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bhootnath by devkinandan khatri

खासबाग में महल के अन्दर जो कमरा बहुरानी के लिए मुकर्रर था उसमें इस समय सिवा बहुरानी के कोई दूसरा दिखाई नहीं देता, यहाँ तक कि कोई लौंडी भी उस कमरे मौजूद नहीं है जो जरूरत पर काम आवे। हम आश्चर्य के साथ देखते हैं कि उस कमरे में दीवार के साथ जो आलमारियाँ बनी हुई हैं उनमें से इस समय एक आलमारी कुछ अधखुली-सी मालूम पड़ती है और उसके अन्दर से एक आदमी सर निकालकर उस कमरे की अवस्था को बड़े गौर से देख रहा है।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

आधी रात का समय है, कमरे के अन्दर सन्नाटा छाया हुआ है, केवल एक सुन्दर मसहरी पर बहरानी आराम की नींद सो रही हैं और उसकी नाक से कोमल खर्राटे की आवाज आ रही है। कमरे में पूरब और पश्चिम की तरफ की खिड़कियाँ खुली हुई हैं और पूरब तरफ वाली खिड़की से जो आम की बारी की तरफ पड़ती है, ठंडी-ठंडी हवा आ रही है जिससे बहुरानी की मसहरी का जालीदार नफीस पर्दा दरियाई लहरों की तरह झकोरे ले रहा है। कमरे की दीवारगिरों में से दो में मोमबत्ती की रोशनी हो रही है।

उस आदमी ने जो आलमारी के अन्दर से सर निकालकर झाँक रहा है। देखा कि इस कमरे का सदर दरवाजा जिधर से लोग इस कमरे में आते-जाते हैं, खुला हुआ है मगर जहाँ तक बाहर की तरफ निगाह जाती है कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता।

धीरे-धीरे उस अलमारी के दोनों पल्ले अच्छी तरह खुल गये और वह आदमी जो सिर निकालकर झाँक रहा था और जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी, निकल कर कमरे में दाखिल हुआ। धीरे-धीरे पैर रखता हुआ वह सदर दरवाजे के पास पहुंचा और उसे बहुत धीरे-से बंद करके अन्दर से कुंडी चढ़ा ली और तब उस मसहरी के पास आया जिस पर बहुरानी को जगाया। बहुरानी जब चैतन्य हुई तो अपने सामने एक नकाबपोश को देखकर हैरान हो गई मगर दिल कड़ा करके बोली, “तुम कौन हो जी?”

इसके जवाब में नकाबपोश ने अपने चेहरे से नकाब हटाकर कहा, “देखो और पहिचानो कि मैं कौन हूँ।”

नकाब हटते ही भैया राजा की सूरत देख बहुरानी शरमा गई, मुसकुराती हुई उठ खड़ी हुईं और बोली, “मैं कई दिन से तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ, तुमने तो मुझे ऐसा छोड़ा कि मानो मैं तुम्हारी कुछ थी ही नहीं! ऐसा ही था तो मुझे भी अपने साथ ले जाते, जो कुछ मुसीबत आती उसके झेलने में मैं भी शरीक होती और खुशी-खुशी तुम्हारे साथ दिन बिताती!”

भैया राजा : (मुसकुराते हुए) यह तो ठीक है मगर बिना किसी तरह का बंदोबस्त किये तुम्हें ले जाना क्या सहज बात है? मैं तो मर्द ठहरा, हर तरह पर हर जगह जाकर समय बिता सकता हूँ मगर तुम्हारे लिए तो यह बात नहीं हो सकती। अब मौका देखकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ और खास करके इसलिए आया हूँ कि तुम्हें यहाँ से ले जाऊँ।

बहुरानी : खैर मैं चलने के लिए तैयार हूँ, मुझे अच्छा ही क्या हो सकता है, आराम से बैठो और सुनाओ तो सही कि इधर क्या-क्या मामले हुए? दारोगा कमबख्त को तो तुमने खूब ही छकाया! (दरवाजे की तरफ देखकर) क्या इस दरवाजे को तुमने बंद कर दिया है? मैं तो खुला छोड़ कर सोई थी।

भैया राजा : हाँ, मैंने ही बंद किया।

बहुरानी : अच्छा बैठिए और मेरी बातों का जवाब दीजिए।

भैया राजा : नहीं, मैं इसलिए नहीं आया हूँ कि आराम से तुम्हारे पास बैठूँ और बेफिक्री के साथ तुमसे बातें करूँ, समय बहुत नाजुक है, बस तुम्हें यहाँ से जल्द चल देना ही चाहिए!

बहुरानी : (शोखी से) अब इतनी जल्दी क्या पड़ गई? बैठो तो सही, मैं तो सोचे हुए थी कि अबकी दफे तुम आओगे तो प्रकट रूप में अपने भाई के साथ मिलोगे और खुल्लमखुल्ला दारोगा का मुकाबला करोगे जैसाकि तुमने लिखा था। इस राय को मैं बहुत पसन्द करता हूँ और तुम्हारी भावज साहिबा भी ऐसा ही करने के लिए कहती हैं। उनसे मुलाकात तो कर लो। मैंने उनसे वादा किया है कि अबकी आवेंगे तो तुम्हारा सामना कराऊँगी।

भैया राजा : बेशक् मैं भी ऐसा ही चाहता था मगर अब मेरे दोस्तों की दूसरी राय हो गई है जो इससे बहुत अच्छी है। बस अब तुम किसी तरह का सोच-विचार मत करो और जल्दी से मेरे साथ चलो, किसी को खुटका हो जाएगा तो ठीक न होगा।

बहुरानी : तो क्या बस निश्चय हो गया कि मैं तुम्हारे साथ चली चलूँ?

भैया राजा : हाँ, मैं कहता हूँ कि चलने में जल्दी करो।

बहुरानी : अब इसी तरह ? बिना कुछ सामान लिये!

भैया राजा : हाँ, बस इसी तरह!

बहुरानी : अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलने में खुश हूँ, किस राह से चलोगे?

भैया राजा : जिस तिलिस्मी रास्ते से आया हूँ उसी गुप्त राह से तुम्हें ले चलूँगा। मैं तो इतनी देर भी न लगाता जितनी बातचीत में लग गई है और तुम्हें बेहोश करके अपनी पीठ पर लाद कर जल्दी से ले भागता मगर क्या करूँ रास्ता इस लायक नहीं है। मेरे पीछे-पीछे चली आओ, कुछ दूर तक अंधकार में चलना होगा।

बहुरानी : मैं हर तरह से चलने के लिए तैयार हूँ, चलो।

इतना कहकर बहुरानी तैयार हो गई और भैया राजा के पीछे-पीछे चल खड़ी हुई। भैया राजा जिस आलमारी के अन्दर से निकले थे उसी में अपनी स्त्री को लिए हुए चले गये। भीतर से वह आलमारी बहुत लंबी-चौड़ी थी और उसमें नीचे की तरफ उतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। भीतर जाकर भैया राजा ने न मालूम किस ढंग से दरवाजा बंद कर लिया और नीचे उतरने लगे। आगे-आगे भैया राजा और पीछे-पीछे पीठ पर हाथ रखे हुए बहुरानी जाने लगी, रास्ता तंग और अंधकारमय था मगर सीढ़ियाँ बहुत छोटी थीं इसलिए उतरने में आसानी थी।

बहुत दूर तक नीचे उतर जाने के बाद वे दोनों एक कोठरी में पहुँचे जिसमें एक लालटेन की रोशनी हो रही थी। यह लालटेन भैया राजा ऊपर जाते समय छोड़ गये थे।

इस कोठरी में पूरब और पश्चिम की तरफ से दो दरवाजे थे जिनमें से पूरब तरफ वाला दरवाजा इस समय खुला हुआ था। भैया राजा ने वह लालटेन उठा ली और बहुरानी को साथ लिए हुए उस दरवाजे के अन्दर चले गये। भीतर जाकर उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया। केवल दोनों पल्ला मिलाकर दबाने ही से एक खटके की आवाज हुई और यह दरवाजा मजबूरी के साथ बंद हो गया। अब वे दोनों आदमी एक सुरंग में दाखिल हुए और चुपचाप बहुत दूर तक चले गये। आधी घड़ी के बाद पुन: एक कोठरी मिली जिसका दरवाजा भैया राजा ने एक मुट्ठा घुमाकर, जो उस दरवाजे में लगा हुआ था, खोला। बहुरानी इस दरवाजे के खोलने का ढंग भी अच्छी तरह समझ न सकी क्योंकि मुट्ठा घुमाने में भी कोई खास तरकीब थी।

दरवाजे के अन्दर घुसकर भैया राजा ने लालटेन बुझा दी और अब पुन: बहुरानी को अंधकार में चलना पड़ा। यह बात बहुरानी को अच्छी नहीं मालूम हुई और उसने कुछ चिढ़ कर भैया राजा से कहा, “भला यहाँ पर लालटेन बुझा देने की क्या जरूरत थी? व्यर्थ ही अंधकार में चलाकर तकलीफ देना…!”

भैया राजा : घबड़ाओ मत, यहाँ पर दो-चार चीजें ऐसी हैं जिन्हें देखकर तुम डर जातीं इसीलिए मैंने लालटेन बुझा दी। तुम बेखटके मेरे पीछे-पीछे चली आओ, मगर देखो अगर कुछ दूर तक पानी में चलना पड़ेगा।

वास्तव में यही बात थी। बहुरानी के कान में पानी के बहने की मीठी-मीठी आवाज आई और चन्द कदम चलने के बाद पानी में पैर पड़ा जिससे वह कपड़ा कुछ उठाकर चलने लगीं। मालूम होता है कि सुन्दर चिकने फर्श पर पानी बह रहा हो जो कही बित्ता-भर, कहीं ज्यादा और कहीं उससे कम होगा। वहाँ पर बहुरानी को कई दफा चक्कर लगाना पड़ा और अंत में वह एक चौखट लाँघ कर सूखी जमीन पर पहुँची और पीछे से पुन: दरवाजा बंद होने की आवाज आई।

यहाँ पर भैया राजा ने लालटेन जलाई और बहुरानी को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़े। अब वे दोनों एक मामूली सुरंग में जा रहे थे और रास्ता ऊँचाई की तरफ चढ़ रहा था। कुछ दूर जाने के बाद पुन: एक दरवाजे के पास पहुँचे और जब वह खोला गया तो दोनों आदमी खासबाग के बाहर होकर मैदान में पहुंचे जहाँ ठंडी-ठंडी हवा के झोंके लग रहे थे और एक रथ जिसमें मजबूत घोड़े जुड़े हुए थे सामने खड़ा था।

दरवाजा बंद करने के बाद भैया राजा ने बहुरानी को उस रथ पर सवार कराया और आप भी सवार होकर राथ हाँकने का हुक्म दिया। रथ कुछ दूर निकल जाने के बाद उन्होंने बहुरानी से कहा, “मैं वास्तव में भैया राजा नहीं हूँ, मैं वही दारोगा हूँ जिसे भैया राजा ने बेइज्जत किया था। तुम्हें जहन्नुम की सैर कराने के वास्ते लिए जाता हूँ, ताज्जुब नहीं कि वहाँ बहुत जल्द असली भैया राजा से तुम्हारी मुलाकात हो। बस खबरदार, चिल्लाने की कोशिश मत करना!”

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