Motivational Story in Hindi: पूस की स्याह रात आसमान पर मानो किसी ने कालिख पोत दी हो।चांद का दूर-दूर तक पता नहीं था।बीच-बीच में तारे टिमटिमा रहे थे। रमिया की झोपड़ी में दीपक टिमटिमा रहा था।झोपड़ी कई जगह से टूट चुकी थी। फूस की बनी छत कई जगह से उखड़ चुकी थी और उसे उखड़े हुए हिस्से से आसमान साफ़-साफ़ दिख रहा था। कोहरे में लिपटी सर्द रात में एक ज़रा से ख़ुटके से रमिया के कान खड़े हो जाते।वह बड़ी उम्मीद के साथ बार-बार दरवाजे के पास जाती और वापस लौट आती।तभी रमिया का बेटा मोहन ने कहा
“माँ! कुछ खाने को दो न.. दो दिन हो गए पेट मे अन्न का एक दाना भी नहीं गया,बहुत भूख लगी है।”
मोहन सुबह से खाने की रट लगाए था।कोई न कोई बहाना करके वह उसे टालती जा रही थीं पर कब तक मोहन के सब्र का बाँध टूट चुका था।भूख का कोई माई-बाप नहीं होता।भूख न दिन देखता है न रात,भूख न गर्मी देखता है न जाड़ा…भूख तो सिर्फ़ सब्र देखता है पर वह सब्र भी अब टूटने लगा था।
“माँ!क्या सोच रही हो।मेरी बात सुन भी रही हो?”
रमिया सोते से जागी पर रमिया करती भी तो क्या…वह घर के सारे बर्तन टटोल चुकी थी।मोहन के बापू भी न जाने कहाँ रह गए।भूख से मोहन का चेहरा उतर का इतना सा हो गया था।
“हाय मेरा बेटा…”
रमिया की रुलाई छूट गई।जब पैदा हुआ था तब कितना सुंदर और स्वस्थ हुआ था।रमिया की सास कहती थी।
“बहुरिया बचवा को लेकर इधर-उधर मत डोला कर नजर लग जाएगी।”
रमिया बात को हँसी में उड़ा देती।सच ही कहती थी अम्मा नज़र ही तो लग गई तो उसके लाल को सूख कर कांटा होता जा रहा था। मोहन ने रमिया को कंधे से झिंझोड़ा,आँसू की दो बूँद उसके गालों पर टप से टपक गई।उसने झट से उन आँसुओं को अपने आँचल में समेट लिया।
“सब्र कर बेटा,तेरे बापू आते ही होंगे। साहूकार से पैसे लेने गए हैं, फिर तेरी पसन्द की हर चीज़ बनाऊँगी “
“सब्र!तीन दिन हो गए माँ बापू को शहर गए हुए।बापू अभी तक नही आए।आखिर कब आएंगे बापू?”
मोहन ने खीझकर कहा,रमिया ने उसके बिखरे हुए बालों में हाथ फेरते हुए कहा
“इस साल बड़ी अच्छी फसल हुई है तेरे बापू कह रहे थे साहूकार अच्छा पैसा देगा..बस आते ही होंगे।तू चिंता न कर।”
कहने को तो कह दिया पर अब तो रमिया को भी चिंता होने लगी थी।तीन दिन हो गए थे मोहन के बापू को शहर गए हुए पर उनका अभी तक कोई पता नही था।मोहन भूख से बिलबिला रहा था।भूख तो उसे भी बहुत लगी थी पर वह बड़ी,माँ और सबसे महत्वपूर्ण बात की वह एक औरत थी।सब्र करना उसे बचपन से सीखाया गया था।रमिया बगल वाली काकी से मुट्ठी भर आटा ले आई।सबका तो एक ही जैसा हाल था।कभी-कभी लगता पूरे गाँव की किस्मत गरीबी और लाचारी की कलम से लिखी गई है।
रमिया ने मुट्ठी भर आटे को बर्तन में डाला और एक लोटा पानी ऊपर से डाल दिया।आटे का एक छोटा तालाब सा बन गया।रमिया ने अपनी उँगली से घूमना शुरू किया।आटे में एक भँवर सा बन गया।रमिया सोच रही थी उसकी जिंदगी उस भँवर में डूब-उतरा रही थी।आटा पानी मे घुल चुका था।रमिया ने आटे का वह घोल मोहन को दे दिया।मोहन गुस्से से चीख उठा।
“नहीं अब और नहीं.. कितने दिन हो गए भरपेट खाये हुए। कुछ खाने दो न माँ… “
मोहन की आँखें दर्द से भीग गई,तीन दिन में उसका चेहरा कितना छोटा सा हो गया था।कुछ दिन पहले उसको टी बी निकल आई थी,डॉक्टर ने अच्छे से इलाज कराने को कहा था।
“रमिया! दवाई समय-समय पर देती रहना और इसे अच्छा खाना खिलाओ,देखो कमजोर शरीर बीमारियों का घर होता है।”
अच्छा खाना!अच्छा खाना कहाँ से लाती वो… यहाँ जीने के लिए खाना मुहैया करना मुश्किल था फिर ऐसे में अच्छा खाना कहाँ से लाती।आधी रात में मोहन की तबीयत बिगड़ती चली गई।रमिया दौड़ कर बगल वाले काका को बुला लाई, इतनी रात में वो कहाँ जाती..घबराहट से उसके हाथ-पांव फूलने लगे।गाँव में हल्ला मचा गया,न जाने कौन भला मानुष वैध जी को ले आया। रमिया की झोपड़ी के आगे लोगों की भीड़ जमा होने लगी।बाहर एक अजीब सा कोलाहल मचा हुआ था,पर अंदर सब कुछ शांत हो रहा था।वैध जी ने सबको चुप होने को कहा…मोहन की पतली सी कलाई को थामे वैध जी उसके जीवित होने के सबूत को ढूंढने की कोशिश करने लगे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
मोहन की सांसे उखड़ने लगी पसलियां चलने लगी।मोहन की नब्ज डूब रही थी, वो बेहोशी में चिल्ला रहा था,” माँ देखो न बापू आ गए,बापू मेरे लिए कितना सारा सामान लाये हैं पूरी,कचौरी, जलेबी और वो बड़ी वाली बालूशाही भी…रमिया हाथ जोड़े आँखें मुदे अपने इष्ट को मनाने में जुटी थी पर न जाने क्यों आज ऊपरवाला भी निर्मोही हो गया था। सच कहते हैं मोहन के बापू गरीबों की सुनता कौन है।सूरज की पहली पौ फटने के साथ सूरज तो उगा पर मोहन का जीवन डूब गया।
अखबार के पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था..इस साल रिकॉर्ड तोड़ फसल हुई,सरकार निर्यात करने की सोच रही,वही अखबार के तीसरे पन्ने पर दो खबरें और भी थी, भूख से बच्चे की मौत और उसी गाँव के एक शख्स ने गांव के बाहर पेड़ से लटककर अपनी इहलीला समाप्त की। लाश दो दिन पुरानी बताई जा रही है।आंगन में बेटे और पति की लाश पड़ी थी, रमिया की आँखों के आँसू सूख गये थे। वो एकटक अपने पति और बेटे को देख रही थी।भगवान ने उसका सिंदूर और कोख उजाड़ दी थी।बेचारी…भीड़ में से एक आवाज आई।बेचारी ही तो थी वो…बचपन मे गरीबी के कारण पिता को खोया और अब सन्तान और पति को…रमिया पत्थर हो गई थी। आँसू का एक कतरा उसकी आँखों से न टपका,
“रो ले बिटिया!कब तक ऐसे बैठी रहेगी…रो ले जी हल्का हो जायेगा।”
काकी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर हिलाया …पर रमिया धप्प की आवाज के साथ जमीन पर लुढ़क गई। उसकी सांसे तो कब का टूट चुकी थी।सब्र कहीं किनारे बैठा अपना सर पिट रहा था।
