाहिए।

एकेडमी में आने पर थोड़े दिनों के बाद ही महसूस कर लिया कि यहां कुछ पाने के लिए गवायां ही गवायां है।

जब पहली बार मां-बाप मिलने आए थे तो मेरा लिबास देख कर मां का चाव उमड़ने लगा, “वाह किरनी! भई तेरी तो जिन्दगी बन गई। जीता रहे मास्टर शमशेर सिंह, पढाई के साथ-साथ लडकी को गुरु महाराज से भी जोड़ दिया।” मैं कुछ कह न पाई। जी चाह रहा था, कहूं, “अंधे कुएं में पड़े तुम्हारी यह एकेडमी वाली पढ़ाई…मुझ से नहीं रहा जाता इन दायरों में। मेरा यहां जी नहीं लगता।” परन्त कैसे कहती? मेरे साथ बैठी सेवादार स्त्री की बाज नजर और तीखे कान मेरी ही ओर थे। कुछ भी बोलने की अनुमति नहीं थी। इस प्रकार का पहरा केवल मुझ अकेले पर नहीं बल्कि मेरे समान मुफ्त विद्या प्राप्त करने वाली सारी ही लड़कियों पर था। हम सभी की नियति यही थी!

मैं तो मां को एक ओर ले जा कर यह भी नहीं बता सकती थी कि इस उम्र में होने वाला मासिक धर्म बंद होने लगा है। कैसे बताती कि शरीर में इतना बड़ा परिवर्तन अचानक कैसे घट गया, बिना किसी बीमारी के और वो भी एक साथ पांचों ही लड़कियों में। पन्द्रह मिनट की मुलाकात में मां के साथ मुश्किल में हूं…हां ही कर पाई थी। मां द्वारा लाया पिन्नियों का डिब्बा सेवादार स्त्री ने थाम लिया, जबकि मैंने अभी आधी ही पिन्नी खाई थी। मगर वह डिब्बा हमारे पास होस्टल के कमरे तक नहीं पहुंचा था। होस्टल के कमरे में ऐसी किसी भी चीज को लाने की मनाही थी। माई ने उपदेश दिया, “लड़कियों को ऐसा कोई खाना नहीं खाना चाहिए, जिससे शरीर में विकार पैदा हो। हमें हमेशा सादा भोजन ही खाना चाहिए, बस। सादा भोजन और गुरू की बाणी…।”

भोजन के बाद हमारे हाथों में पोथियां थमा दी जाती। निगाह कहां टिकती थी गुरबाणी के शब्दों पर…। सारा दिन गुरसिखी जीवन और शुद्ध आचरण का उपदेश हमारे दिमागों में लगातार भरा जाता था। मुझे बार-बार गांव का मेहर सिंह मजहबी सिख याद आता। उसकी लड़की मुझसे दो साल पीछे होने के बावजूद मेरी पक्की सहेली थी। कई बार मैं उसके घर चली जाती, कई बार वह मेरे घर आ जाती। कई लड़कियां यह देख कर नाक-भौं सिकोड़ती। मुझे दीपो से खास ही लगाव था। इस लगाव का कारण शायद दीपो के बाप मेहर सिंह का पूर्ण अमृतधारी गुरसिख होना था। जट्टों के साथ हलवाहे का काम करने वाले मेहर सिंह की लड़की दीपो गरीबी के कारण दसवीं से आगे पढ़ नहीं पाई थी। मेहर सिंह का पक्का गुरसिख होना, उसके कच्चे मकान को भी पक्का नहीं कर पाया था। मैं तब बहुत हैरान होती, जब लड़कियां दीपो की सिखी का मजाक बनाती। इन्हीं दिनों में गांव में एक नयी हवा चल पड़ी और दलित घरों ने बाबा नानक की तस्वीर उतार कर स्लीब के निशान लटका लिए। उसकी अरदास प्रेयर में तब्दील हो गई। तब दीपो के घरवालों का ऐसा करना मुझे बहुत बुरा लगा था मगर आज सोचती हूं, गरीब की कोई जात-धर्म नहीं होता। गरीब को चांद भी रोटी ही दिखाई देता है।

एकेडमी की जेल जैसी दीवारों में जकड़ी मैं बाबा जी द्वारा सिख धर्म की, की जा रही सेवा के बारे में सोचती। बार-बार मेरा ध्यान दीपो जैसी दलित लडकियों की ओर चला जाता। चाचा मेहर सिंह के घर की दीवारों पर लटका स्लीब का निशान मेरे सामने आ जाता। मैं सोचती मेहर सिंह के लड़के-लड़कियों को पढ़ा कर सिखी को प्रफुल्लित किया जा सकता है। ये बाबा आए दिन किसी नए गांव में स्कूल खोलते रहते। धर्म की शिक्षा के नाम तले इतना बड़ा साम्राज्य। धर्म की इस शिक्षा में चाचा मेहर सिंह जैसे असली धर्म वाले कहां हैं? मुझे दादी की कही बात याद आती, “गरीब का मुंह, गुरु की गोलक होता है।”

चाचा मेहर सिंह के मेहर मसीह बन जाने पर गांव वाले उससे बहुत नाराज हुए। उस दिन संयोग से मैं उनके घर पर थी। जत्थेदार चंचल सिंह दहलीज पार करते ही उपदेश झाड़ने लगा, “यह क्या किया तुमने? तुम्हारे बाबा जीवन सिंह ने सिखी के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी की। गुरु का शीश दिल्ली से लाया…बहुत संघर्ष किया सूरमा ने।”

“जत्थेदारा! कहीं आज कल में ही लाया होगा वो शीश?”

“क्या मतलब? क्या मतलब है तेरा….इतनी बड़ी कुर्बानी को तुम मजाक समझते हो?”

“पहले तो तुम्हें कभी बाबा जीवन सिंह की कुर्बानी याद नहीं आई…आज कैसे आ गई? फिर भाई जैता …उसे बाबा जीवन सिंह कब से बना दिया गया? हर साल नगर कीर्तन में तुम्हारा ढाड़ी जत्था “भाई जैता…भाई जैता…कूकता रहता है। तब तुम से कोई नहीं कहता कि ‘भाई जीवन सिंह कहो।’

“अरे पागल, बेवकूफ! तुम सब बाबा जीवन सिंह की संतान हो। सिखी जिन्दा ही तुम्हारे कारण है। मुझ से पूछो….सिखी के असली वारिस तुम्ही हो। और तुम ही सिखी को पीठ दिखा रहे हो……..यह क्या करने लगे हो…।”

“जत्थेदारां! तुम्हारी सिखी तुम्हें ही मुबारक हो। मैं तो बस एक ही बात जानता हूं, इस सलीब ने तुम्हें कुंभकर्ण की नींद से जगा दिया। शायद हमारे बाकी बहन-भाइयों की ओर तुम्हारा कुछ ध्यान चला जाए।” चाचा मेहर सिंह न खरी-खरी सुना दी।

“फिर बाबा जीवन सिंह के वंशजों के साथ तुम कैसा व्यवहार करते हो…कुछ भूला नहीं दुनिया को। अपनी जरूरत के लिए हमें गले लगाते हो। वैसे हम पर थूकते हो और मीठे बन कर हड़पना चाहते हो।”

“अरे क्या बात कर रहा है तू?” जत्थेदार चंचल सिंह की बोलती बंद हो गई।

“और सुन लो…यह सलीब गले में डाल लेने से हमारे बाबा की कुर्बानी कम नहीं होने वाली और ना ही हम अपने बाबा की कुर्बानी को पीठ दिखा रहे हैं। बल्कि अब तो तुम्हारे जैसे धर्म के चौधरी हमारे बाबा का नाम जोर-जोर से लोगे।”

“दिमाग फिर गया है तुम्हारा….खराब हो गया है दिमाग तेरा। जत्थेदार चंचल सिंह ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।

एकेडमी में अक्सर ही मुझे यह घटना याद आ जाती। मेरा मन खिलाखिला कर हंसने को करता। मैं अपने आसपास देखती। अजीब-सा गमगीन सन्नाटा पसरा रहता। खिलखिला कर हंसना तो दूर, वहां ऊंची आवाज में भी बात करना मर्यादा के खिलाफ था। मैं देखती और सोचती कि यहां हर समय मुर्दानी क्यों छाई रहती है? पत्थर से चेहरे वाली औरतों की एक्सरे जैसी आंखें छात्राओं और अध्यापिकाओं का हर समय पीछा करती रहती। सांस लेना भी मुहाल लगता। अजीब किस्म की दहशत का माहौल था। सेवादारिनें बात-बात पर टीचरों की इज्जत उतार कर रख देती। एक दिन तो हद से बाहर की बात हो गई। इन पत्थर और भावहीन सेवादारिनों ने एकेडमी की सबसे अधिक पढ़ी-लिखी, होशियार, सुंदर और परिश्रमी टीचर दिलप्रीत को घेर लिया,

“मैडम दिलप्रीत…ये क्या सूरत बना रखी है? बाबा जी की एकेडमी में ऐसा कुछ चल नहीं सकता।” एक बीबी ने मैडम के तराशे कुछ तीखी बरौनियों की ओर इशारा कर कहा।

“अपनी स्टूडेंट्स को क्या शिक्षा दोगी? भाई, आप यहां मॉडलिंग करने नहीं आई। यहां तो आदमी सादा ही अच्छा लगता है। अब अगर बाबा जी को मालूम हो जाए फिर? फिर तो तुम्हारी सालाना होने वाली इंक्रीमैंट ….। ऐसी गलती करने पर एकेडमी वाले इंक्रीमैंट रोक लेते हैं।” मैडम दिलप्रीत हैरान-परेशान और बेबस खड़ी इन अधपढ़ी औरतों की दिल को झुलसा देने वाली बातें सुनती रही।

“सॉरी बीबी जी।” मुझे रह-रह कर मैडम दिलप्रीत पर गुस्सा आ रहा था। एम.ए. पीएच.डी. टीचर को एक अधपढ़ बीबी धमका रही थी और वो भी अनपढ़ या अधपढ़ बाबा का डरावा दे कर। मेरा जी किया, इस पत्थर औरत को बालों से पकड़ कर खींच दूं। मैडम की आंखों से लगातार आंसू बहने लगे।

“अब पांच दिन तक एकेडमी मत आना। तब तक तुम्हारी शक्ल ठीक हो जाएगी।”

“मगर मेरी तो छुट्टियां खत्म हो गई हैं। बड़ी बेटी के बीमार होने पर मैं छुट्टियां ले चुकी हूं। वो तो अभी भी ठीक नहीं हुई। मेरे पास तो अर्ड लीव बकाया है नहीं कोई।”

“बिना तनख्वाह के छुट्टी कर लो। बाबा जी ने देख लिया तो नुकसान हो जाएगा।” पत्थर औरत ने मैडम दिलप्रीत पर बहत बड़ा एहसान किया।

“बिना तनख्वाह के छुट्टी? आपको तो मालूम है, मेरे हस्बैंड तो पहले ही घर पर बैठे हैं। अभी तक कोई नौकरी मिली नहीं। उधर मदर-इन-लॉ और बेटी के इलाज पर बेहिसाब खर्च…। इसी तनख्वाह से ही गुजारा चलता है। बिना तनख्वाह के गुजारा कैसे बीबी जी?” दिलप्रीत के सामने अगर धरती फट जाती तो वह बेझिझक उसमें समा जाती।

“स्थायी तौर पर घर बैठने से तो अच्छा है कि कुछ दिन बिना तनख्वाह के ही छुट्टी ले लो।” बिना कुछ और सुने, वो अपनी एक्सरे जैसी आंखें घुमाते हुए आगे खिसक गई। पंख नोंच परिंदे समान दिलप्रीत मैडम वही बुत बन कर खड़ी रह गई। दिलप्रीत मैडम ही नहीं, और भी कितनी ही ऐसी थी, जिनके पंख नोंच दिए गए थे। जो अब फड़फड़ा नहीं सकती थी।

मेरी जैसी की हालत भी ऐसी ही थी। पता नहीं क्या खिला दिया था हमें। हम छप्पड़ में खड़े पानी जैसी हो गई थी, जिनमें कोई ज्वार भाटा नहीं उठता था। शरीर की सारी हलचलें शांत हो गई थीं।

पता नहीं मां-पापा के दिमाग में क्या भर दिया था? तीन महीने के बाद जब भी आते, बस मास्टर शमशेर सिंह और बाबाजी का ही गुणगान करते रहते। हमारी आपसी मुलाकात एक छोटी सी खिड़की में से करवाई जाती। दीवार की दूसरी ओर खड़े मां-पापा को मालूम न होता कि मेरे साथ सट कर खड़ी एक पत्थर बीबी हमारी सारी बातचीत सुन रही होती। मैं अपनी कोई बात बताना चाह के भी बता न पाती। वैसे भी मेरी बात सुनता ही कौन? मां तो सारा समय एकेडमी वाले बाबाजी की महिमा का गुणगान करते न थकती। वह बार-बार कहती, “किरनी! मुझे सारा गांव बधाई देता है, तेरी लड़की ने तेरा दूध सफल कर दिया। बच्चे जिएं मास्टर शमशेर सिंह के, जिसने स्वर्ग दिखा दिया। नहीं पुत्तर, हमारी इतनी हैसियत कहां थी? हम तो जमा बारहवीं ही करवा पाए थे। आगे कहां पढ़ा पाते? पढ़ाई से ही तेरी जिन्दगी बन गई। अनपढ़ आदमी का अब जमाना नहीं रहा। अब यही एकेडमी में ही तुम्हें नौकरी मिल जाएगी? है न स्वर्ग जैसा…। भला और स्वर्ग कैसा होता होगा? स्वर्ग-नर्क सब कछ यही है।” मां रिकार्ड पर रखी सूई समान बोलती जाती।

“ठीक है…ठीक है..। और सारे रिश्तेदार ठीक हैं? मौसी के यहां से आया कोई?” मैं अपनी ओर से बात बदलती।

“हां, तुम्हारी मौसी आई थी। सारी रात रजाई में बैठ कर तुम्हारी ही बातें करती रही।”

“मेरे बारे में क्या बातें करने वाली थी?”

“मेलो कह रही थी, अपनी किरन की तो जिन्दगी बन गई। तुम्हारी मौसी बहुत ही खुश है। वह कहती है, जब पाल बारहवीं कर लेगी, उसे भी एकेडमी में डाल देंगे। वैसे तो पाल अभी पांचवीं-छठी में ही पढ़ती है शायद।”

“और क्या कहती थी?” मां की बातों में सतिंदर का जिक्र नहीं आया था। आगे अक्सर मौसी के साथ सतिंदर भी आया करता था। वही अपने मोटरसाइकिल पर मौसी को लेकर आता था। मौसी के जेठ का बड़ा लड़का।

“और क्या कहना था…?”

“अकेली आई थी..?” मैं बहाने से पूछती।

“हां अकेली ही आई थी। तुम्हारे मौसा के पास तो भई फुरसत है नहीं। उसका दूध का कारोबार है। घर से कहां निकल सकता है। सुबह-सवेरे ही डेयरी खोलनी पड़ती है। कारोबार बहुत अच्छा चला हुआ है। अब तो उन्होंने बाहर गली की ओर भी एक कमरा बना लिया। नए डिजाइन की रसोई बना ली। फर्श भी बढिया है। तुम्हारे मौसा का कारोबार….हैं ।”

“मां, तुम भी न..। जो बात पकड़ लो, बस रिकार्ड की तरह तुम्हारी सूई वहीं अटक जाती है।” मैं खीझने लगी थी। इतना घुमा-फिरा कर पूछने के बावजूद मेरे मतलब की बात ही नहीं की थी। ऐसा कैसे हो सकता है, मौसी आई हो और सतिंदर को लेकर कोई बात न हुई हो। मौसी उसे जान-बूझ कर ही साथ लाती थी। आने-बहाने मेरा जी चाहा, मां से कहूं, “मौसा जी, पहले भी कहां आते थे? तुम सतिंदर के बारे में कोई बात क्यों नहीं कर रही?” मगर मैं ऐसा कह नहीं सकती थी? मां को कैसे बताती कि सतिंदर भी मौसी के साथ क्यों आता था? मां को क्या बताती कि तेरी इस एकेडमी ने हमारी आंखों में पलती मूक मुहब्बत कहीं गहरे कुएं में दफन कर दी है।

मैं महसूस करती थी, मैडम दिलप्रीत जैसे हमारे साथ अपने दिल की बातें साझा करना चाहती हो। उसकी डूबती-उतरती आंखें हमें कुछ कहती लगतीं। जब ही वह हमारे साथ कोई बात करने लगती, कोई न कोई बीबी कहीं से आ धमकती। हम हैरान होते, कितनी कड़ी निगाह रखी जा रही है हम पर। क्लास रूम में लगे सी.सी.टी.वी. कैमरों द्वारा हम पर पहरा रहता। मैडम दिलप्रीत जैसी टीचर्स की मजबूरी भी हमारी समझ में आने लगी थी। थोडी-सी असावधानी से नौकरी जाने का खतरा था। अब तक तो यह सारा मामला मेरी समझ में आ गया था कि हर साल गरीब लड़कियों की भर्ती के बहाने एकेडमी को उम्र भर के लिए समर्पित पांच पत्थर किस्म की टीचरें तैयार की जा रही हैं। इन पांचों को एकेडमी में एडजस्ट करने के लिए दिलप्रीत जैसी टीचरों को किसी न किसी बहाने से बिना कसूर के निकाल दिया जाता था। ऐसी लाश जैसी समर्पित टीचरों के सहारे ही बाबा लोग अपना बड़ा साम्राज्य खड़ा करने की योजनाएं बनाते रहते थे।

तब मैं बी.ए. के तीसरे वर्ष में थी, जब मैडम दिलप्रीत को घर भेज दिया गया। बहुत उदास हो गई थी मैं। कई दिनों तक ठीक से खाना भी खा नहीं पाई। जिस दिन दिलप्रीत मैडम गई थी, उसकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थी। हमारा दिल चाहा, उन्हें बांह से पकड़ कर रोक लें। मैडम दिलप्रीत पर अजीब सा इल्जाम लगाया गया था कि वह क्लास में छात्राओं के साथ सिलेबस से बाहर की फालतू बातें करती थी। सिलेबस से बाहर साहित्य जगत की बातें प्रबंधकों को फालतू ही नहीं खतरनाक भी लगती थीं। हम सभी छात्राएं बहुत गुस्से में थी। मगर यह गुस्सा हमारी आंखों में उतर नहीं पाया था। हमारी आंखों में केवल अजीब सी दहशत उतर पायी थी। मैं जहां भी देखती, मुझे मैडम दिलप्रीत की रोती आंखें दिखाई देती, जो मुझसे कह रही हो, “किरनजीत, जितनी जल्दी हो सके, इस जेल की चारदीवारी की ऊंची दीवारों को लांघ जा। इस कैद के बाहर रोशनी ही रोशनी है।”

इस जेल से कभी बाहर भी आ पाऊंगी, मैं ऐसा सपना भी नहीं ले सकती थी। एकेडमी की चारदीवारी जेल का जीवन प्रतीत होने लगी थी। कभी-कभी मेरा जी चाहता, पक्षी समान उड़ान भर कर इस जेल की ऊंची दीवारों से बाहर निकल जाऊं। वैसे मैं हैरान होती, एकेडमी के अंदर वृक्षों पर रहने वाले जानवर भी उदास रहते थे। चिड़ियों को एक टहनी से दूसरी टहनी पर नाचते-कूदते कभी देखा ही नहीं था, जैसे बचपन में घर में चिड़ियों को कूदते-फांदते देखा था। लगता, जैसे ये सभी परिन्दें भी हमारी तरह अनचाही कैद भोग रहे हों। कभी-कभी मैं चिड़ियों की छोटी-छोटी आंखों में देखने का यत्न करती तो उनमें भी मुझे दहशत ही दिखाई देती। बिलकुल वैसी ही दहशत, जैसी किसी टीचर, खासकर दिलप्रीत मैडम को एकेडमी से बाहर निकाले जाने वाली और अन्य टीचरों और हमारी आंखों में पसरी थी।

एकेडमी में घमती छात्राओं. टीचरों और सेवादारिनों की घमती-फिरती लाशें देख-देख कर मेरा दिल घबराने लगता। कभी-कभी सोचती कि किसी न किसी बहाने सतिंदर तक अपना हाल पहंचा दं। वह अवश्य कहानियों वाले राजकुमार की तरह घोड़ा ले कर आएगा और मुझे इस जेल की ऊंची और दमघोटं दीवारों के पार ले जाएगा। परन्तु संदेश किस के हाथ भेजूं? यहां तो किसी परिंदे को भी बाहर उड़ान भरने की आज्ञा नहीं थी।

जब भी मां मिलने के लिए आती, दिल करता, उसे एकेडमी की वास्तविकता बता कर, यहां से निकाल कर ले जाने के लिए कहूं। परन्तु मां सुनती कहां थी? वो तो पिछली बार से भी अधिक बाबाजी का गुणगान करने लगती। कहती, “बेटी! बाबा जी से मिल कर गए थे। बाबा जी बहुत ही खुश है। वह तो कहते हैं, एकेडमी बनाई इसलिए गई है कि हमारी कौम के बच्चे पढ़-लिख जाएं। कौम के बच्चों को पीछे नहीं रहने देंगे। कौम को आगे ले जाना है। किरनी, बाबा जी तो बहुत खुश है, तुम पर। कहते हैं, ये लड़कियां कौम को समर्पित हो रही हैं। सच में किरनी, मेरा तो दूध सफल कर दिया तुमने।” मां की ना खत्म होने वाली बातें सुन कर मेरे भीतर उमड़ती चीख अंदर ही दफन हो जाती।

एकेडमी में उस दिन वार्षिक दीवान सजाया गया। बाबा जी के चेले ढोलकी-छैनें ले कर ऊंचे-ऊंचे सुर लगा रहे थे। एकेडमी के बच्चे, टीचर्स और सेवादारिनां दीवान में हाजिरी लगाने के लिए पाबंद थे। बाहर से भी कई प्रकार के नेता लोग आमंत्रित थे। एकेडमी के प्रबंधक बाबा लोगों और नेताओं की सेवा में मगन थे। पत्थर सेवादारिनां भी लंगर की सेवा में जुटी हुई थीं।

बाबा जी के एकदम सफेद चोगे वाले चेलों ने सुर साधा,

जिंद जमां तां फड़ी नी रहिणी

जुडजू हवा बणके….।”

मेरी जिंद के हवा बनने का यही दिन था। सभी से आंख बचा कर मैं एकेडमी के गेट से बाहर आ गई। पास से गुजरते मोटरसाइकिल सवार को हाथ देकर रोका और सीधे बस अड्डे आ गई। अड्डे में खड़े होकर गांव के लिए बस की प्रतीक्षा करना खतरे से खाली नहीं था। जो भी बस आई, मैं उसी में चढ़ कर अड्डे से दूर निकल गई।

सब कुछ एक सपने के मानिंद घट गया।

मुझे अचानक घर के आंगन में देख कर मां के हाथ से बर्तन छूट गया। वह हक्की -बक्की रह गई।

“मैं ही हूं…।”

“तुम …यूं…अकेले कैसे आ गई…। खाली हाथ..एकेडमी ….किरनी। बाबा जी…शमशेर सिंह…कैसे आई? ठीक तो है?” मां के हाथ कोई सिरा नहीं लग रहा था।

“खाली हाथ क्यों? ये देखो मैं अपनी डिग्रियां ले आई हूं।” मैं अपनी सारी ताकत एकत्रित करके अपनी कमीज के अंदर छिपाए हुए सर्टिफिकेट निकाल कर मां के सामने फेंक दिए।

“किरनी…।”

“किरनी तो मर गई वहीं एकेडमी में…एकेडमी में ही…।”

मां के पल्ले कुछ पड़ नहीं रहा था। बस वह इतना समझ गई थी कि बेटी अपनी मर्जी से एकेडमी को कहीं दूर छोड़ आई है।

“बेटी! ऐसा क्या होनी हो गई? तुम अचानक…?”

मां चारपाई पकड़ कर बैठ गई। मेरा जी चाहा, कहूं, “मां अनहोनी तो उसी दिन घट गई थी, जिस दिन मुझे एकेडमी में दाखिल करवाया गया था।” मगर मैंने कुछ न कहा।

“हाय हमारी किस्मत! लगता है हमारे लेख धोखा दे गए। पक्की फसल पर गड्ढे पड़ गए। किरनी, तूने दूध को लाज लगा दी। क्या मुंह दिखाएंगे बाबा जी को? तुम ने तो धर्म को ही धक्का दे दिया।” मां पागल होने लगी। उसके तो जैसे सारे ही सपने मिट्टी में मिल गए थे।

“हाय पुत्तर! बताओ तो बात क्या हो गई? किसने तुम्हारी अक्ल पर पर्दा डाल दिया? क्या बुरा किया एकेडमी वालों ने? पांच साल तक पढ़ाया-लिखाया। तूने सब मिट्टी कर दिया।”

मैंने कुछ नहीं कहा।

“इतनी बड़ी भूल? हम तो किसी को मुंह दिखाने लायक ही नहीं रहे। मास्टर शमशेर सिंह को क्या बताएंगे? लोगों के मुंह कैसे पकड़ेंगे? साग-संबंधी वाले सौ-सौ बातें करेंगे।” मगर मैं तो पत्थर बनी खड़ी थी। मां मुझे झिंझोड़ कर पूछ रही थी।

“मैं और तेरा बापू कल ही तुझे कैडमी छोड़ आएंगे। बाबा जी से अपनी गलती की क्षमा मांग लेंगे। मास्टर शमशेर को साथ ले जाएंगे।”

“मां! फिर कभी एकेडमी का नाम मत लेना। जीते जी मैं कभी वहां नहीं जाऊंगी।” मैंने चीख कर अपना फैसला सुना दिया। मां रजाई में बैठ कर रोने लगी। घर में उदासी पसर गई।

मां का संदेश मिलते ही मौसी सतिंदर को साथ ले कर आ गई। कितना सुंदर नौजवान लग रहा था। भरा-भरा शरीर। लाल सुर्ख रंग। तेजस्वी ललाट। मशाल सी जलती आंखें। आंखों में उमडते चाव। परे पांच साल के बाद मैं उसे देख रही थी। कितनी उमंग रहती थी, उसके आने पर। बहाने से उसके आसपास घूमती थी मगर अब उससे आंख मिलाने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे देख कर मैं और भी अधिक उदास हो गई।

“पुत्तर किरन! तेरे एकेडमी वाले बाबा जी का हम मुकाबला नहीं कर सकते। लोग तरसते हैं एकेडमी में दाखिला लेने को। तुम्हारी तो किस्मत ही बहुत अच्छी थी, जो तुम्हें वहां दाखिला मिल गया। देखते-देखते ही पांच साल निकल गए। पलक झपकने समान ही। मुझे तो पास-पड़ोस बधाई देते हुए थकते नहीं थे। सभी कहते, गुरमेल तुम्हारी भानजी का बहुत अच्छा हो गया। जिन्दगी बन गई उसकी तो।” मौसी ने असल बात की ओर आने से पहले भूमिका बांधना जरूरी समझा।

“किरन पुत्त! तेरे एकेडमी छोड़ कर आ जाने से मन बहुत दुखी हुआ। मैं तो खाना ही नहीं खा पाई। यह तो पुत्त, जग-हंसाई की बात हो गई। मैं तो बात सुनते ही सतिंदर को अपने साथ खींच लाई। मैंने सतिंदर से कहा, तुम समझाना किरन को।” मैं अब समझी, मुझे इमोशनेल ब्लेकमेल करने के लिए मौसी सतिंदर को अपने साथ लाई थी।

“मेलो, यह तुमने बहुत अच्छा किया कि तुरन्त आ गई। हमें तो यह कोई बात नहीं बता रही। मैंने माथा पीट लिया मगर कुछ नहीं बता रही। अब तुम्हीं समझाओ इसे।”

“बहन, तुम चिन्ता मत करो। हम आ जो गए हैं। मैं और सतिंदर खुद बात कर लेंगे इससे। सतिंदर तो उसी समय तैयार हो कर साथ चल दिया। कहने लगा, चाची, मैं बात करूंगा किरन से।” मौसी सतिंदर को आगे कर रही थी। मैं पैर के अंगूठे से मिट्टी खुरच रही थी। सतिंदर के नाम से मेरे भीतर पहले की तरह कोई हलचल नहीं हुई। पहले जब भी मैं मौसी के मुंह से सतिंदर का नाम सुनती थी तो पूरे शरीर में झुनझुनी सी होने लगती थी। मौसी मेरी हालत को जानती थी। वह बहाने से सतिंदर का जिक्र मेरे सामने छेड़ती रहती थी। तब मैं भी मौसी से ऐसे बातें पूछती थी, जिससे किसी न किसी बहाने से सतिंदर का जिक्र आ जाए।

“किरनी पुत्त! दुनिया नौकरियों के लिए कई प्रकार से हाथ मारती है। लोग गठरी नोटों की उठाए घूमते हैं। हमारे अपने एक रिश्तेदार का लड़का एम.ए.-बी.एड. किए बैठा है। पांच साल हो गए। मगर नौकरी नहीं मिली। बहुत कोशिश की। लीडरों को भी बहुत पैसा लुटाया। तुम्हें तो अच्छी-भली नौकरी मिल गई, बी.एड. करते ही। तुम रिजक को लात मार कर आ गई। ऐसे मौके कहां मिलते हैं रोज-रोज? पुत्त! हाथ आए मौके को यूं गवाना नहीं चाहिए।” मौसी का उपदेश जारी था।

“फिर तुम तो गुरु की सिखी से जुड़ गई थी। गुरु से जुड़ने पर वंश तर जाते हैं। यह सतिंदर से पछो. मैं तो अक्सर घर में यही बात करती रहती हूं कि अगले बरस बारहवीं क्लास के बाद अपनी बेटी पाल को मैं किरनी के पास बाबा जी की एकेडमी में भेज दूंगी।” मौसी बार-बार सतिंदर को बीच में घसीट रही थी।

उस दिन देर शाम तक मौसी अपने प्रवचनों के बावजूद मुझ से हां नहीं करवा पाई। सारा समय मौसी बोलती ही रही। बीच-बीच में कुछ बोल कर सतिंदर भी अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना अपना फर्ज समझ रहा था, “किरनजीत! आप बहुत लकी हो। ऐसी एकेडमी में स्टडी करने का मौका मिलना। फिर साथ ही साथ प्लेसमेंट भी हो गई। रियली यू.आर. लकी।” सतिंदर ने धीमे स्वर में कहा। मैं कहना चाह रही थी, “भगवान करे, मेरा जैसा लकी और कोई न हो।” मगर मैं चुप रही। आवाज मेरे गले से निकल ही नहीं रही थी।

मौसी बोलती रही। मां चिढ़-चिढ़ करती रही। सिर पकड़ कर बैठ गई। घर के बाकी सदस्य मायूस चेहरे ले कर दूसरे कमरे में बैठे थे। सभी मेरे मुंह से ‘हां’ सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे मेरे परिवार की जान मेरी हां में ही अटकी हो। थक-हार कर शाम को मौसी अपने घर जाने की तैयारी करने लगी।

“किरन, तुम समझती क्यों नहीं हो? यह सतिंदर तुम्हारे साथ खड़ा है…। पुत्त, यह नौकरी तुम्हारी जिन्दगी बदल देगी। तुम्हें मालूम है, इस नौकरी के सहारे ही तुम अपनी पसंद के साथी का हाथ थाम सकती हो।’ मौसी ने अपना आखिरी तीर भी चला दिया।

“हाय मेरे मां-बापू! आपको कैसे समझाऊं, तुम्हारे बाबाओं की एकेडमी ने मुझे किसी साथी का हाथ थामने लायक छोड़ा ही कहां है?” मेरे भीतर से एक लंबी चीख निकली और मैंने कमरे में जाकर दरवाजा जोर से बंद कर दिया।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’