बत्तीसी- गृहलक्ष्मी की कहानियां
Battishi

Grehlakshmi Story: ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आराम से ठसक के साथ खड़ी थी। भीड़ थी, कोलाहल था, भागम-भाग थी, चीख-पुकार थी। ट्रेन जुगाली करते हुए किसी विशालकाय जानवर की भांति निस्पृह थी, जिसे किसी के ट्रेन पकड़ने या छूटने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। यात्रियों का आना-जाना लगा हुआ था। ट्रेन पकड़ने वाले यात्री जल्दी में दिख रहे थे और ट्रेन से उतर कर जाने वाले भी जल्दी में थे। रेलवे स्टेशन पर ठहरा हुआ कुछ भी नहीं होता। जो ट्रेन की प्रतीक्षा में बैठे होते हैं, वे जानते हैं कि ट्रेन आने में समय है, फिर भी वे मानसिक रूप से व्यस्त ही दिखते हैं। इसी रेल में एक साधारण सा डिब्बा था। डिब्बे की खिड़की पर दूर से दिखने वाला दृश्य भी साधारण था। पर यह दृश्य साधारण होकर भी विचित्र था, क्योंकि आसपास की भागमभाग और कोलाहल से परे इस दृश्य में कुछ ठहरा हुआ था। युवा पति अपनी पत्नी को रेल के डिब्बे में बिठाने आया था। सुंदर सी, गोल-मटोल, युवा पत्नी डिब्बे के अंदर बैठी रो रही थी। पति रेल के कूपे के बाहर खिड़की की सलाखों पर लगभग लटका हुआ था। आने-जाने की व्यस्तता में भी लोगों की निगाह उस प्रेमिल जोड़े पर पड़ जाती थी।
‘लो, फिर तुमने आंसू बहाने शुरू कर दिए। लोग देख रहे हैं, बस करो। एकदम बच्ची की तरह रो रही हो, लोग क्या सोचेंगे। रमन ने कहा।
‘अभी-अभी तो अपनी शादी हुई है। मुझे क्या पता था इतनी दूर पोस्टिंग मिल जाएगी। सुरभि ने सिसकी भरते हुये कहा।
‘बत्तीस साल की हो गयी हो और रो ऐसे रही हो जैसे सोलह साल की लड़की अपने प्रेमी से अलग हो रही हो। रमन ने उसके सिर पर टप्पा मारते हुए कहा।
‘यही तो बात है, 32 साल तक पढ़ने-लिखने में व्यस्त रही। प्रेम क्या होता है, जानती ही नहीं थी। अब पता चला है तो तुम्हें छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा। मैं तो कह रही हूं मैं ये सरकारी नौकरी छोड़ देती हूं।
‘पागल ही हो बस! जिस पोस्ट पर तुम चुनी गयी हो, पता भी है कितनों का सपना होता है वह प्रशासनिक पद? कितनों का ये सपना बस सपना ही रह जाता है। रमन ने सुरभि को दिलासा दिया। रमन एक खाते-पीते परिवार का लड़का था। वो स्वयं भी एक प्रशासनिक पद पर था। विचारों से बहुत ही आधुनिक था। सुरभि को दूर पोस्टिंग मिली थी पर उसने उसे वहां जाने से नहीं रोका बल्कि उसका उत्साहवर्धन ही कर रहा था।
‘क्या बात है पुत्तर? क्या कई सालों के लिए अलग जा रही है? सामने बर्थ पर बैठी आंटी ने कहा। वे भारी-भरकम काया की स्वामिनी थी। सफेद कुरते सलवार में, करीने से दुपट्टे को सिर से ओढ़े हुये थीं। पहनावे व बोली भाषा से वो पंजाबी जान पड़ती थीं। आंटी बहुत देर से दोनों को देख रही थीं। आखिर में जब उनसे रहा नहीं गया तो वो बोल ही पड़ीं।
रमन ने त्वरित प्रक्रिया वश सुरभि का हाथ छोड़कर जिज्ञासा से आंटी की ओर देखा तो पाया एक मुस्कुराता हुआ, ओज से भरपूर, मित्रता का भाव लिए हुए एक चेहरा। ‘अरे नहीं आंटी, अभी बीच-बीच में आती रहेगी। नहीं तो मैं मिलने चला जाऊंगा। रमन ने हंसते हुए कहा।
‘लै…तब क्या गल्ल है जी! आंटी ने प्यार से झिड़की देते हुए कहा।
‘कुछ नहीं आंटी, बस यूं ही परेशान हो रही है। रमन ने कहा। दोबारा उसने सुरभि की ओर देखा, जो अब रुमाल लेकर अपने आंसू पोछने में लगी हुई थी।
आंटी से रहा नहीं गया। एक ममतामयी मूरत की तरह अपनी सीट से वे उठकर सुरभि के पास आ कर बैठ गयी। उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देने लगीं।
‘अरे पुत्तर, रोती क्यूं है, सरकारी नौकरी तो भागवालों को मिलती है। कुछ दिन में ट्रांसफर भी हो जाएगा।
‘वही तो मैं भी कह रहा हूं। पर ये समझ ही नहीं रही। रमन ने उनकी बात का समर्थन किया। उसने ध्यान से आंटी की तरफ देखा। आंटी शायद अकेले ही यात्रा कर रही थीं। उनके साथ कोई नहीं था या फिर उनके साथ वाला किसी काम से नीचे उतर गया होगा। फिलहाल तो वो और सुरभि डिब्बे में अकेले थीं। उनका स्नेहिल व्यवहार देखकर रमन को तसल्ली हुई कि सुरभि का सफर अच्छे से कट जाएगा।
‘अरे कोई न, कुछ दिन में समझ जाएगी। मेरे सरदार जी जब मुझे छोड़ कर गए थे, मैं भी बहुत रोयी थी। जिंदादिल आंटी ने खनकती हुई आवाज में कहा।
सुरभि उनकी बात सुनकर रोते-रोते अचानक से रुक गयी। ‘अच्छा, तब आपकी उम्र क्या थी आंटी? सुरभि ने रुमाल से आंसू पोछते हुए कहा। सुरभि ने सोच विचार कर नहीं पूछा था, यूं ही अन्त: प्रतिक्रिया के रूप में प्रश्न लुढ़क कर बाहर आ गया।
आंटी ने अपना दाया हाथ हवा में फेंकते हुये बेतकल्लुफी से कहा, ‘अरे यही कोई 16-17 साल और क्या।
‘वो भी क्या किसी नौकरी के सिलसिले में बाहर गए थे? कितने साल अलग रहे आप लोग? फिर वापस कब मिले आप लोग? सुरभि से जिज्ञासा संभाली न गई।
एक पल को आंटी गंभीर हो गईं। जैसे इस प्रश्न ने उनकी मुस्कान चुरा ली हो। पुन: वही मनमोहिनी मुस्कान उनके होठों पर खेलने लगी। जैसे मंच पर नाटक खेलते समय पल भर के लिए किसी निजी दुख में गोते लगाते हुये कलाकार को याद आ जाए, अरे मैं तो मंच पर हूं। बड़े मीठे और दार्शनिक स्वर में उन्होंने कहा।
‘मिलना क्या? भगवान के पास जाकर कोई लौटा है क्या, पुत्तर?
‘क्या…? सुरभि और रमन दोनों एक साथ चौंक पड़े। दोनों के आश्चर्य की सीमा न रही। पहले उन्होंने समझा कि आंटी अपने पति से कुछ वर्ष बिछोह का कोई प्रकरण बता रही हैं पर यहां तो उनके पति उन्हें सदा के लिए छोड़ गए थे वो भी इतनी कम उम्र में।
सुरभि ने पूछा, ‘क्या हुआ था आंटी। सॉरी, पूछना तो नहीं चाहिए, पर अगर आपको अच्छा लगे तो हमारे साथ शेयर कर सकती हैं। सुरभि के आंसू सूखने लगे थे। आंटी के चेहरे पर दर्द की एक रेखा उभर आई। वो शायद अपना दु:ख उधेड़ कर दिखाना नहीं चाहती थीं। पर सुरभि के चेहरे की मासूमियत ने उन पर कुछ जादू सा कर दिया।
वो अतीत में डूबते हुए बोली, ‘सरदार जी के पिता जमींदार थे। बड़ा रसूख था उनका। बीघों जमीन थी, खेत थे। घर में दूध, घी, मक्खन की कोई कमी न थी। गांव के बच्चे-बच्चे का ख्याल रखते थे। एक दिन खबर मिली कि जंगल से गांव में कोई आदमखोर लकड़बग्घा घुस आया है और आए दिन बच्चों को उठा कर ले जाता है। बस फिर क्या था। गांव वाले सरदार जी के पिता जी से मदद की भीख मांगने लगे। बेटे ने बंदूक उठायी और पिता की आज्ञा ले कर निकल पड़े। मचान लगा कर बैठे, लकड़बग्घे की प्रतीक्षा करने लगे। मुआ आया ही नहीं। सुबह हो गयी तो मचान से उतर कर घर जाने लगे। तभी कहीं से कूद कर हरामी ने सरदार जी पर आक्रमण कर दिया पर सरदार जी बड़े जिगर वाले थे। लहूलुहान होने के बावजूद अपनी बंदूक उठा कर उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया और खुद लड़खड़ा कर ऐसे गिरे कि फिर कभी उठे ही नहीं।
डिब्बे में नि:स्तब्धता छा गयी। सुरभि और रमन के मुंह से ‘ओह! के सिवा कुछ न फूटा।
दर्द की तीव्रता में जाने कौन-सा म्यूट बटन होता है, हृदय को छू ले तो होंठ नि:शब्द हो जाते हैं।
आंटी की आंखों में भी शायद हल्की सी नमी आ गयी थी। उन्होंने अपने सफेद दुपट्टे को अपनी आंखों पर फिराया।
‘फिर आपने कैसे संभाला अपने आपको? सुरभि ने पूछा।
‘संभालना क्या पुत्तर, कुछ सोचने का वक्त ही न मिला। जब सरदार जी मरे तो उस समय मुझे दिन चढ़ गए थे। मुझे तो पता भी न था कि पेट से हूं। दो महीने का गर्भ था मुझे। मैं तो लड़कपन लिए पेड़ों पर चढ़ती थी, इमली खाती थी, कुएं पर पैर लटका कर बैठती थी, रस्सी कूदती थी। सरदार जी की मौत की खबर ने मुझे अचानक से सयाना बना दिया। फिर गर्भ के दिन काटे। सात महीने बाद दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। फिर उन बच्चों की परवरिश में उलझ गयी। कुछ दिन रोई-धोई, उदास रही पर बच्चों का मुख देखकर उदासी को नहर में बहा आयी। फिर सारे कर्तव्य मस्त निभाए। अभी लड़के को पोता हुआ है। उसी को देखने जा रही हूं।’ इतना कहकर उन्होंने अपने श्वेत, धवल दंत पंक्ति से एक ऊर्जावान हंसी डिब्बे में बिखेर दी।
सुरभि हतप्रभ रह गयी। उनके दुख के सामने सुरभि को अपना कुछ दिनों का बिछोह बहुत छोटा, तुच्छ सा प्रतीत होने लगा।
आंटी ने आंखे चमकाते हुए सुरभि की काजल बिखरी आंखों में झांका और कहा, ‘अरे ये सब छोड़, क्या पुराण खुलवा दिया मेरे से। देख, मैंने क्या मस्त मठ्ठी बनाई है। आंटी ने पास रखी टोकरी उठा कर उसे खोल लिया।
सुरभि जब तक मठरी का टुकड़ा उठाती तब तक ट्रेन ने सीटी दे दी। आंटी ने कहा, ‘देख, गाड़ी ने सीटी दे दी है। जल्दी से विदा कर अपने आदमी को, चल।
सुरभि हकबका कर रह गयी। दोनों ने अंतिम बार कुछ क्षणों की मोहलत वाला एक-दूसरे के हाथों का स्पर्श संजोया।
ट्रेन चल दी, रमन ने चिल्ला कर कहा, ‘बाय सुरभि अपना ख्याल रखना। सुरभि रमन को हाथ हिला कर विदा दे रही थी। रमन ट्रेन के साथ दौड़ता-दौड़ता चिल्लाया, और हां आंटी, ये भी बता दो, अब आप कितने साल की हैं?
आंटी ने भी पूरी ताकत से चिल्ला कर शरारत से उत्तर दिया, ‘अरे बस, सुरभि जितनी, बत्तीस साल की और क्या, ट्रेन आगे बढ़ गयी। सुरभि ने हांफ्ते हुए रमन की अंतिम छवि नैनों में कैद की और उसकी ओर एक हवाई चुंबन उछाल दिया।
फिर सुरभि ने हास्य और स्नेह मिश्रित आश्चर्य से आंटी को घूरा। ‘आपकी उम्र बत्तीस साल है?
आंटी ने अपनी दंत पंक्ति की धवल बिखेरते हुये सुरभि की ओर देख कर चुलबुलाहट से आंख मारी और ताली मारते हुए खिलखिलाकर बोली, ‘अच्छा-अच्छा, उसमें दो से गुणा कर दे, बस अब ठीक।
32 साल की रूपवान युवती की 16 कलाओं के सामने 64 साल की बुजुर्ग महिला की बत्तीसी की चमक अधिक मोहक थी।

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