उलझन-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Uljhan

महान कथाकार स्व. महीप सिंह की ये कालजयी कहानी अपने कथानक को लेकर हमेशा से इतनी जीवंत रही है कि पाठक इसे पढ़ते हुए कब इसके किरदारों को महसूस करने लगता है, पता ही नहीं चलता।

15 अगस्त, 1930 को जन्मे महीप सिंह का साहित्य भाषा की सीमा से परे रहा है। हिंदी व पंजाबी में लेखन के अतिरिक्त लंबे समय तक अध्यापन से भी जुड़े रहे हैं। ये दूरदर्शन पर भी कई सालों तक ‘पत्रिका कार्यक्रम के संयोजन से जुड़े रहे। लगभग चार दशक तक ‘संचेतना पत्रिका का भी संपादन इन्होंने किया। इनकी कई रचनाओं पर धारावाहिकों का भी निर्माण हो चुका है।

कॉलेज से आते ही प्रोफेसर महेंद्र सिंह ने अपना कोट और टाई उतार कर पलंग पर फेंक दी। पप्पी पलंग पर सोई हुई थी और सुरजीत कौर पास ही बैठी खाना गर्म कर रही थी। ‘आं! हां! अभी पगड़ी न उतारिएगा। वह वहीं बैठी-बैठी चिल्लाई, ‘दो मिनट बैठकर सांस ले लीजिए। बाहर से गर्म-गर्म आते हैं और आते ही पगड़ी उतार देते हैं, सिर में सीधी हवा लगती है और फिर जुकाम हो जाता है।… कितनी बार कहा मेरी तो कोई सुनता ही नहीं।
महेंद्र सिंह अब तक पगड़ी उतारकर मेज पर रख चुके थे और शीशे के सामने खड़े अपने केशों पर कंघा फेर रहे थे। सुरजीत कौर ने खाना मेज पर लगा दिया और कोट और टाई को हैंगर पर टांगते हुए झुंझलाए स्वर में कहा, ‘इतना भी नहीं होता कि आकर अपने कपड़े तो हैंगर पर टांग दें। क्रीज $खराब हो जाती है तो कल कॉलेज पहनकर क्या जाते? महेंद्र सिंह कुछ बोले नहीं, थोड़ा मुस्करा भर दिए और तौलिए से अपने हाथ पोंछते हुए खाने की मेज़ पर बैठ गए। पानी के गिलास भरकर सुरजीत भी बैठने को ही थी कि पलंग पर पतले दुपट्टïे के अंदर लेटी हुई पप्पी थोड़ी-सी कसमसाई।
‘और मुसीबत। कहती हुई सुरजीत झट से पलंग की ओर बढ़ी और उसे सुलाने के लिए थपकियां देने लगी। महेंद्र सिंह चम्मच से सब्जी का रसा पीते हुए बोले, ‘दो बज रहे हैं और मुझे बड़े जोर से भूख लग रही है।
‘भूख क्या मुझे नहीं लगी है? सुरजीत ज़रा झुंझलाकर बोली, ‘पप्पी जाग जाएगी तो दोनों का $खाना हराम हो जाएगा, आप शुरू कीजिए।

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किंतु पप्पी को सुलाने के सभी प्रयत्न असफल रहे और आ$िखर उसे साथ लेकर बैठना पड़ा। उसने प्लेट से रोटियां निकालकर नीचे फेंक दीं, सब्ज़ी की कटोरी को मेज पर उलट दिया। सुरजीत खीझती-झुंझलाती रही।
महेंद्र सिंह को कॉलेज में प्राध्यापक हुए दो वर्ष ही हुए थे। अपने घर से का$फी दूर बंबई जैसे नगर में उन्हें नौकरी मिली। पहले वर्ष तो वह अकेले एक होटल में रहते रहे, क्योंकि लगातार प्रयत्न करते रहने पर भी उन्हें रहने योग्य कोई उचित स्थान नहीं मिल सका। दूसरे वर्ष बड़ी चेष्टा करने पर उन्हें अपने कॉलेज से लगभग दस मील दूर एक खोली मिली। महेंद्र सिंह का बस चलता तो ऐसे मकान की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते, किंतु वह अनुभव कर चुके थे कि उनके जैसे वेतन पाने वाले व्यक्ति को बंबई जैसे नगर में इससे अच्छे स्थान की आशा नहीं करनी चाहिए।
खाना खाकर महेंद्र सिंह पलंग पर लेट गए और एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगे। सुरजीत ने पप्पी को उनके पास बैठा दिया और स्वयं जूठे बर्तनों को समेटने में लग गई। महेंद्र सिंह कई बार कह चुके थे कि क्यों न एक नौकर रख लिया जाए, किंतु सुरजीत सदा यही कहकर टालती रही कि इतने वेतन में बंबई जैसे नगर में नौकर रखने की गुंजाइश कैसे हो सकती है! आ$िखर दस बीस पीछे भी तो डालने चाहिए। समय कुसमय में कुछ पास न होगा तब किसके सामने हाथ फैलाएंगे? महेंद्र सिंह इस तर्क पर चुप हो जाते।
सुबह महेंद्र सिंह की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि सुरजीत नहाई, धोई रसोई में बैठी स्टोव जला रही है। वह पलंग से उठकर कुर्सी पर बैठ गए और बोले, ‘एक गिलास पानी देना। सुरजीत ने चाय का पानी स्टोव पर चढ़ा दिया था। उसने उठकर एक गिलास बासी पानी, जो उनके नित्य प्रात: पीने की आदत थी, उनके सामने रख दिया और कहा, ‘जल्दी नहा धो आइए, का$फी देर हो गई है। महेंद्र सिंह ने पानी पीकर मेज़ पर रखी टाइमपीस की ओर देखा। साढ़े छह बजने वाले थे। उन्होंने दैनिक पत्र उठाया और वह उसकी मोटी-मोटी सुॢखयां देखने लगे। सुरजीत ने रसोई में से ही कहा, ‘चाय तैयार है। फिर कॉलेज को देर हो जाए तो मुझे न कहिएगा।
महेंद्र सिंह जमुहाई लेते हुए उठे और इधर-उधर हुए बोले, ‘तौलिया कहां है?
फिर उन्होंने कमरे के एक कोने के आले से साबुनदानी और पेस्ट उठाया, पर देखा कि वहां ब्रुश नहीं है। ‘मेरा ब्रुश कहां है? वह ज़ोर से चिल्लाए। सुरजीत ने रसोई में ही बैठे-बैठे उत्तर दिया। ‘वहीं कहीं इधर-उधर होगा। देखिए न।
महेंद्र सिंह बोले, ‘आओ ज़रा ढूंढ़ दो, मुझे तो नहीं मिलता। इधर पप्पी भी जाग गई। सुरजीत ने उसे पलंग से उठाया और उनकी गोद में देते हुए कहा, ‘पकड़िए, मैं देखूं। महेंद्र सिंह ने पप्पी को ले लिया। वह अपने छोटे से हाथ से उनके मुंह की ओर ताकती हुई उनकी लंबी नाक को पकड़ने की कोशिश कर रही थी और महेंद्र सिंह बुत बने खड़े थे।
‘यह लीजिए। सुरजीत ने ब्रुश अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘उस कोने में पड़ा था। मगर यह नहीं हुआ कि ज़रा कमर झुकाकर ढूंढ़ लें। एक आदमी तो $खाली आपके कामों के लिए होना चाहिए।
महेंद्र सिंह हंस दिए, बोले, ‘तुम्हारे सामने तो सचमुच मेरी सारी चलत-फिरत मारी जाती है।
सुरजीत जब कभी महेंद्र सिंह के मुख से इस प्रकार के शब्द सुनती, उसे एक प्रकार का आत्मिक आनंद मिलता। यह अनुभूति उसे एक अजीब-सा सुख देती कि कोई उस पर इतना आश्रित है, फिर भी वह नाराजगी भरे स्वर में बोली, ‘अच्छा जाइए और जल्दी निपटिए।
महेंद्र सिंह सचमुच बड़े आलसी थे या यों कहिए अब हो गए थे। सुबह उठते ही चिल्लाना शुरू कर देते थे- पानी, तौलिया, ब्रुश, पेस्ट। तब सुरजीत को रसोई घर में जलते हुए स्टोव और उबलते हुए दूध को वैसे ही छोड़कर भागना पड़ता। आगे बढ़ते हुए प्रत्येक कदम पर वह पीछे घूमकर देखती जाती कि इस बीच कहीं पप्पी रसोई घर में घुसकर सब उलट-पुलट न कर दे। महेंद्र सिंह जब नहाकर आते, तब उन्हें दाढ़ी फिक्स करने के लिए एक कटोरी पानी धुला हुआ ठाठा (दाढ़ी पर बांधनेवाला कपड़ा) और काला धागा तैयार मिलता। ऐसे समय जब कभी पप्पी आकर उनसे उलझने लगती, तब वह चिल्ला उठते, ‘अरे इसे पकड़ो नहीं तो फिक्सो की शीशी उलट डालेगी। और तब सुरजीत रसोई से ही उसे आवाजें देना शुरू करती या फिर पकड़ने के लिए स्वयं आती।
एक दिन महेंद्र सिंह कॉलेज जाने के लिए तैयार हो रहे थे। बूट पहनने लगे तो देखा कि उसमें पड़े हुए मोजे कुछ गंदे हैं। उन्होंने इधर-उधर देखा, सुरजीत कहीं पास दिखाई नहीं दी। दूसरे मोजे ढूंढ़ने के लिए उन्होंने दो-तीन संदूकों के कपड़े इधर-उधर पलट डाले किंतु सब बेकार। वह खड़े-खड़े झुंझला ही रहे थे कि सुरजीत हाथ में कुछ धुले हुए गीले कपड़े लिए वहां आ गई।
‘तुम कहां गई थीं? मुझे मोजे चाहिए।
‘गुसलखाने में पप्पी के दो फ्राक ही तो धोने गई थी। इतनी देर में मानो प्रलय आ गई।Ó कहती हुई उसने उघड़े हुए एक संदूक के कोने से मोजे निकाल कर उनके हाथ में दे दिया। फिर कहा, ‘ज़रा ध्यान से दखते तो वहीं मिल जाते।
देर हो जाने की आशंका से महेंद्र सिंह वैसे ही खीझे हुए थे, सुरजीत की इस बात से उनका पारा और चढ़ गया। बोले, ‘देखो, जब तक मैं कॉलेज चला न जाया करूं, तब तक तुम एक क्षण के लिए भी मेरे सामने से न हटा करो।
महेंद्र सिंह के इस क्रोध में भी सुरजीत को हंसी आ गई, बोली, ‘जब मैं नहीं आई थी, तब आपका काम कैसे चलता था।
‘तब मैं अपना सब काम स्वयं कर लेता था। तुम्हीं ने तो मेरी आदतें बिगाड़ दी हैं।
कभी-कभी सुरजीत घर के काम से बहुत खीझ जाती थी। महेंद्र सिंह का आलस और पप्पी उसके मुख्य कारण होते। पप्पी जब से बंबई आई थी पहले दिन से ही उसे यहां के दूध से अरुचि हो गई थी। महेंद्र सिंह ने डिब्बे का दूध लाकर दिया, किंतु उसे वह भी नहीं भाया, इसलिए अब वह अधिकतर मां के दूध पर रहने लगी थी और दिन में एक क्षण के लिए भी सुरजीत का पिंड नहीं छोड़ती थी। महेंद्र सिंह जितनी देर भी घर पर रहते या तो कुछ पढ़ते रहते या लिखते रहते। जब कभी सुरजीत तंग आकर पप्पी को उनके हाथ में पकड़ा जाती, वह उसे पांच मिनट से अधिक नहीं टिका पाते और झुंझला कर किसी काम में लगी सुरजीत के पास उसे बैठा आते।
उस दिन महेंद्र सिंह जब कॉलेज से लौटे, तब सुरजीत बहुत झुंझलाई और परेशान बैठी थी। पप्पी उसकी गोद में पड़ी दूध पी रही थी। आज उसने उसे बहुत परेशान किया था। खाना बनाते समय वह बार-बार रसोई घर में घुस आती और सुरजीत की पीठ का सहारा लेकर उधम मचाने लगती। एक बार वह बगल से होकर जलते हुए स्टोव के पास पहुंच गई। सुरजीत चमचे से सब्जी हिला रही थी। पप्पी का हाथ जलते हुए स्टोव पर पड़ने ही वाला था कि उसने देख लिया और वह हड़बड़ाहट में सुरजीत की कोहनी स्टोव पर रखे बर्तन से लगी और वह उलटकर नीचे आ गिरा। सारी सब्जी फर्श पर बिखर गई। सुरजीत के कपड़े पीले हो गए। दो-चार छीटें पप्पी पर आ पड़े और वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। फर्श पर पड़ी हुई सब्जी के रसे में सने हुए कपड़ों और पप्पी की ची$खों ने उसे एक साथ पागल-सा बना दिया। किसी प्रकार उसने अपने कपड़े बदले, पप्पी के बदन पर जहां छीटें पड़े थे, वहां नीली रोशनाई लगाई और फिर उसे चुप कराने के लिए वह दूध पिलाने लगी। उसे इस बात का ध्यान ही न रहा कि महेंद्र सिंह के आने का समय हो गया है और उसे खाना बना लेना चाहिए था।
महेंद्र सिंह ने आते ही अपनी आदत के अनुसार कोट और टाई उतार कर पलंग पर डाल दी और कमीज उतारते हुए वह बोले, ‘जल्दी खाना लगाओ।
‘अभी बन जाता है। के अतिरिक्त सुरजीत ने और कुछ नहीं कहा। एक गुबार-सा उसके हृदय में भरा हुआ था, जिस पर उसके मौन ने आवरण डाल रखा था। वह जैसे ही रसोईघर में जाने को हुई पप्पी जागकर रोने लगी। शायद उसी जलन की पीड़ा उसे सोने नहीं दे रही थी। सुरजीत ने पप्पी की ओर देखा और फिर महेंद्र सिंह की ओर कुछ तीखी दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘आप ज़रा इसे उठा लीजिए।
एक तो महेंद्र सिंह वैसे ही पप्पी को बहुत कम लेते थे और आज तो महेंद्र सिंह की मन:स्थिति भी ठीक नहीं थी। कुर्सी पर बैठे और एक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए वे बिगड़कर बोले, ‘ना बाबा यह काम मुझ से नहीं होगा।
पप्पी तथा घरेलू कार्यों के प्रति महेंद्र सिंह के ये उद्गार सुरजीत के लिए नए नहीं थे, किंतु आज के उनके इन शब्दों ने उसे वह ठेस पहुंचाई कि उसके नेत्र डबडबा आए और उसके मुख से कुछ अस्फुट शब्दों के निकलते न निकलते आंसुओं की धारा वेगवती होकर बह चली। पप्पी को पलंग से उठाते हुए उसने कहा, ‘आप इसे नहीं लेंगे तो आज मुझसे खाना नहीं बन सकेगा।
महेंद्र सिंह ने मूक दृष्टि से सुरजीत की ओर देखा। वह अपनी आंखें पोंछती हुई कह रही थी, ‘आप पुरुष लोग यह समझते हैं कि जीविका कमाने के लिए आप तो मेहनत करते हैं और ये स्त्रियां घर में बेकार बैठी रोटियां तोड़ती हैं, किंतु हम औरतें घर में अपना दिन किस तरह गुजारती हैं, यह हमें ही पता है। आपकी नौकरी तो कुछ घंटों की होती है, किंतु हम चौबीस घंटे नौकर हैं। आप अपने मालिकों से दया और सहानुभूति की आशा रखते हैं, किंतु हम पर आप शायद भूलकर भी दया दिखाना नहीं चाहते। आज मेरा ज़रा-सा ध्यान चूक जाता तो पप्पी स्टोव से जल जाती। इसके बचाने में सारी सब्जी ज़मीन पर गिर गई। मेरे कपड़े $खराब हो गए और इस पर भी कई जगह गर्म छीटें पड़ गए। तब से यह लगातार रो रही है।
महेंद्र सिंह ने खेद मिली दृष्टि से पप्पी की ओर देखा। उसकी बांहों पर दो-तीन जगह नीली दवा लगी हुई थी। महेंद्र सिंह क्रोध से उबल पड़े और बोले, ‘मैंने तुमसे कई द$फा कहा कि एक नौकर रख लो, लेकिन तुम हो कि मेरी बात सुनती ही नहीं।
सुरजीत बोली, ‘मुझे क्या नौकर से कोई चिढ़ है? अगर मैं यह $खर्च बचाना चाहती हूं तो क्या अपने लिए?
सुरजीत ने देखा, पप्पी उसके कंधे पर सिर रखे सो गई है। उसने उसे धीरे से पलंग पर लिटा दिया और अपना मुंह पोंछती हुई रसोईघर में चली गई।
महेंद्र सिंह की दृष्टि तो पत्रिका के पृष्ठों पर लगी थी, किंतु विचारों का झंझा कहीं और चल रहा था। अपने तीन-चार वर्ष के विवाहित जीवन में उन्होंने सुरजीत के नेत्रों में इस प्रकार के आंसू कभी नहीं देखे थे। आज की उसकी बातों ने उन्हें झकझोर दिया था और वह सोच रहे थे- क्या कालेज के अलावा घर के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या सुरजीत ने ठीक नहीं कहा कि हम पुरुषों के काम के घंटे तो सीमित होते हैं पर स्त्रियां चौबीस घंटे की गुलाम होती हैं?
उनकी विचार शृंखला तब टूटी, जब सुरजीत ने उन्हें खाने के लिए बुलाया।
उस दिन के बाद से महेंद्र सिंह के व्यवहार में एक विचित्र-सा परिवर्तन दिखाई देने लगा। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि अब वे अपने छोटे-मोटे व्यक्तिगत कार्य स्वयं कर लिया करेंगे और जितना हो सकेगा घर के काम में सुरजीत का हाथ बटाएंगे। सुबह उठते ही उन्होंने स्वयं घड़े से एक गिलास पानी लेकर पिया। स्नान करने गए तो वहीं से अपना बनियान और कच्छा धोते आए। कॉलेज जाने के पहले जूतों पर उन्होंने स्वयं ही पालिश कर ली। सुरजीत उनके इस व्यवहार पर चकित अवश्य हुई, किंतु बोली कुछ नहीं।
दो-चार दिन ऐसे ही बीत गए। अब महेंद्र सिंह कॉलेज से आकर अपने कपड़े पलंग पर फेंकते नहीं, बल्कि व्यवस्थित रूप से हैंगर पर टांग देते थे। शाम को सुरजीत जब खाना बनाने लगती, तब वह पप्पी को लेकर छज्जे पर निकल जाते। एक दिन जब सुरजीत ने पूछा, तब उन्होंने कहा, ‘मैंने सोच लिया है कि अब मैं अपने छोटे-मोटे काम स्वयं करूंगा और घर के काम में भी तुम्हारी मदद करूंगा।
सुरजीत ने हंसते हुए कहा, ‘हो चुका आपसे।
उस दिन इतवार था, छुट्टïी का दिन। इतवार को केश धोना महेंद्र सिंह का नियम था। साधारणत: सुरजीत प्रात: उठते ही उनसे केश धोने के लिए कहना शुरू कर देती थी, पर वे छुट्टïी के मूड में अपने सभी काम खूब बेफिक्री के साथ करते रहते थे। जब सुरजीत कहते-कहते परेशान हो जाती और बिगड़ने लगती तब वह तौलिया, साबुन और दही आदि लेकर गुसलखाने में जाते। आज भी उस क्रम में कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ा, किंतु जब वह केश धोकर बाहर आए और उन्हें सुखा चुके, तब स्वयं ही तेल लगाने लगे। सुरजीत पप्पी को गुसलखाने में नहला रही थी। लौटकर आई तो उसने देखा कि वह केशों में तेल लगा, कंघा कर जूड़ा बांध रहे थे।
सुरजीत के हृदय को गहरी चोट लगी। जब से उसका महेंद्र सिंह से विवाह हुआ था और जब भी वह उनके निकट रही थी, रविवार को केश धोने के बाद उन पर तेल लगाने का कार्य वह स्वयं ही करती थी। महेंद्र सिंह के अन्य व्यक्तिगत कार्यों की अपेक्षा इस कार्य में शायद वह अधिक सजग रहती थी। आज उसे बड़ी ठेस लगी, किंतु वह बोली कुछ नहीं।
दूसरे दिन महेंद्र सिंह स्नान करने जाने लगे, तब वह बोली, ‘कच्छा-बनियान धोने की जरूरत नहीं है, वहीं छोड़ दीजिएगा, मैं बाद में धो दूंगी।
‘क्या $फर्क़ पड़ता है? कहते हुए महेंद्र सिंह गुसलखाने की ओर चले गए और जब वह लौट कर आए, तब उनके हाथ में धुले हुए कच्छे- बनियान के अतिरिक्त दो ठाठे भी थे।
जब से महेंद्र सिंह अपने व्यक्तिगत कार्यों को करने में स्वयं रुचि दिखाने लगे थे, सुरजीत को एक विचित्र प्रकार का असंतोष-सा रहने लगा था। वह स्वयं नहीं समझती थी कि यह कैसी उलझन है। जब महेंद्र सिंह अपने सारे काम उसी पर डाले रहते थे, तब कई बार वह खीझ उठती थी, किंतु उस खीझ में भी उसे एक सुख की अनुभूति होती थी। अब भी उसकेकान इसी प्रतीक्षा में रहते कि महेंद्र सिंह कब उसे किसी चीज़ के लिए पुकारेंगे, किंतु अब वह उससे कुछ नहीं कहते थे। घर के वातावरण में एक विचित्र-सी मूकता आने लगी थी। अब न महेंद्र सिंह की चिल्लाहट ही सुनाई देती थी, न सुरजीत की खिझलाहट ही।
अगले इतवार को महेंद्र सिंह केश धोकर छज्जे पर सुखाने लगे। थोड़ी देर में उन्हें पप्पी के रोने का स्वर सुनाई दिया और वह उसे घुमाने ले जाने के लिए अंदर गए।
‘रहने दीजिए, अभी इसे दूध पिलाना है। सुरजीत ने कहा और महेंद्र सिंह चुपचाप बाहर आकर फिर बाल सुखाने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने हाथ लगाकर देखा केश सूख गए थे। वह कमरे में आए और अलमारी में से तेल की शीशी निकालकर कुर्सी पर बैठकर उसका ढक्कन खोलने लगे।
सुरजीत बैठी यह सब देख रही थी। वह धीरे से उठी और पास आकर तेल की शीशी पकड़ते हुए बोली, ‘लाइए मैं लगा दूं।
‘नहीं, मैं स्वयं लगाऊंगा।
कहकर महेंद्र सिंह उसके हाथ से तेल की शीशी खींचने लगे, किंतु उन्होंने अनुभव किया कि सुरजीत की पकड़ कुछ कड़ी हो गई है। उन्होंने उसकी ओर देखा। सुरजीत की स्थिर दृष्टि उन पर गड़ी हुई थी। उनकी भी दृष्टि स्थिर हो गई। देखते-ही-देखते सुरजीत के नेत्र डबडबा आए और आंसुओं की एक अविरल धार बह निकली।
‘अरे? क्या हुआ? महेंद्र सिंह ने अचंभे में पूछा।
‘कुछ नहीं। सुरजीत ने आंखें पोंछते हुए कहा, ‘तेल मैं लगाऊंगी।
महेंद्र सिंह हंस पड़े और बोले, ‘तुम स्त्रियों को समझना तो शायद भगवान के भी बस में नहीं।
और यह कहते हुए उन्होंने तेल की शीशी सुरजीत के हाथ में देकर सिर आगे बढ़ा दिया।

‘आप पुरुष लोग यह समझते हैं कि जीविका कमाने के लिए आप तो मेहनत करते हैं और ये स्त्रियां घर में बेकार बैठी रोटियां तोड़ती हैं, किंतु हम औरतें घर में अपना दिन किस तरह गुजारती हैं, यह हमें ही पता है।