lottery by munshi premchand
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जल्दी से मालदार हो जाने की हबस किसे नहीं होती? उन दिनों जब लाटरी के टिकट आए तो मेरे दोस्त विक्रम के पिता, चचा, अम्मा और भाई सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया । कौन जाने किसकी तकदीर जोर करे? किसी के नाम आए रुपया, रहेगा तो घर में ही ।

मगर विक्रम को सब न हुआ । औरों के नाम रुपए आएँगे, तो बहुत होगा, दस-पाँच हजार उसे मिल जाएँगे । इतने रुपयों में उसका क्या होगा? उसकी जिंदगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे । पहले तो उसे संपूर्ण जगत की यात्रा करनी थी । पीरू और ब्राजील और टिंबकटू और होनोलूलू-ये सब उसके प्रोग्राम में थे । वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने उड़कर लौट आनेवालों में न था । वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा पर एक बृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था । फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया-भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जाएँ । पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था । बँगला, कार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं । पिता या चचा के नाम रुपए आए, तो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहीं, अम्मा के नाम आए, तो बीस हजार मिल जाएँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गए, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा । वह स्वाभिमानी था । घरवालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी । कहा करता था-भाई, किसी के सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड्ढे में डूब मरना अच्छा है । जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाए ।

वह बहुत बेकरार था । घर में लाटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपए देगा? वह माँगे भी तो कैसे? उसने बहुत सोच-विचारकर कहा-क्यों न हम-तुम साझे में एक टिकट ले ले?

तजवीज मुझे भी पसंद आई । मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था । बीस रुपए मिलते थे । उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी । दस रुपए का टिकट खरीदना मेरे लिए सफेद हाथी खरीदना था । हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपए की गुंजाइश निकल सकती थी । फिर भी जी डरता था । कहीं से कोई रकम मिल जाए, तो कुछ हिम्मत बड़े ।

विक्रम ने कहा-कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी ।

अँगूठी दस रुपए से कम न थी । उसमें पूरा टिकट आ सकता था । अगर कुछ खर्च किए बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है?

सहसा विक्रम फिर बोला-लेकिन भई तुम्हें नकद देने पड़ेंगे । मैं पाँच रुपए नकद लिए बगैर साझा न करूँगा ।

अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया । बोला-नहीं दोस्त, यह बुरी बात है, चोरी खुल जाएगी तो शर्मिंदा होना पड़ेगा और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी ।

आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेंड हैंड किताबों की दुकान पर बेच डाली जाएँ और उस रुपए से टिकट लिया जाए । हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं । हमसे जितना चाटते बना, चाटा; उनका सत्त निकाल लिया । अब चूहे चार्ट या दीमक, हमें परवाह न थी । मैं मास्टर था, किसी बुकसेलर की दुकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था । मुझे सभी पहचानते थे, इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रुपए का एक नोट लिए उछलता-कूदता आ पहुंचा । मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था । किताबें चालीस रुपए से कम की न थीं; पर यह दस रुपए उस वक्त में हमें जैसे पड़े हुए मिले । अब टिकट में आधा साझा होगा । दस लाख की रकम मिलेगी । पाँच लाख मेरे हिस्से में आएँगे, पाँच विक्रम के ।

मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा-पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी । विक्रम इतना संतोषी न था । बोला-पाँच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत हैं भाई, मगर जिंदगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया । मेरी यात्रा वाली स्कीम तो टल नहीं सकती । हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया ।

मैंने आपत्ति की-आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे?

विक्रम ने गर्म होकर कहा-मैं शान से रहना चाहता हूँ; भिखारियों की तरह नहीं । जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न दे देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा ।

‘कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो? मेरे रुपए में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा । मेरी जरूरतें देखो । तुम्हारी घर में काफी जायदाद है । तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है । दो बहनों का विवाह है, दो भाइयों की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है । मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपए सीधे बैंक में जमा कर दूँगा । उनके सूद से काम चलाऊँगा ।

विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा-हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय है । खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा ।

अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे । विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया । अगर उसका नाम न रहा तो वह टिकट ही न लेगा । मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया-बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई ।

हम एक-एक करके इंतजार के दिन काटने लगे । भोर होते ही हमारी आंखें कैलेंडर पर जातीं । मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था । स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह सायं-सायं कि कोई सुन न ले । हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाए रखना चाहते थे । यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा! उस दृश्य का नाटकीय आनंद हम नहीं छोड़ना चाहते थे ।

एक दिन हम लोग ऐसी ही कल्पनाओं में डूबे हुए थे कि कमरे में कुंती आ गई । वह विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की । छठे में पड़ती थी और बराबर फेल होती थी । बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख । इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।

विक्रम बिगड़ने लगा-कुंती तुझे किसने बुलाया यहाँ?

कुंती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नज़र दौड़ाकर कहा-तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बंद किए बैठे क्या बातें किया करते हो? जब देखो, यहीं बैठे रहते हो । न कहीं घूमने जाते हो न तमाशा देखने; कोई जादू-मंतर जगाते होगे ।

विक्रम ने उसकी गर्दन पकड़कर हिलाते हुए कहा-हाँ, एक मंतर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हजार हंटर जमाए सड़ासड़ ।

कुंती उसकी पीठ पर बैठकर बोली-मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा । मैं मिठाई के दोने फेंक दूँगी और वह चाटैगा । अम्मा को लाटरी के रुपए मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे दें । बस, चैन करूँगी । मैं दोनों वक्त ठाकुरजी से अम्मा के लिए प्रार्थना करती हूँ । अम्मा कहती हैं, कुँवारी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती । मेरा मन तो कहता है, अम्मा को जरूर रुपए मिलेंगे ।

मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल गया था, तो वहाँ सूखा पड़ा हुआ था । भादों का महीना आ गया था; मगर पानी की बूँद नहीं । लोगों ने चंदा करके गाँव की सब कुँवारी लड़कियों की दावत की थी और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी । अवश्य ही कुँवारियों की दुआ में असर होता है ।

मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आंखों से देखा, विक्रम ने मुझे । आंखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया । विक्रम ने कुंती से कहा-अच्छा, तुझसे एक बात कहें, किसी से कहेगी तो नहीं? नहीं तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, किसी से न कहेगी । मैं अब की तुझे खूब पढ़ाऊंगा और पास करा दूँगा । बात यह है कि हम दोनों ने भी लाटरी का टिकट लिया है । हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर । अगर हमें रुपए मिले, तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे । सच!

कुंती को विश्वास न आया । हमने कसमें खाई । वह नखरे करने लगी । जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने-हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने को राजी हुई ।

लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी; वह जरा-सी बात न पची । सीधे अंदर भागी और एक क्षण में सारे घर में वह खबर फैल गई । अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्मा भी, चचा भी, पिता भी-बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती है । रुपए लेकर पानी में फेंक दिए । घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी? क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते? और तुम भी मास्टर साहब, बिलकुल घोंघा हो । लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, उसे और चौपट किए डालते हो ।

विक्रम तो लाडला बेटा था । उसे और क्या कहते । कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाए, तो आफत ही आ जाए । मुझ पर सारा गुस्सा उतरा ।