आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया-जुलाई की बीसवीं तारीख क़त्ल की रात । हम प्रात:काल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा था, आशा और भय के द्वंद्व का । दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगास्नान किया था और मंदिर में बैठे पूजन कर रहे थे । आज मेरे मन में श्रद्धा जागी । मंदिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपादृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन डिज़र्व (Deserve) करता है? विक्रम सूट-बूट पहने मंदिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा-मैं डाकखाने जाता हूँ और हवा हो गया । जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मंदिर के द्वार पर खड़े कंगालों को बाँटने लगे । दोनों ठाकुर भगवान के चरणों में लौ लगाए हुए थे-सिर झुकाए, आँखें बंद किए और अनुराग में डूबे हुए ।
बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले-भगवान तो बड़े भक्त-वत्सल हैं क्यों पुजारी जी?
पुजारीजी ने समर्थन किया, ‘हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।’
एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले क्यों, ‘पुजारीजी, भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, अन्तर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं।’
पुजारी ने समर्थन किया-‘हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसे जान जाते ? शबरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।’
पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।
सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा, ‘तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारीजी ?’
पुजारी बोला, ‘सरकार की फते है।’
छोटे ठाकुर ने पूछा, ‘और मेरी ?’
पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा, ‘आपकी भी फते है।’
बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से निकले – ‘प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी !’
एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मन्दिर से गाते हुए निकले – ‘अब पत राखो मोरे दयानिधन तोरी गति लखि ना परे !’
मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; उन्होंने थाल हटाकर कहा, आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है ?
मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुस्कराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।
बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा-बोलो राजा रामचंद्र की जय!
छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी-बोलो हनुमान जी की जय!
प्रकाश भी चीखा-दुहाई झक्कड़ बाबा की ।
विक्रम ने जोर से कहकहा लगाया और बोला-जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूँगा । बोलो है, मंजूर?
बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-पहले बता तो ।
‘ना! यों नहीं बताता ।’
छोटे ठाकुर बिगड़े-बताने के लिए एक लाख?
प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ाई-क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है?
‘अब अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ ।’
सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गए ।
‘अच्छा, तो सुनिए कान खोलकर । इस शहर का सफाया है । इस शहर का ही नहीं, संपूर्ण भारत का सफाया है । अमरीका के एक हब्शी का नाम आया है ।
बड़े ठाकुर झल्लाए-झूठ-झूठ बिलकुल झूठ ।
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला-कभी नहीं । तीन महीने की तपस्या यों ही रही? वाह!
प्रकाश ने छाती ठोंककर कहा-यहाँ सिर मुड़वाए और हाथ-तुड़वाए बैठे हैं, दिल्लगी है ।
इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिए निकले । वे बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे-मार ले गया, अमरीका का हब्शी! अभागा! पिशाच! दुष्ट!
अब कैसे किसी को विश्वास न आता? बड़े ठाकुर झल्लाए हुए मंदिर में गए और पुजारी को डिसमिस कर दिया-इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है । हराम का माल खाते हो और चैन करते हो!
छोटे ठाकुर साहब ने सिर पीटा और वहीं बैठ गए; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था । उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला ।
माता जी ने केवल इतना कहा-हमारे देवता क्या करें? किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लाएँगे?
रात को किसी ने खाना नहीं खाया । मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला-चलो, होटल से कुछ खा आएँ । घर में तो चूल्हा नहीं जला ।
मैंने पूछा-तुम डाकखाने से आए तो बहुत प्रसन्न क्यों थे?
उसने कहा-जब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आई । एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिंदुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जाएँगे । मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया और मुझे हँसी आई । जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को न्यौता दे बैठे- और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि…
मैं भी हँसा-हाँ, बात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पड़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं?
विक्रम मुसकुराकर बोला-अब क्या करोगे पूछकर? पर्दा ढका रहने दो ।