manorma munshi premchand
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जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की तस्वीर थी; उससे मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता, पर उस सूरत का साधु उसे न दिखायी देता था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थ-यात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बातें गौर से सुनने के बाद बोला-क्यों दाई, तो तुम्हें साधु-संन्यासी बहुत मिले होंगे।

लौंगी ने कहा-हां बेटा, मिले क्यों नहीं। एक संन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।

शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-जटा बड़ी-बड़ी थीं?

लौंगी-नहीं, जटा-सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुआ रंग के थे। हां, कमण्डल अवश्य लिये हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, वह एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते-क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे।

शंखधर बोला-दाई, तुमने यहां तार क्यों न दिया? हम लोग फौरन पहुंच जाते।

लौंगी-अरे, तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे क्यों तार देती?

शंखधर-मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोड़े। क्यों दाई, आजकल वह संन्यासीजी कहां होंगे?

मनोरमा-अब दाई यह क्या जाने? संन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दें?

शंखधर-अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?

लौंगी-मैं समझती हूं उनकी उम्र 40 वर्ष की रही होगी।

शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा-रानी अम्मा, यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी।

मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा-हां, हां वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं, बस, अब माना। अभी उम्र 40 की कैसे हो जाएगी?

शंखधर समझ गया कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय में फिर मुंह से एक शब्द भी न निकला; लेकिन वहां रहना अब उसके लिए असम्भव था। पुरी का हाल तो उसने भूगोल में पढ़ा था; लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे सन्तोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि पुरी को कौन रेल जाती है, वहां जाकर लोग ठहरते कहां हैं? घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रन्थ मिल जाय, यह सोचकर वह बाहर आया शोफर से बोला-मुझे घर पहुंचा दो।

घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवकसिंह मिल गये। शंखधर उन्हें देखते ही बोला-गुरुजी, जरा, कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिये, जिसमें तीर्थ-स्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।

गुरुसेवक ने कहा-ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।

शंखधर-अच्छा, तो मेरे लिये कोई ऐसी किताब मंगवा दीजिये।

यह कहकर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर तैयार कराके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था; लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा करके छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों में तीर्थ-यात्रा सम्बन्धी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बण्डल लेकर घर आया।

राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहां न था। अहल्या ने जाकर देखा, तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।

अहल्या ने कहा-चलकर खाना खा लो, दादाजी बुला रहे हैं।

शंखधर-अम्माजी, आज मुझे बिलकुल भूख नहीं है।

अहल्या-कोई नयी किताब लाये हो क्या? अभी भूख नहीं है। कौन-सी किताब है।

अहल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो-चार पंक्तियां पढ़कर बोली-इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है-जगन्नाथ, बदरीनाथ, काशी और रामेश्वर। यह किताब कहां से लाये?

शंखधर-आज ही तो बाजार से लाया हूं। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक संन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था।

अहल्या ने शंखधर को दया-सजल नेत्रों से देखा; पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह! मेरे लाल। तुझमें इतनी पितृ-भक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थीं। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं। आंसुओं के वेग को दबाती हुई वह बोली-बेटा, तुम्हारा उठने का जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊं।

शंखधर-अच्छा खा लूंगा अम्मा, किसी से खाना भेजवा दो, तुम क्यों लाओगी। अहल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गयी।

शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। उसे अब तक निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ मालूम न था। यह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ कि वह संन्यासी हो गये हैं। अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब वह थाल देखकर वह बड़े धर्म-संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता; तो अहल्या दुःखी होती है और खाता है तो कौर मुंह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मैं यहां चांदी के थाल में मोहन-भोग उड़ाने बैठा हूं और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा; लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहल्या उसके मन का भाव ताड़ गयी और स्वयं रोने लगी कौन किसे समझाता?

आज से अहल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कही भाग न जाय। उसने सबको मना कर दिया कि शंखधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। कहीं शंखधर अपने पिता के गृह-त्याग का कारण न जान ले। कहीं वह यह न जान जाय कि बाबूजी को राज-पाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा।

उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेकर स्वामी के साथ क्यों न चली गयी? राज्य के लोभ में वह पति तो पहले ही खो बैठी थीं, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी।

शंखधर का नाम स्कूल में लिखा दिया गया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहां ठहरते हैं, क्या खाते हैं, जहां रेलें नहीं हैं, वहां लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभाव को ताड़ती है; लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती है। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है; लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है तो उसे दया आ जाती है।

छुट्टियों के दिन शंखधर पितृगृह के दर्शन करने अवश्य जाता है। वह घर उसके लिए तीर्थ है। निर्मला की आंखें उसे देखने से तृप्त ही नहीं होती। दादा और दादी दोनों उसकी बालोत्साह से भरी बातें सुनकर मुग्ध हो जाते हैं; उनके हृदय पुलकित हो उठते हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो चक्रधर स्वयं बाल-रूप धारण करके उनका मन हरने आ गया है।

एक दिन निर्मला ने कहा-बेटा, तुम यहीं आ के क्यों नहीं रहते? तुम चले जाते हो, तो यह घर काटने दौड़ता है।

शंखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा-अम्माजी तो आती ही नहीं। वह क्यों कभी यहां नहीं आतीं, दादीजी?

निर्मला-क्या जानें बेटा, मैं उसके मन की बात क्या जानूं? तुम कभी कहते नहीं। आज कहना, देखो क्या कहती है?

शंखधर-नहीं दादीजी, यह रोने लगेंगी। जब थोड़े दिनों में मैं गद्दी पर बैठूंगा, तो यही मेरा राजभवन होगा। तभी अम्माजी आयेंगी।

जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी।

सहसा शंखधर ड्योड़ी में खड़ा हो गया और बोला-दादीजी आपसे कुछ मांगना चाहता हूं।

निर्मला ने विस्मित होकर सजल नेत्रों से उसे देखा और गदगद होकर बोली-क्या मांगते हो, बेटा?

शंखधर-मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मनोकामना पूरी हो।

निर्मला ने पोते को कंठ से लगाकर कहा-भैया, मेरा तो रोया-रोया तुम्हें आशीर्वाद दिया करता है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामनाएं पूरी करें।

शंखधर घर पहुंचा तो अहल्या ने पूछा-आज इतनी देर कहां लगाई बेटा, मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूं।

शंखधर-अभी तो ऐसी बहुत देर नहीं हुई, अम्मा! जरा दादीजी के पास चला गया था। उन्होंने तुम्हें आज एक सन्देशा भेजा है।

अहल्या-क्या सन्देशा है, सुनूं? कुछ तुम्हारे बाबूजी की खबर तो नहीं मिली है।

शंखधर-नहीं। बाबूजी की खबर नहीं मिली। तुम कभी-कभी वहां क्यों नहीं चली जातीं।

अहल्या ने ऊपरी मन से हां तो कह दिया, लेकिन भाव से साफ मालूम होता था कि बह वहां जाना उचित नहीं समझती। शायद वह कह सकती तो कहती-यहां से तो एक बार निकाल दी गयी, अब कौन मुंह लेकर जाऊं? क्या अब मैं कोई दूसरी हो गयी हूं।

अहल्या तश्तरी में मिठाइयां और मेवे लायी और एक लौंडी से पानी लाने को कहकर बेटे से बोली-वहां तो कुछ जल-पान न किया होगा, खा लो, आज इम इतने उदास क्यों हो?

शंखधर ने तश्तरी की ओर बिना देखे ही कहा-इस वक्त तो खाने का जी नहीं चाहता, अम्मा!

एक क्षण के बाद उसने कहा-क्यों अम्मा जी, बाबूजी को हम लोगों की याद भी कभी आती होगी?

अहल्या ने सजल-नेत्र होकर कहा-क्या जानें बेटा, याद आती तो काले कोसों बैठे रहते।

शंखधर-क्या वह बड़े निष्ठुर हैं अम्मा?

अहल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी। उसका कंठ-स्वर अश्रुप्रवाह में समा जा रहा था।

शंखधर ने फिर कहा-मुझे तो मालूम होता है, अम्माजी कि वह बहुत ही निर्दयी है, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ता। मेरा तो कभी-कभी ऐसा चित्त होता है कि देखूं तो प्रणाम तक न करूं, कह दूं-आप मेरे होते कौन हैं, आप ही ने तो हम लोगों को त्याग दिया है।

अब अहल्या चुप न रह सकी, कांपते हुए स्वर में बोली-बेटा, उन्होंने हमें त्याग नहीं दिया है। वहां उनकी जो दशा हो रही होगी, उसे मैं ही जानती हूं। हम लोगों की याद एक क्षण के लिए भी उनके वित्त से न उतरती होगी। खाने-पीने का ध्यान भी न रहता होगा। हाय! यह सब मेरा ही दोष है, बेटा! उनका कोई दोष नहीं।

शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा-अच्छा अम्माजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायेंगे कि नहीं?

अहल्या-तुझे? मैं तो जानती हूं, न पहचान सकें। तब तू जरा-सा बच्चा था। आज उनको गये दसवां साल है। न-जाने कैसे होंगे। भगवान करें जहां रहें, कुशल से रहें। बदा होगा, तो कभी भेंट हो ही जाएगी।

शंखधर अपनी ही धुन में मस्त था। उसने यह बातें सुनी ही नहीं। बोला-लेकिन अम्माजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊं। वह चाहे किसी वेष में हो, मैं पहचान लूंगा।

अहल्या-नहीं बेटा, तुम भी उन्हें न पहचान सकोगे। तुमने उनकी तस्वीरें ही तो देखी हैं। ये तस्वीरें बारह साल पहले की हैं। फिर, उन्होंने केश भी बढ़ा लिए होंगे।

शंखधर ने कुछ जवाब न दिया। बगीचे में जाकर दीवारों को देखता रहा फिर अपने कमरे में आया और चुपचाप बैठकर कुछ सोचने लगा। वह यहां से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।

एकाएक उसे खयाल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखाएं, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसलिए उन्हें बता देना चाहिए कि मैं कहा और किस काम के लिए जा रहा हूं। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है; जब चाहेंगे आयेंगे; हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जाएगा। उसने एक कागज पर पत्र लिया और अपने बिस्तर पर रख दिया।

आधी रात बीत चुकी थी। शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढ़ाता हुआ चला, कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहां लिए जाती है।