उन्होंने तनिक पीछे को झुककर चश्मे की कन्नी से उसकी तरफ फिर एक नजर मारी। वह अब भी उसी तरह लिखने में मसरूफ दिख रहा था। दिख रहा था, क्योंकि इतनी दूर बैठीं वे पूरी तरह ठीक से नहीं जान पा रही थीं कि उसने अब तक अपने सामने फैले कागजों पर कुछ लिखा भी था या नहीं, पर कलम बाकायदा उसके हाथ में दिखती रही थी और वह थोड़ी-थोड़ी देर में लंबे अंतरालों के लिए खिड़की के बाहर दृष्टि गड़ाए शून्य में ताकने लगता था।
खुली बाल्कनी में अपनी पुरानी बेंत की आरामकुर्सी पर अधलेटी, धूप सेंकतीं वे उसको अच्छी तरह देख भी नहीं पा रही थीं। ढलती धूप सीधी उनकी आंखों पर पड़ रही थी। उसके कमरे की तरफ धूप सीधी नहीं पड़ती। फिर वह खिड़की के ठीक सामने लगी मेज पर कोहनियां टिकाए आगे को झुका कुछ इस तरह बैठा था कि उसकी पीठ और दाईं तरफ का आधा चेहरा ही वे देखा पा रही थीं। खिड़की की छड़ों से छनती प्रकाश की तिरछी चादर से उसके चेहरे, छाती और बांहों पर सफेदी की बहिर्रेखाएं-सी खिंच आई थीं और पृष्ठभाग कमरे के अंधेरे में डूबा-सा।
वे तनिक कांपीं।
कैसा लग रहा था अज्जू।
अपने ही खींचे किसी छायाचित्र (सिल्हूट)-सा! रहस्यमयता के किन्हीं घेरों में डूबा-सा।
कुछ तो जरूर हुआ है। ईरा के पास से लौटा है, जब से ही ऐसा अनमना है। उनका जी हुआ कि उठकर धीरे-से उसके पास चली जाएं। उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए उसे सहलाएं और उसका चेहरा हथेलियों में भर अपनी तरफ मोड़ते हुए पूछें कि ‘अज्जू, आखिर तुझे हुआ क्या है?’ लेकिन जवान-जहान बेटे और उनके बीच पूछने-बोलने का वह सहज रिश्ता अब रहा कहां था कि इतनी सहजता से वे कुछ भी पूछ लेतीं उससे और वह बता ही देता! उसके तो करीब पड़ते ही उन्हें ऐसा संकोच होता था, जैसे अपना जाया न हुआ कोई पराया मर्द हो गया। संवादहीनता की ऐसी दीवारें माता-पिता और संतान के बीच कब आ खड़ी होती हैं, यह भी तो एक रहस्य ही है।
यही तो अज्जू था, जो उनकी एक छाती को मुंह में भरे, दूसरी को अपनी नन्हीं हथेली से मसोसता रहता था। गू-मूत समेटती रही थीं इसका। बरसों इसे नंगा नहलाती रही थीं और आज इससे एक बात पूछते भी ऐसे कांप रही थीं कि…
पिछली बार नौकरी छूटी थी तो भी कुछ-कुछ ऐसा ही गुमसुम हुआ रहा था कितने ही दिनों। तब भी उसने एक शब्द भी नहीं बताया था उन्हें। ईरा से या आए-गए दोस्तों-यारों से ही पता चला था कि मालिकों से लड़-झगड़कर ऐसी ऊंची नौकरी पर लात मार आया था। कितनी उमड़-घुमड़ मची रही थी, उन दिनों भी उनके मन में। आखिर हुआ क्या होगा, जो ऐसी अनबन हो गई अचानक ही उनसे। उनके साथ तो इसकी उठ-बैठ थी, दोस्ताना रिश्ते थे। ईरा ने ही बताया था तब कि, ‘बीजी, बेहद करीब हो आया था यह उनके। इतना कि पूरी तरह हावी होने लगे थे वे इस पर। काम करने की कोई आजादी ही नहीं रही थी। उनकी इच्छाओं के हाथों कठपुतली बना कब तक निभाता! आप नहीं जानतीं, बीजी, ज्यादा करीब आना किसी के लिए हमेशा घातक ही होता है रिश्तों की दीर्घता के लिए…’
ईरा से तब यह पूछने का भी कितना मन किया था कि, ‘तुम दोनों का रिश्ता भी तो कितना करीबी हो चला है। बता तो री छोकरी, क्या अंजाम होने वाला है इसका भी…’
उन दोनों का रिश्ता सचमुच ही उनकी समझ में नहीं आ रहा था। पिछले पांच-सात सालों से उस लड़की को अपने घर में आता-जाता देख रही थीं। कभी अकेली आती, कभी अजय और अपने साझे दोस्तों-मित्रों के साथ। इस इतने बड़े शहर में निपट अकेली रहती थी। न मां, न बाप, न कोई भाई-बहन। अपना अलग, अकेला फ्लैट ले रखा था। अजय कभी कई-कई दिनों के लिए घर से गायब रहता तो फोन नंबर उसी का देकर जाता था। बताने में कोई शर्म भी महससू नहीं होती उनको कि एक ही छत के नीचे दिन-रात बिताते थे। खुलेआम कहते-फिरते कि एक-दूसरे को चाहते हैं। ब्याह-व्याह क्या! अभी तो आजमाना है एक-दूसरे को।
यह चाहना और आजमाना क्या होता है, उन्हें तो अपनी पूरी जिंदगी बिताकर समझ नहीं पड़ा। गली में बैठ सहेलियों के साथ गीटे खेला करती थीं तो शादी हो गई। किसी निपट अजनबी के साथ दुलहिन बनाकर विदा कर दिया गया। अब वह जैसे भी रखे। अच्छा-बुरा जो भी हो, देवता था। पति परमेश्वर! बेवा होने तक वही मानती आई थीं उसको। हर साल बेनागा उसकी दीर्घायु की कामना करतीं, दुनिया-भर के व्रत-उपवास मनाती रहीं। एक के बाद एक सात बच्चों को जना। अजय यह, आखिरी संतान उनकी। मर्द की इच्छा और आदेश पर अपनी देह को सौंपने को लेकर भी औरत के मन में कोई दुविधा हो सकती है, इसका तो भान भी उन्हें कभी नहीं हुआ। बच्चों को पालन और घर-बार की देखभाल करना गुलामी थी या फर्ज, इसका फर्क न उन्हें कभी मालूम था, न महसूस हुआ।
और आज, ये ईरा और अजय!
कहां से लाते हैं ये इतनी बातें! किस बात पर लड़ते-झगड़ते हैं पागलों की तरह। किस उदासी और अकेलेपन की कहानियां लिखते-लिखते भर देता है यह लड़का पन्ने-के-पन्ने और यह ईरा! उल्टी-सीधी, तमाम बेसिर-पैर की इतनी तस्वीरें बनाया करती है….
कहती है नारी-मन के सूक्ष्मतम भावों को चित्रित करती है अपनी तस्वीरों में।
एक बार ले गई थी अपनी कोई प्रदर्शनी दिखाने। बड़ा-सा हाल, पूरी बड़ी-बड़ी तस्वीरों से भरा। अनगिनत रूपों में औरत! तिरछे खड़े पानी पर डूबती-उतराती औरत, आकाश में उलटी टंगी खड़ी औरत। उड़ने को आतुर पंखकटे पंछी-सी औरत, जंतुओं के सींगों और आंखों वाली गदराए बदन की औरतें, दुर्गा-सी दबंग औरतें, काली-सी निठुर, कठोर संहारक औरतें, सिर्फ औरतें ही औरतें।
औरत क्या आज के युग में इतनी महत्वपूर्ण हो आई।
‘आप नहीं समझेंगी, बीजी, आपके युग की औरत को गुलामी की सूंघनी सुंघाकर चेतनाशून्य कर रखा था मर्द ने। उसके तन-मन को सम्मोहित किया हुआ था उसने अपने ही हक में। औरत उसके लिए महज एक…’
‘फिर भी सब कुछ चल तो रहा था ठीक-ठाक!’
‘क्या ठीक-ठीक चल रहा था। अतृप्त इच्छाओं वाली असंतुष्ट औरतें। मर्द से जो मिलना चाहिए औरत को, वह बेटों से हासिल करने को व्याकुल। ये जो आए दिन सुनते हैं, हम-आप, बहुओं को जलाने की खबरें, क्या हैं ये? सदियों से दबाई-सताई गई औरत के मन की भड़ास नहीं तो क्या है?’
‘चलो, तुम्हारी पीढ़ी तो खुशनसीब है न! आजाद हो तुम लोग तो अपनी मनमानी करने के लिए….’
‘हमारी पीढ़ी? आजाद? एकाध पीढ़ी में नहीं बदलने वाला इस मुल्क की औरत का नसीब, बीजी। कहां की आजादी, हमें भी? सब ऊपरी दिखावा! कैसी आजादी! जब तक पुरुष भी नहीं बदलता अपना रवैया?’ व्यंग्यात्मक-सी हंसी हंसते हुए उसने आगे बढ़ने को उन्हें हाथ का सहारा दिया, ‘आइए! यह पेंटिंग देखिए। अहल्या की। अहल्या के मायने जानती हैं आप। तन और मन से प्यासी औरत, जिसके मन और शरीर को हला नहीं गया, सींचा नहीं गया। उपेक्षित औरत। सदियों से पथराई। किसी मर्यादा पुरुषोत्तम, किसी आदर्श पुरुष के स्पर्श की प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी…’
आदर्श पुरुष?
उन्होंने तो सिर्फ पुरुष को ही जाना था। एक ही पुरुष को, पति के रूप में। आदर्श था या नहीं, यह तो कभी उनके खयाल में आया ही नहीं। वह मर्द था, वे औरत थीं। बस इतना ही। तन और मन की प्यास का भी कब सोचा। मन की बात किसी ने उनके जानने की कोशिश ही कब की? न कभी कोई सलाह, न मशविरा! उन्हें उसके काबिल ही कब समझा गया? और देह की प्यास? अंधेरे के पर्दे में वह आता और अपना हक लेकर चला जाता। देह के सुख का अधिकार औरत को भी हो सकता है, यह बात तो कभी सपने में भी न सूझी। हां, देह के अस्तित्व का एहसास तो होता रहा, फिर भी। चचेरा देवर निक्का अज्जू के बाऊ से दो ही साल तो छोटा था। गोदाम की चाबियां पकड़ते या लस्सी का गिलास थामते उनकी अंगुलियों को जरूर छू देता। कैसी फुरफुरी-सी उठती थी तब उनके मन में। बिल्ली-बिल्ली आंखें, घुंघराले केश। देखने में भी तो कैसा जंचता था। कई बार उनका जी होता कि…! छि:-छि: धिक्कार उठती उनकी अंतरात्मा- पति के सिवाय किसी और पुरुष का सपने में भी ध्यान करना पाप था, पर सचमुच के सपनों का भी क्या करतीं? सपनों से ही तो बोध हुआ था उन्हें कि अज्जू के बाऊ के मुंह से उठती दुर्गंध नथुनों में घुसते ही स्फुरित होती गई उनकी देह हठात ही काठ की हो जाती। नींद में देखे सपनों पर भी उनका आखिर क्या बस! निक्के को सपनों में कितनी ही बार नहीं देखा था उन्होंने अपनी देह पर झुके, कितनी नर्मी से, कितनी मृदुता से जैसे पूज रहा हो उन्हें। आंख खुलते ही उनका हृदय ग्लानि से भर उठता। बदन पसीना-पसीना हो जाता। हो न हो, पाप किया था उन्होंने। पूरे दिन मुंह छिपाती फिरतीं। कहीं पता न लग जाए किसी को।
और एक यह ईरा!
इसे न किसी की शर्म, न हया!
पहली बार देखा था तो हैरान रह गई थीं उसके व्यवहार को देख। न दुआ, न सलाम! सरसरी नजर डाली उन पर और सिगरेट का धुआं उड़ाती घुस आई अज्जू के कमरे में, जैसे अज्जू की मां न हुई, कोई भूत-प्रेत हुईं वे, कोई अनचाही, अनपेक्षित उपस्थिति। अज्जू ने शायद बताया न होगा कि मां थीं वे उसकी! वैसे भी उसे परवाह ही क्या थी उनकी! वे हुईं, न हुईं। इस उम्र में भी, अपनी तमाम शारीरिक लाचारियों के बावजूद घर संभालती थीं उसका, क्योंकि बेटा था वह उनका, पर उसने तो नहीं जाना बेटे का फर्ज। बुढ़ापे में ऐसे ही व्यवहार करते हैं अपने लाचार मां-बाप से। बस एक ही तरह का निबाह जानते हैं ये लोग, औरत से। क्योंकि उससे….! खैर, वह भी तरीके से हो तो कुछ समझ भी पड़े। शादी-ब्याह करे आदमी, घर बसाए अपना, पर वो तो नहीं….. सिर्फ…..! पूछो तो कह देगा, ‘जल्दी क्या है?’
यह जो अपना ही घर समझकर घुसी रहती थी सारा दिन, लाकर क्यों नहीं रख लेता इसी को, तौर-तरीके से, कानूनन! उन्हें कोई एतराज नहीं होगा। अब तो उसको मोहमाया भी पड़ गई थी उनसे। अजय की अनुपस्थिति में भी आ बैठती थी उनके पास। ऐसे खुल गई थी उनसे कि अपनी जिंदगी की गोपनीय बातें भी दोस्त-यारों की तरह उन्हें बताने लगती, ‘विश्वास करेंगी आप, बीजी, मैं बिल्कुल ही भोली-भाली-सी थी, एकदम बेवकूफ, जब मेरी शादी हुई। अठारह की भी तो नहीं हुई थी। मां-बाप ने ऊंचा घर-परिवार देखा, लड़के का ओहदा देखा, बस मढ़ दिया मेरे मत्थे, कहीं हाथ से ही न निकल जाए। उम्र में मुझसे दोगुना बड़ा। न मेरे दिल की कोई बात समझे, न अपने मन की कुछ करने दे। घर पर तो तितली-सी आजाद फिरा करती थी। न किसी चीज की मनाही, न कोई बंदिश! वहां पर तो हर कदम फूंक-फूंककर धरो, आज यह नहीं करना, तो कल वह नहीं। सारे नीति-नियम मेरे ही लिए। एक ओर ससुराल वालों की गुलामी, दूसरी तरफ मियांजी की फरमाइशें, वह जब चाहे… सच कहूं बीजी, आई हेटेड हिम, घिन आती थी मुझे उससे। और सब तो सहती रही, पर जब हाथ उठाना शुरू किया उसने मुझ पर तो बस मैं मायके लौट आई। एक बार लौटी तो फिर मुड़कर नहीं गई वापस। तलाक के कागज भी मुआ वही साइन कराने आया। चलो पीछा तो छूटा। एक ही पछतावा रहा कि उसने मुझे एक बच्चा तक नहीं…’
बेशर्मी की भी हद हो गई।
पिछले हफ्ते आई तो उनके घुटनों पर सिर रख जमीन पर बैठ गई। फिर उनके हाथ को अपने हाथों में ले उनकी आंखों में झांकते हुए बोली, ‘बीजी, मैंने एक नई पेंटिंग बनाई है- औरत की।’
ऐसी बहकी-बहकी बातें तो वह अक्सर ही किया करती थी, पर जिस तरह उसने कहा, ‘मेरी एक इच्छा तो पूरी हुई…’
शक तो इन्हें पहले से ही था, उसकी चाल-ढाल देखकर, लेकिन अचंभित-सी वे उसके मुंह की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगीं। उसे कहते हुए लाज न आई, पर वे तो संकोच से गड़ी जा रही थीं पूछते कि क्या अज्जू…
अज्जू घर आया तो हिम्मत कर इतना तो पूछ ही लिया था उन्होंने उससे।
बुढ़ापे में अपनी आखिरी संतान के जरिये यह सब सहना भी बदा था किस्मत में। फिर भी तसल्ली दी थी उन्होंने अपने आपको कि चलो जैसी भी हो, लड़की बुरी नहीं थी, उन्हें चाहती तो थी इतना। बदलते जमाने के साथ जहां इतना ढाल लिया अपने आपको, वहां यह भी सही। अज्जू शायद खुद कहते हिचकिचाए। उन्होंने खुद ही उसे सलाह दी थी कि अब जल्दी ही ब्याह कर लें दोनों!
खुद ही कह-कहाकर भेजा था उन्होंने अज्जू को ईरा के पास। इस वक्त उस बेचारी को सहारा चाहिए था, उन दोनों मां-बेटे का। आश्वासन चाहिए था अपनी सुरक्षा का। आर्यसमाज की रीति से ही सही, छोटा-सा समारोह कर ले जाऊंगी उसे बहू बनाकर। सीढ़ियां चढ़ते-उतरते ऐसा जानलेवा दर्द होता है कि जब तक मुसीबत न टूटे, नीचे नहीं उतरतीं वे। नहीं तो खुद ही जातीं ईरा के पास इस मौके पर।
एक-एक करके अपने सारे जेवर-गहने अपने शादी-शुदा बच्चों को बांट चुकी थीं। यह एक बस कंठी बची थी रुपये के पैंडल वाली। अज्जू के हाथ पर रखते हुए उन्होंने कहा था, ‘बहू को दे देना मेरी तरफ से…’
कल का गया अज्जू आज सबेरे ही लौटा है। जब से बस वैसे ही बैठा है अपनी मेज पर। लिख रहा होता है तो उसे बीच में तनिक-सी बाधा भी नहीं सुहाती।
पर सचमुच क्या लिख ही रहा है वह या…?
लौटकर इतना भी तो नहीं बताया कि क्या-क्या बातें हुई ईरा से। कंठी देखकर क्या कहा उसने? उनसे मिलने कब आ रही है वह? अपने फ्लैट का अब क्या करेगी?
न जाने क्या-क्या उत्कंठाएं, जिज्ञासाएं थीं उनके मन में कितना कुछ जानने की, मगर यह बेटा उनका। पता नहीं कहां का लेखक बना फिरता है। पता नहीं किन इंसानों के दुख-सुख की कहानियां-किस्से लिखता है, जो अपने साथ रहने वाली मां का दुख-सुख नहीं जान पाता, उसके दिल की हलचलों को नहीं बूझ पाता। सिर्फ अपना ही दुख लगता है। स्वार्थी कहीं का।
उनका मन फिर पिघल उठता है, नहीं! है तो कुछ बात जरूर! उसकी यह बुझी-बुझी सूरत उनसे नहीं देखी जाती। क्या हो गया ईरा के यहां ऐसा कि…? कहीं कोई ऐसी-वैसी बात, कोई दुर्घटना…?
उफ, घुटनों का यह दर्द भी। एक बार बैठ गईं तो उठना भी मुश्किल। कुर्सी के हत्थों पर दोनों हाथों का बल देकर वे धीरे-धीरे उठ खड़ी हुईं।
उनकी धुंधली आंखें उसके कमरे की तरफ फिर मुड़ीं। कुर्सी की पीठ पर सिर टिकाए उसने शायद आंखें मूंद रखी थीं। उनके मन में उसके प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा।
उनका स्थूलकाय डगमग शरीर धीरे-धीरे बेटे की तरफ बढ़ने लगा।
पदचाप सुनकर उसकी तंद्रा टूटी। हड़बड़ाकर उठा तो मां को अपने ठीक सामने पाया।
‘क्या हुआ, बीजी?’
इतने निकट से उसका मुकाबला करने का पूर्वानुमान उन्होंने नहीं किया था। तनिक हड़बड़ाती-सी बोलीं, ‘क्या हुआ… क्या हुआ है तुझे कि…’
कुर्सी से उठकर वह खड़ा हो गया, मानो उनका सामना करने की प्रत्याशा उसने भी नहीं की थी। नजरें नीची किए-किए ही धीरे से बोला, ‘आप नहीं समझ पाओगी, बीजी।’
फिर एकदम ही मेज का दराज खोल गाड़ी की चाबी निकाली। कुर्ते की जेब को टटोलते हुए उसने कुछ बाहर निकाला और मेज पर पटकते हुए कहा, ‘लौटा दी है उसने यह… आपकी कंठी!’
वह तेजी से बाहर निकलने को हुआ। दरवाजा भेड़ने से पहले वह मुड़ा और जोर से चिल्लाया, ‘कहती है बच्चा सिर्फ उसका है, सिर्फ उसका अपना… मैं उस पर अपना कोई हक जताने की कोशिश न करूं… ब्लडी विच। औरत नहीं, पत्थर की सिल्ली है वह…’
ठगी-सी वे उसकी खाली हुई कुर्सी को थाम उसको जाता हुआ देखती रहीं। तार-तार हुआ उनका मन पता नहीं किसके लिए तड़प रहा था- ‘क्यों नहीं समझूंगी, पुत्तर, सब समझती हूं। तेरा भी और उसका भी। पत्थर की सिल्ली को भी क्या दोष दूं! तू भी तो नहीं बन पाया होगा मर्यादा पुरुषोत्तम, जिसके स्पर्श से जाग उठती वह पत्थर की शिला!’
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