manorama - munshee premachand
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मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों? क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी?

चक्र-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है। आजाद रहना चाहता हूं।

वज्र-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों पास किया?

उस दिन से पिता और पुत्र में आये-दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमण्डी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते रहते थे।

चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते, पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। विद्या को जीविका का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते, लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवा-कार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें कुछ सूझता ही न था। दीनों की सेवा और सहायता में जो आनन्द और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहां?

मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जायगा, शादी-ब्याह की फिक्र होगी तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेगा। लेकिन जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखायी दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा।

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुंह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज में ही कोई जगह मिल सकती थी। लेकिन वह कोई ऐसा धन्धा चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरसेवक सिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की जरूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बड़ी जिम्मेदारी का था, किन्तु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको पूरा विश्वास था।

मनोरमा की उम्र अभी 13 वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को उसे पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी। एक दिन मनोरमा वाल्मीकि रामायण पढ़ रही थी। उसके मन में सीता के वनवास पर एक शंका हुई। वह इसका समाधान करना चाहती थी। उसने पूछा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं, आज्ञा हो तो पूछूं?

चक्रधर ने कातर भाव से कहा-क्या बात है?

मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला, तो वह चली क्यों गयीं? और जब रामचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अन्तःकरण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निन्दा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहां का न्याय था?

चक्रधर-यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जातीं और रामचन्द्र को राज- धर्म का आदर्श भी तो पालन करना था।

मनोरमा-यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है, यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ आप रामचंद्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?

चक्रधर-नहीं, मैं तो शायद ने निकालता।

मनोरमा-आप निन्दा की परवाह न करते।

चक्रधर-नहीं, मैं झूठी निन्दा की जरा भी परवाह न करता।

मनोरमा की आँखें खुशी से चमक उठीं प्रफुल्लित होकर बोली-यही बात मेरे मन में थी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। जब उनके आने को समय होता तो वह पहले ही आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती। अब उसे अपने मन में भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता।

ठाकुर हरसेवकसिंह की आदत थी की पहले दो-चार महीनों तक नौकरी का वेतन ठीक समय पर देते; पर ज्यों -ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उनके वेतन की याद भूलती जाती थी। चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था। न वह आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश माँगते थे। उधर घर से रोज तकरार होती थी। आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरजा लिखकर अपना वेतन माँगा। ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी की उन्हें फुरसत न थी और-उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें। चक्रधर शरमाते हुए गये और बहुत-कुछ शिष्टाचार के बाद रुपये मांगे। ठाकुर साहब हंसकर बोले-वाह बाबू जी, वाह! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं। चार महीने से वेतन नहीं मिला और आपने एक बार भी नहीं माँगा। आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था। सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी! खैर जाइए; दस-पाँच दिन में रुपये मिल जायेंगे।

चक्रधर कुछ न कह सके। लौटे तो मुख पर घोर निराशा छायी हुई थी। मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के पास ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था। उन्हें उदास देखकर पूछा-दादाजी ने आपको रुपये नहीं दिये?

चक्रधर उसके सामने रुपये-पैसे का जिक्र न करना चाहते थे। मुंह लाल हो गया, बोले-मिल जायेंगे।

मनोरमा-आपको 120 रु. चाहिए न?

चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है।

मनोरमा-जरूरत न होती तो आप माँगते ही न। देखिए, मैं जाकर….

चक्रधर ने रोक कर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं।

मनोरमा ने न मानी। तुरन्त घर में गयी और एक क्षण में पूरे रुपये लाकर मेज पर रख दिये।

वह तो पढ़ने बैठ गयी; लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपये लूं या न लूँ। उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए। पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रुपये लिए बाहर निकल आये। मनोरमा रुपये लिए हुए पीछे-पीछे बरामदे तक आयी। बार-बार कहती रही-इसे आप लेते जाइये, पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये।

चक्रधर डरते हुए घर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है, उस पर कालीन बिछी हुई और एक अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठ हुए हैं। उसने सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गये। अनुमान से वह ताड़ गये कि महाशय वर की खोज में आये हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?

निर्मला ने मुस्कुराकर कहा-नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर कुंवारे ही रहोगे ! जाओ बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है।

चक्रधर-यह है कौन?

निर्मला-आगरे के कोई वकील हैं; मुंशी यशोदानन्दन।

चक्रधर-मैं तो घूमने जाता हूं। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ।

इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हे, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।

चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गये। बोले-जाता तो हूं लेकिन कहे देता हूं, मैं यह जुआ गले में न डालूँगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाय और कोख के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।

चक्रधर बाहर आये तो, मुंशी यशोदानन्दन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अब की सरस्वती में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैमनस्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताये हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।

इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयता-पूर्ण आलोचना ने चक्रधर को मोहित कर लिया! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे-आज बहुत देर लगा दी। राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या।

यह कहकर मुंशीजी घर में चले गए तो यशोदानन्दन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?

चक्रधर-अभी तो निश्चय किया है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।

यशोदा-आप जैसे उत्साही युवकों का ऊँचे आदर्शों के साथ सेवा-क्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी और खींचा है। चक्रधर ने आंखें नीची करके कहा-लेकिन मैं अभी गृहस्थी के बन्धन में नहीं पड़ना चाहता। मेरा विचार है, कि गृहस्थी में फंसकर कोई तन-मन से सेवा-कार्य नहीं कर सकता।

यशोदा-मैं समझता हूं कि यदि स्त्री और पुरुष के विचार और आदर्श एक-से हों, तो स्त्री-पुरुष के कामों में बाधक होने के बदले सहायक हो सकती है। मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे। सेवा-कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू संस्कृत पढ़ी हुई है; घर के कामों में कुशल है। रही शक्ल-सूरत वह भी आपको इस तस्वीर से मालूम हो जाएगी।

यशोदानन्दन तस्वीर चक्रधर के सामने रखते हुए बोले -स्त्री में कितने ही गुण हों, लेकिन यदि उसकी सूरत पुरुष को पसन्द न आयी, तो वह उसकी नजरों से गिर जाती है; और उनका दाम्पत्य-जीवन दुःखमय हो जाता है। मैं तो यहां तक कहता हूं कि वर और कन्या में दो-चार बार मुलाकात भी हो जानी चाहिए। कन्या के लिए तो यह अनिवार्य है। पुरुष को स्त्री पसन्द न आयी, तो वह और शादियाँ कर सकता है। स्त्री को पुरुष पसन्द न आया, तो उसकी सारी उम्र रोते ही गुजरेगी।

चक्रधर के पेट में चूहे दौड़ने लगे कि तस्वीर क्यों कर ध्यान से देखूं। वहीं देखते शरम आती थी, मेहमान को अकेला छोड़कर घर में न जाते बनता था। कई मिनट तक तो सब्र किये बैठे रहे; लेकिन न रहा गया। पान की तश्तरी और तस्वीर लिए हुए घर में चले आये। अपने कमरे में आकर उन्होंने उत्सुकता से चित्र पर आंखें जमा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो चित्र ने लज्जा से आँखें नीची कर ली हैं, मानो वह उनसे कुछ कह रही है। उन्होंने तस्वीर उलटकर रख दिया और चाहा कि बाहर चला जाऊँ लेकिन दिल न माना, फिर तस्वीर उठा ली और देखने लगे। आंखों को तृप्ति ही न होती थी। चित्र हाथ में लिए हुए वह भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे। यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानन्दन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल गए, सेवा-सिद्धान्त भूल गये, आदर्श भूल गये, भूत और भविष्य वर्तमान में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था, और वह चित्र की मधुर कल्पना थी!

सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज जमा था। मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक था। गला तो रसीला न था, पर ताल स्वर के ज्ञाता थे। बाहर आये तो मुंशीजी ने ध्रुपद की एक तान छेड़ दी थी। पंचम स्वर था, आवाज फटी हुई, सांस उखड़ जाती थी, बार-बार खांस कर साफ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे, पर साजिन्दे वाह-वाह की धूम मचाये हुए थे।

आधी रात के करीब गाना बन्द हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानन्दन बाहर आकर बैठे तो वज्रधर ने पूछा-आपसे कुछ बात-चीत हुई?

यशोदा-जी हां हुई, लेकिन नहीं खुले।

वज्रधर-विवाह के नाम के चिढ़ता है।

यशोदा-अब शायद राजी हो जायें।

प्रातःकाल यशोदानन्द ने चक्रधर से पूछा-क्यों बेटा, एक दिन के लिए मेरे साथ आगरे चलोगे?

चक्रधर-मुझे तो आप इस जंजाल में न फंसाये, तो बहुत अच्छा हो।

यशोदा-तुम्हें जंजाल में नहीं फंसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा सहायक और मित्र दे रहा हूं जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्तव्य समझेगी। यों तो मैं मन से आपको अपना दामाद बना चुका; पर अहल्या की अनुमति ले लेनी आवश्यक समझता हूं। आप भी शायद यह पसन्द न करेंगे कि मैं इस विषय में स्वेच्छा से काम लूं।

चक्रधर बड़े संकट में पड़े। सिद्धान्त-रूप में वह विवाह के विषय में स्त्रियों को पूरी स्वाधीनता देने के पक्ष में थे, पर इस समय आगरे जाते उन्हें बड़ा संकोच हो रहा था।

यशोदानन्दन ने कहा-मैं आपके मनोभावों को समझ रहा हूं। पर अहल्या उन चंचल लड़कियों में नहीं है, जिसके सामने जाते हुए आपको शरमाना पड़े। आप उसकी सरलता देखकर प्रसन्न होंगे। मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूं, पर शायद आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे।

चक्रधर ने सोचा-अगर मैंने और ज्यादा टालमटोल की, तो कहीं यह महाशय सचमुच ही अहल्या को यहां न पहुंचा दें। बोले-जी नहीं, मुनासिब नहीं मालूम होता। मैं ही चला चलूंगा।

घर में निर्मला तो खुशी से राजी हो गयी। हां, मुंशी वज्रधर को कुछ संकोच हुआ, लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेंगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरसेवक सिंह को सूचना देनी थी।

जब चक्रधर पहुंचे तो ठाकुर साहब अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुश बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहान्त हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौंडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर संभाला कि ठाकुर साहब उस पर रीझ गये और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया। लौंगी सरल हृदय, सदय, हंसमुख, सहनशील स्त्री थी, जिसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थी। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था। वह उदार न हो; पर कृपण न थी। ठाकुर साहब कभी-कभी उस पर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक बार मारा भी था; पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता था। ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस हुई थी। ठाकुर साहब झल्ला-झल्ला कर बोल रहे थे; और लौंगी अपराधियों की भांति सिर झुकाये खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-बाबू जी आये हुए हैं, आप से कुछ कहना चाहते हैं।

ठाकुर साहब की भौहें तन गयीं। बोले-कहना क्या चाहते होंगे, रुपये मांगने आये होंगे। अच्छा, जाकर कह दो कि आते हैं, बैठिए।

लौंगी-इनके रुपए दे क्यों नहीं देते? बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं मांगते; कई महीने तो चढ़ गये।

यह कहकर लौंगी गयी और रुपये लाकर ठाकुर साहब से बोली-लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।

ठाकुर साहब ने झुंझलाकर रुपये उठा लिए और बाहर चले। लेकिन रास्ते में क्रोध शान्त हो गया। चक्रधर के पास पहुंचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।

चक्रधर-आप को कष्ट देने आया हूं।

ठाकुर-नहीं-नहीं मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। यह लीजिए आपके रुपये।

चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूं! मुझे एक काम से आगरा जाना है। शायद दो-तीन दिन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूं।

ठाकुर-हां, हां, शौक से जाइए; मुझसे पूछने की जरूरत न थी।

ठाकुर साहब अन्दर चले गए, तो मनोरमा ने पूछा-आप आगरे क्या करने जा रहे हैं।

चक्रधर-एक जरूरत से जाता हूं।

मनोरमा-कोई बीमार हैं क्या?

चक्रधर-नहीं, बीमार कोई नहीं है।

मनोरमा-फिर क्या काम है, बताते क्यों नहीं? जब तक न बतलाइयेगा मैं जाने न दूंगी।

चक्रधर-लौटकर बता दूंगा। तुम किताब देखती रहना।

मनोरमा-जी नहीं, मैं यह नहीं मानती, अभी बतलाइए। आप अगर मुझसे बिना बताये चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढ़ूंगी।

चक्रधर-यह तो बड़ी टेढ़ी शर्त है। बतला ही दूं। अच्छा, हंसना मत। तुम जरा भी मुस्कुराई और मैं चला।

मनोरमा-मैं दोनों हाथों से मुंह बन्द किये लेती हूं।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मेरे विवाह की कुछ बातचीत है। मेरी तो इच्छा नहीं है, पर एक महाशय जबरदस्ती खींचे लिए जाते हैं।

यह कहकर चक्रधर उठ खड़े हुए। मनोरमा भी उनके साथ-साथ आयी। जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरन्त अपने कमरे में लौट आयी। उसी आंखें डबडबायी हुई थीं और बार-बार रुलाई आती थी, मानो चक्रधर किसी दूर देश जा रहे हों!

संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली, तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से कहा-मैंने अहल्या के विषय में आप से झूठी बातें कही है। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ पता नहीं।

चक्रधर ने बड़ी-बड़ी आंखें करके कहां-तो फिर आपके यहां कैसे आयी?

यशोदा-विचित्र कथा है। 15 वर्ष हुए, एक बार सूर्यग्रहण लगा था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आये थे। वहीं हमें यह लड़की नाली में पड़ी रोती मिली। बहुत खोज की; पर उसके मां-बाप का पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गये। 4-5 वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बन्द हो गया तो, अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में भी संदेह नहीं। मैंने आप से सारा वृत्तान्त कह दिया। अब आप को अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें। हां, इतना कह सकता हूं कि ऐसा रत्न आप फिर न पायेंगे। मैं यह जानता हूं कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी, पर यह भी जानता हूं कि वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करती और अन्त में उस पर विजय ही पाती हैं।

चक्रधर गहरे विचार में पड़ गये। एक तरफ अहल्या का अनुपम सौन्दर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिन्दा का भय, मन में तर्क-संग्रह होने लगा। यशोदानन्दन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा-आप चिन्तित देख पड़ते हैं और चिन्ता की बात भी है; लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्तव्य और न्याय से मुंह मोड़े तो फिर हमारा उद्धार हो चुका। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा है और यदि आप ने भी अपने कर्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी।

चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आंखें बन्द कर सकते थे; लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असम्भव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूं कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूं। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है; लेकिन कर्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।

यशोदानन्दन ने चक्रधर को गले लगते हुए कहा-भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।

गाड़ी आगरे पहुंची, तो दिन निकल आया था। मुंशी यशोदानन्दन अभी कुलियों को पुकार ही रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। उन्होंने आश्चर्य से पूछा-क्यों साहब, आज यह सख्ती क्यों है?

थानेदार-आप लोगों ने जो कांटे बोये हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फिसाद हो गया है।

इतने मैं समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुंचा। यशोदानन्दन ने आगे बढ़कर पूछा-क्यों राधामोहन, यह क्या मामला हो गया।

राधा-जिस दिन आप गये उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का आगमन हुआ। तभी तो मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिन्दुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय पर कुरबानी न होने पायेगी। दोनों तरफ से तैयारियां हो रही हैं; हम लोग तो समझाकर हार गए।

यशोदानन्दन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले।

राधा-उन्हीं के द्वार पर तो कुरबानी होने जा रही है।

यशोदा-ख्वाजा महमूद के द्वार पर कुरबानी होगी! इसके पहले या तो मेरी कुरबानी हो जायेगी, या ख्वाजा महमूद की। तांगे वाले को बुलाओ।

राधा-बहुत अच्छा हो कि आप इस समय यही ठहर जायें।

यशोदा-वाह-वाह! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊं। जो औरों पर बीतेगी, वहीं मुझ पर बीतेगी, इससे क्या भागना। तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी।

तीनों आदमी तांगे पर बैठकर चले। सड़कों पर जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियां छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। दुकानें सब बन्द थीं, कुंजड़े भी साग बेचते नजर न आते थे। हां, गलियों में लोग जमा हो-होकर बातें कर रहे थे।

कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किये बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। लेकिन यशोदानन्दन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिह्न दिखाई दे रहा था।

जब तांगा ख्वाजा महमूद के मकान के समाने पहुंचा तो हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डण्डे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाये हुए थे। यशोदानन्दन को देखते ही कई आदमी उनकी तरह लपके; लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा-मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूं। कहां हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गये।

जरा देर में एक लम्बा-सा आदमी, गाढ़े की अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। यही ख्वाजा महमूद थे।

यशोदानन्दन ने त्योरियां बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ले में कभी कुरबानी हुई है?

महमूद-जी नहीं, जहां तक मेरा ख्याल है, यहां कभी कुरबानी नहीं हुई।

यशोदा-तो फिर आज आप यहां कुरबानी करने की नयी रस्म क्यों निकल रहे हैं?

महमूद-इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जज्बात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक को भूल गये थे; लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जज्बात की परवाह नहीं करते, तो कोई, वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जज्बात की परवाह करें।

यशोदा-इसके यह माने है कि कल आप हमारे द्वारों पर हमारे मन्दिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें? आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे, तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।

यह कहकर यशोदानन्दन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा; पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। जब तांगा यशोदा नन्दन के द्वार पर पहुंचा तो वहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गयी। लोगों ने चारों तरफ से उन्हें घेर लिया।

यशोदनन्दन तांगे से उतर पड़े और ललकार कर बोले-भाइयों, आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर आज हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मन्दिर के सामने गौ-हत्या न होगी!

कई आवाजें एक साथ आयी-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे।

आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढ़े और जनता ‘महाबीर’ और ‘श्री रामचन्द्र की जय’-ध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डण्डे संभाले। करीब था कि दोनों में मुठभेड़ हो जाय कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदनन्दन के सामने खड़े हो गए और विनीत, किन्तु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न पायेगा।

यशोदानन्दन ने चिढ़कर कहा-हट जाओ। अगर एक क्षण भी देर हुई तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा।

चक्रधर-मित्रों, जरा विचार से काम लो।

कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।

चक्रधर-तो फिर जाइए; लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।

सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली; लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

यशोदानन्दन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है। अगर वह बड़ा वीर है, तो क्यों नहीं आगे आकर अपनी वीरता दिखता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है?

एक आवाज-धर्म-द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।

यशोदानन्दन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिन्दू है।

एक आवाज-सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जायें।

यशोदानन्दन-आप लोग सुन रहे हैं, मैं सच्चा हिन्दू नहीं हूं मैं मौका पड़ने पर बगलें झांकता हूं और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूं। ऐसा आदमी आपका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मन्त्री बनायें, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों।

यह कहते हुए मुंशी यशोदनन्दन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उन्होंने एक न मानी। उनके जाते ही यहाँ आपस में ‘तू-तू मैं-मैं’ होने लगी।

चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपक कर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे ओर उच्च स्वर से बोले -हजरत, मैं अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं।

एक आदमी-सुनो, सुनो यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खड़ा था।

चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। लेकिन क्या वह लाजमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए? इस्लाम ने हमेशा दूसरों के जज्बात का एहतराम किया है। अगर आप हिन्दू जज्बात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।

एक मौलवी ने जोर देकर कहा-ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी।

ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुने रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले -क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?

मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।

ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब! अगर दस सिपाही आकर यहाँ खड़े हो जायें, तो बगलें झांकने लगिएगा!

मौलवी-भाईयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए की दीनी मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है, या उमरा का!

एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा-आप बिस्मिलाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।

यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सींगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। उन्होंने तेजी से! लपककर गाय की गरदन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इनसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।

सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी ने क्रोध से उन्मत होकर कहा-कलाम-पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।

चक्रधर-हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुरबानी हो।

ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?

चक्रधर-मैं एक खुदा का कायल हूं। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?

ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?

चक्रधर-जरूर करता हूं उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूं, अगर वह पाक-साफ न हो।

ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। जब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि कुरबानी न होगी।

ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस ‘नौजवान’ की ‘हिम्मत’ और ‘जवांमर्दी’ की तारीफ करते हुए चले।

चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली।

उन्हें कमरे में बिठाकर यशोदानन्दन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा-आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी? भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।

अहल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों गौ-रक्षा की?

यशोदा-वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूं। यहां सैर करने आये हैं।

अहल्या- (वागीश्वरी से) अम्मा, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे।

पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोदानन्दन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। धीरे- धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालुजनों ने तो चक्रधर के चरण छुए।

भोजन के बाद ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहल्या ने कमरे की सफाई की। इन कामों से फुरसत पाकर वह एकान्त में बैठकर फूलों की एक माला गूंथने लगी। मन में सोचती थी, न-जाने कौन हैं, स्वभाव कितना सरल है? लजाने में तो औरतों से भी बड़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि यह इतने साहसी होंगे।

सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा-बेटी दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।

अहल्या ‘उंह’ करके रह गई। ही, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिये हुए कमरे में आये। वागीश्वरी और अहल्या दोनों खड़ी हो गयीं। यशोदानन्दन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गये। वागीश्वरी पंखा झलने लगी, लेकिन अहल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।

चक्रधर ने उड़ती हुई निगाहों से अहल्या को देखा। ऐसा मालूम हुआ मानो कोमल, स्निग्ध एवं सुगन्धमय प्रकाश की लहर-सी आंखों में समा गयी।

वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा-कुछ जल-पान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम-जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया! अहल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियां कर डालीं। कहा है वह माला, जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?

अहल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी, और आहिस्ता से बोली-क्या सिर में ज्यादा चोट आयी?

चक्रधर-नहीं तो; बाबूजी ने ख्वाहमख्वाह पट्टी बँधवा दी।

चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खासी आ रही है। कोई दवाई दे दो।

वागीश्वरी दवा देने चली गयी। अहल्या अकेली रह गयी, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा-आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।

अहल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।

वागीश्वरी ने आकर मुस्कराते हुए कहा-भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खायी। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बन्द हो गयी? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।

अहल्या-अम्मा, तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करतीं!

चक्रधर यहां कोई घण्टे-भर तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृत्तान्त पूछा-कै भाई हैं, कै बहिनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ या नहीं? चक्रधर को उसके व्यवहार में इतना मातृ-स्नेह भरा मालूम होता था, मानो उससे पुराना परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रही। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनायी जाय और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को भी लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहल्या और वागीश्वरी छत पर लेटी, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहल्या, सो गयी क्या?

अहल्या-नहीं अम्मा, जाग तो रही हूं।

वागीश्वरी-हां, आज तुझे क्यों नींद आयेगी! इनसे ब्याह करेगी? तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पास और कुछ हो या न हो हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्से में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा।

अहल्या ने डबडबायी हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा; पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है! उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।