gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

दूसरी सुबह अमर घर से निकला तो उसे देखकर पड़ोसी के लड़के ने कहा‒“आदाब अर्ज, अमर भाई।”

“आदाब अर्ज, करीम मियां। आज तुम स्कूल नहीं गए ?”

“अरे, आपको नहीं मालूम ?”

“क्या हुआ ?”

“वह अपने शरीफ चाचा हैं न टेलर मास्टर !”

गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

“हां…हां, उनकी तबियत तो ठीक है ?”

“खुदा का शुक्र है। मगर उनके वहां बड़ा दर्दनाक हादसा हो गया।”

“वह क्या ?”

“उनकी साली का नौजवान लड़का था जफर। अभी चंद दिन पहले ही उसे उसके बाप मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराके गए थे।”

“क्यों ?”

“उसकी तबियत खराब थी। वह समझे यूं ही कुछ हो गया होगा।”

“फिर ?”

“उस बेचारे को ब्लड-कैंसर निकला और कल रात उसका देहांत हो गया।”

“नहीं…।”

अमर ने बनावटी हैरत जाहिर की।

करीम ने कहा‒“बड़े जब्त वाले आदमी हैं। रात को खुद ही जाकर लाश लेकर आए। जफर के बाप को टेलीग्राम भी दे दिया। खुद ही कफन भी सीकर लाश को कफन भी पहना लिया।”

“ओहो…!”

“अब जनाजा गली में रखा है। गली के सारे लोग शरीफ चाचा को बुजुर्ग मानते हैं, उनकी इज्जत करते हैं। किसी ने दुकान नहीं खोली। कोई काम पर नहीं गया।”

“ओहो, कब दफन करेंगे ?”

“बाप का इन्तजार है। अगर आठ बजे की बस से नहीं आए तो दफना देंगे। डाक्टरों ने कहा है कि ज्यादा देर रखा तो लाश से बदबू आने की सम्भावना है।”

“चलो भाई, अच्छा हुआ। तुमने मुझे बता दिया।”

अमर, करीम के साथ उस जगह पहुंचा, जहां जफर की लाश की जगह शौकत की लाश कफन में लिपटी रखी थी।

वहां बहुत सारे लोग जमा थे जो आपस में बातें कर रहे थे। अमर भी एक तरफ खड़ा हो गया और करीम उसके साथ खड़ा हुआ जफर के गुणगान करने लगा।

फिर किसी बड़े-बूढ़े ने जोर से पूछा‒“शरीफ मियां कहां गए हैं, भई। धूप तेज हो रही है। लाश से बदबू आने लगी तो परेशानी हो जाएगी। जल्दी से चलना चाहिए।”

किसी ने जवाब दिया‒“डाकघर से टेलीफोन करने गए हैं मरहूम के बाप को।”

फिर कोई दूसरा आदमी जोर से बोला‒“वह आ गए, शरीफ चाचा।”

बड़े-बूढ़े ने शरीफ से पूछा‒“कर लिया टेलीफोन ?”

शरीफ ने दुखी स्वर में कहा‒“कर लिया ?”

“क्या वह चल पड़े हैं ?”

“उन्हें टेलीफोन मिलते ही दिल का दौरा पड़ गया था। वह हस्पताल में हैं और दूसरे रिश्तेदार कह रहे हैं लाश को वहीं दफना दो।”

“च…च…च…बहुत बुरा हुआ ?”

“जो अल्लाह की मर्जी। मैंने सोचा था कि लाश टैक्सी में अकरोली ले जाऊं।”

“क्या लाभ ? बाप बिस्तर से उठकर आ नहीं सकते। लाश को तुम हस्पताल ले जाकर उन्हें दिखा नहीं सकते। फिर यूं भी अल्लाह ताला का हुक्म है कि मरहूम को जल्दी से जल्दी दफन कर देना चाहिए।”

“तो फिर…?”

“अल्लाह का नाम लो।”

फिर चार जवानों ने मिलकर जनाजा (अर्थी) उठाई। लोग कलमा पढ़ते हुए चल पड़े। जनाजे के बिल्कुल पीछे केवड़े की बोतल, चटाई और रुई लेकर चल रहा था। सबसे पीछे सिर झुकाए हुए अमर चल रहा था।

एक चौराहे से गुजरते हुए अचानक एक मारुति गाड़ी रुकी और अमर के दिल को जोर का धक्का लगा।

किसी ने ऊंची आवाज में कहा‒“ओहो, यह तो शेरवानी साहब हैं।”

गाड़ी से शेरवानी उतरा। उसका सिर खुला हुआ था। उसने रूमाल निकालकर सिर ढंका और फिर जनाजे के जुलूस में शामिल हो गया और जनाजे को कंधा देकर चलने लगा।

कुछ दूर तक कंधा देने के बाद शेरवानी जनाजे से अलग हटकर पीछे आ गया। शरीफ ने उसे अदब से सलाम किया।

जवाब देकर शेरवानी पूछा‒“आपके कोई रिश्तेदार हैं ?”

शरीफ ने दुखी स्वर में जवाब दिया‒“मेरी साली का नौजवान लड़का।”

“ओह, कोई हादसा हो गया था ?”

“ब्लड-कैंसर हुआ था।”

“च…च…च…बहुत दुःख हुआ।”

“अब अल्लाहताला की मर्जी में किसे दखल है ?”

“कब की बात है ?”

“कल ही रात दस बजे की। साढ़े दस बजे मेडिकल से डिस्चार्च किया गया था।”

“हमें बहुत सदमा है। हमारे लिए कोई खिदमत हो तो जरूर बताइए ?”

“आपने पूछ लिया, यही आपकी महानता की निशानी है।”

“अच्छा, हमें आज्ञा दीजिए। हम जरूरी काम से जा रहे हैं।”

“जी…!”

शेरवानी पीछे रह गया। जब जनाजा आगे निकल गया तो वह मुड़कर अपनी गाड़ी की तरफ चला गया और लोग आपस में बातें करने लगे।

“देखो, जरा-सा भी घमंड नहीं है।”

“इतने बड़े आदमी हैं। लेकिन फौरन कार रोककर उतर आए कंधा देने।”

“अरे, एक विधवा के जवान बेटे का एक्सीडेंट हो गया था। दिन रात एक कर दिया भाग-दौड़ में । अपने खर्चे पर दिल्ली मेडिकल इंस्टीट्यूट ले गए। लेकिन वह नहीं बच सका तो उस विधवा के साथ खुद भी रोए। सारे कफन-दफन का खर्चा खुद ही उठाया।”

“बड़े खुदा तरस आदमी हैं।”

“और अपने मजहब के तो कट्टर हैं।”

“किसी मजहबी जगह पर आंच भी आ रही हो तो जान देने पर तुल जाते हैं।

“अब देख लो, दस बरस से तो कब्रिस्तान की चारदीवारी का मुकद्दमा लड़ रहे हैं। क्या मजाल है, जो एक इंच जमीन भी मरघट में जाने दी हो।”

वे लोग शेरवानी की प्रशंसा के पुल बांधते चलते रहे। अमर चुपचाप उनके पीछे-पीछे चलता रहा।

एक आदमी ने कहा‒“अब यही देख लो। बहन जुदाई में विधवा हो गई थीं।”

“हां, उस वक्त उनका बेटा दस वर्ष का था।”

“तब से बहन पर भानजे का बोझ नहीं पड़ने दिया।”

“आज तक भानजे को बेटे की तरह पाल रहे हैं।”

“उनकी अपनी तो कोई औलाद है ही नहीं न।”

“बहुत प्यार करते हैं भानजे से।”

“बिल्कुल सगा बेटा समझते हैं।”

“जरा-सी खरोंच लग जाए तो उसके लिए बेचैन हो जाते हैं।”

इतने में कब्रिस्तान आ गया और लोगों ने जनाजे के साथ भीतर प्रवेश किया।

अमर ने अमृत को रेस्टोरेंट में प्रवेश करते देखकर वेटर से कहा‒“एक चाय और लाओ।”

“जी, साहब !”

अमृत अमर के सामने कुर्सी पर बैठ गया। अमर की चाय पहले ही सामने रखी थी।

उसने अमृत से सम्बोधित होकर पूछा‒“किसी ने इधर आते हुए देखा तो नहीं ?”

अमृत ने जवाब दिया‒“नहीं…!”

“टेलीफोन शायद तुम्हारी बहन ने रिसीव किया था।”

“हां, वह रीता ही थी और उसने तुम्हारी आवाज पहचान ली थी।”

“नहीं…।”

“घबराओ मत ! उसने न तो बाबू को बताया, न ही मां और भइया को। बस, चुपके से मुझे बता दिया था कि तुम यहां इसी समय मिलोगे।”

“शुक्र है !”

“कैसे बुलाया ?”

वेटर ने चाय रखी और चला गया।

अमर ने उससे कहा‒“तुम कह रहे थे न कि लड़ाई तो किसी न किसी को शुरू करनी ही है।”

“बेशक !”

“मैंने लड़ाई की शुरुआत कर दी है।”

अमृत चौंककर सीधा बैठता हुआ बोला‒“कैसे…?”

“कल रात मेरी बहन रेवती किडनेप हो जाती। अगर मैं जरा-सा भी चूक गया होता।”

“नहीं…!”

“इसीलिए मैंने मां और रेवती को कल रात टेलर-मास्टर शरीफ चाचा की मदद से शहर से ही हटा दिया था। अब मैं आजाद हूं।”

“शरीफ चाचा ने तुम्हारी मदद की ?”

“क्यों नहीं करते ?”

“और हमारे पड़ोसियों को देखो।”

“अमृत ! जो सहृदयता छोटे लोगों में होती है, वह बड़े लोगों में नहीं होती, क्योंकि वे सच्ची भावनाओं के आगे नीति मसलहत की दीवारें खड़ी कर लेते हैं।”

“सच कहते हो। मगर तुम्हें पता कैसे चला था ?”

“उस लड़के शौकत से, जो मेरी गली में जासूसी कर रहा था।”

“शौकत कौन ?”

“शेरवानी का भानजा और ले पालक बेटा !”

“ओहो, उसने तुम्हें बता कैसे दिया ?”

“मार के आगे तो मुर्दा भी बोल उठता है।”

“क्या मतलब ?”

अमर ने बताया कि उसने कैसे शौकत को पकड़ा। उससे क्या-क्या कबूल कराया ? शौकत उन तीनों लुटेरों में से एक था, जिन्होंने अमृत की दुकान लूटी थी।

आखिर तक सुनने के बाद अमृत हक्का-बक्का रह गया। अमर ने कहा‒“लोग यह नहीं समझते कि हर कर्म का फल इसी धरती पर मिल जाता है। शेरवानी ने कितने खून कराए हैं। शेरवानी ने खुद अपने भानजे और मुंह बोले बेटे को कंधा दिया और उसे नहीं मालूम कि वह किसे कंधा दे रहा है ?”

अमृत हक्का-बक्का अमर को देखता रहा था। बात खत्म होने पर अमृत ने होंठों पर जबान फेरी ओर बड़ी मुश्किल से थूक निगलकर कहा‒“तुमने इतनी आसानी से शौकत को मार लिया ?”

अमर ने गम्भीरता से कहा‒“शौकत हो या चौहान या प्रेमप्रताप, जिनके लिए कुदरत ने मृत्यु-दण्ड तय किया है। उन्हें मारते हुए खुद तुम्हारा हाथ भी नहीं कांपना चाहिए‒तुम खुद सोचो, जिस रात उन तीनों ने मिलकर तुम्हारी दुकान लूटी थी, तुम्हें और तुम्हारे पिता को मारा था। क्या उन लोगों ने तुम लोगों पर दया की थी ?”

“अगर तुम लोग उनसे बराबर के मुकाबले पर आते तो क्या वे तुम्हें गोली मारने से चूक जाते ? फिर जब मैंने प्रेमप्रताप को पकड़ा था तो क्या उन लोगों ने मुझे मारने में कसर छोड़ी थी ?”

अमृत कुछ न बोला।

अमर ने फिर से कहा‒“ये करोड़पति लोगों के इज्जतदार बेटे, दो-दो…चार-चार हजार रुपए की लूटमार क्यों करते फिर रहे हैं। यह समस्या हल करनी है। शहर और जिलों में इन लोगों ने क्यों और किसके इशारे पर आतंक फैला रखा है‒ इसका पता लगाना है ?”

अमर ने कुछ पल रुककर कहा‒“लड़ाई शुरू हो चुकी है। जीत के लिए शक्ति से ज्यादा दांव-पेंच की जरूरत है, क्योंकि वह लड़ाई शक्ति की नहीं दांव-पेंच और राजनीति की है। अभी तक इस लड़ाई में मैं अकेला ही हूं।”

अमृत ने गम्भीरता से कहा‒“और इस लड़ाई की शुरुआत तुमने हमारे लिए की है। बताओ, मुझे क्या करना है ?”

“तुम्हें सबसे पहले मेरे साथ मिलकर यह शपथ लेनी है कि जो भी स्कीम हम दोनों बनाएंगे, वह सिर्फ मेरे और तुम्हारे तक सीमित रहेगी।”

“मैं तैयार हूं।”

अमर ने उठते हुए कहा‒“तो आओ, मेरे साथ चलो।”

“कहां…?”

“मन्दिर में शपथ लेने के लिए।”

अमृत भी चाय का आखिरी घूंट लेकर उठ गया।

Leave a comment