manorama - munshee premachand
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मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रिसायत के दीवान की लड़की को पढ़ाये और वह इस स्वर्ण-संयोग से लाभ न उठायें! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे।

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बातें करने में तो निपुण थे ही, दो-ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुंचे और ऐसी लच्छेदार बातें कीं, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ायी कि रानीजी मुग्ध हो गयीं! सोचा-इस आदमी को रख लूं तो इलाके की आमदनी बढ़ जाय। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से सारी बातें सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को 25 रु. मासिक की तहसीलदारी मिल गयी। मुंह-मांगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।

अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं! जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी। कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचला लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर धौंस जमाकर दो-चार बोतल ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब को घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाये। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत-कुछ पूरा कर दिया; लेकिन यह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया रानी साहिबा के साथ निभ ही गयी, तो कै दिन। राजा साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान साहब ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती! इसलिए उन्होंने पहले ही से नये राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था रानी साहिबा के चचेरे-देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनन्द भोगा था। अब रानी के निःसन्तान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव, जो उनके दादा को गुजारे के दिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने 50 वर्ष काट दिये थे-यहां तक कि विशालसिंह के पास इतनी भी सम्पत्ति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी, सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रातःकाल था; माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गरम पानी से स्नान किया, कपड़े पहने; बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे, तो ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा-सब कुशल आनन्द है न?

ठाकुर-जी हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?

मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा-सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों के पौ बाहर हैं। दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं। रोज जगदीशपुर से 16 कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

ठाकुर-अन्धेर है और कुछ नहीं? यह महा अन्याय है, बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूं।

मुंशी-आप से लोगों को बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। चमारों पर भी यही आफत है। दस-बारह चमार रोज साईसी करने के लिए पकड़ बुलाये जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाय। अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा, या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर-चमारों को इलाके से निकालना दिल्लगी नहीं है! ये लोग समझते हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के जमाने में थी। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। मैं रियासत की काया पलट कर दूंगा। सुनता हूं पुलिस आये-दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को वहां कदम न रखने दूंगा।

मुंशी-सड़कें इतनी खराब हो गयी हैं कि एक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर-सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर-सर्विस जारी कर दूंगा। जिसमें मुसाफिरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाके में लाखों बीघे ईख बोयी जाती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूं। शेखी नहीं मारता, इलाके में एक बार रामराज्य स्थापित कर दूंगा। आप ने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी-हां, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपये देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि जमानत के तौर पर कोई गांव लिख दिया जाय।

ठाकुर-तो जाने दीजिए। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपये दे, तो दे, लेकिन रिसायत की इंच-भर भी जमीन रेहन नहीं कर सकता। मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपये देने पर राजी न होगा। ये बला के चघड़ होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। इन्हीं के हाथों आज मेरी यह दुर्गति है! इन नर-पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पांच हजार लिये थे, जिनके पचास हजार हो गये। और मेरे तीन गांव, जो इस वक्त दो लाख के सस्ते थे, नीलाम हो गये। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहां अभी यह बातें हो ही रही थीं कि जनानाखाने में से कलह-शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियो में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही कांटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यंत गर्वशीला थी; नाक पर मक्खी भी न बैठने देती। वह अपनी सहपत्नियों पर उसी भांति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। वह रानी जगदीशपुर की रानी की सगी बहन थीं। दया और विनय की मूर्ति, बड़ी विचारशील और वाक्य-मधुर; जितना कोमल अंग था, उतना ही कोमल हृदय भी था। घर में इस तरह रहती थी मानो थी ही नहीं। उन्हें पुस्तकों से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ-न-कुछ पढ़ा लिखी करती थीं। सबसे अलग-विलग रहती थीं; न किसी के लेने में; न देने में, न किसी वैर, से न प्रेम।

तीसरी स्त्री का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह भी प्राणपण से उनकी सेवा करती थीं। इनमें प्रेम की मात्रा अधिक थी, या माया की-इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन-हृदय न थी; जो कुछ मन में होता, वही मुख में। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे चिड़िया अपने अण्डे को सेती है।

ठाकुर साहब ने अन्दर जाकर वसुमती से कहा-तुम घर में रहने दोगी या नहीं? जरा भी शरम-लिहाज नहीं, जब देखो संग्राम मचा रहता है। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गये।

वसुमती-कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर-तो जहर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फायदा!

वसुमती-क्या वह महारानी लड़ने के लिए कम थीं कि तुम उनका पक्ष लेकर आ दौड़े?

रोहिणी-आप चाहती हैं कि मैं कान पकड़ कर उठाऊ या बैठाऊँ तो यहां कुछ आप के गांव में नहीं बसी हूं।

ठाकुर-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

रोहिणी-वही हुई, जो रोज होती है। मैंने हिरिया से कहा, जरा मेरे सिर में तेल डाल दे। मालिकन ने उसे तेल डालते हुए देखा, तो आग हो गयीं। तलवार खींचे हुए आ पहुंचीं और उसका हाथ पकड़कर खींच ले गयीं। आज आप निश्चय कर दीजिए की हिरिया उन्हीं की लौंडी है या मेरी भी।

वसुमती-वह क्या निश्चय करेंगे, निश्चय मैं करूंगी। हिरिया मेरे साथ मेरे नैहर से आयी है और मेरी लौंडी है। किसी दूसरे का उस पर कोई दावा नहीं है।

रोहिणी-सुना आप ने। हिरिया पर किसी का दावा नहीं है, वह अकेली उन्हीं की लौंडी है।

ठाकुर-हिरिया इस घर में रहेगी, तो उसे सबका काम करना पड़ेगा।

वसुमती वह सुनकर जल उठी। नागिन की भांति फुफकार कर बोली-इस वक्त तो आप ने चहेती रानी की ऐसी डिग्री कर दी, मानों यहां उन्हीं का राज्य है। ऐसे ही न्यायशील होते तो सन्तान का मुंह देखने को न तरसते!

ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे। कुछ जवाब न दिया। बाहर आकर कई मिनट तक मर्माहत दशा में बैठे रहे। वसुमती इतनी मुंहफट है, यह उन्हें आज मालूम हुआ। ताना ही देना था, तो और कोई लगती हुई बात कह देती। यह तो कठोर-से-कठोर आघात है, जो वह कर सकती थी। ऐसी स्त्री का मुंह न देखना चाहिए।

सहसा उन्हें एक बात सूझी। मुंशीजी से बोले -यदि आप यहां के किसी विद्वान ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहां भेज दीजिएगा। मुझे एक विषय में उनसे कुछ पूछना है।

मुंशी-आज ही लीजिए, यहां एक-से-एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं। आप मुझे कोई गैर न समझिए। जब, जिस काम की इच्छा हो, मुझे कहला भेजिए। सिर के बल दौड़ा आऊंगा। मैं तो जैसे महारानी को समझता हूं वैसे ही आप को भी समझता हूं।

ठाकुर-मुझे आप से ऐसी ही आशा है। जरा रानी साहबा का कुशल समाचार जल्द-जल्द भेजिएगा। वहां आप के सिवा मेरा कोई नहीं है। आप के ऊपर मेरा भरोसा है। जरा देखिएगा, कोई चीज इधर-उधर न होने पाये, यार लोग नोच-खसोट न शुरू कर दें।

मुंशी-आप इससे निश्चिन्त रहें। मैं देख-भाल करता रहूंगा।

ठाकुर-हो सके, तो जरा यह भी पता लगाइएगा कि रानी ने कहां-कहां से कितने रुपए कर्ज लिए हैं।

मुंशी-समझ गया, यह तो सहज ही में मालूम हो सकता है।

ठाकुर-जरा इसका भी तो पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है।

वज्रधर ने ठाकुर साहब के मन का भाव ताड़कर दृढ़ता से कहा-महाराज, क्षमा कीजिएगा, मैं आप का सेवक हूं पर रानीजी का भी सेवक हूं। उनका शत्रु नहीं हूं। आप और वह दोनों सिंह और सिंहनी की भांति लड़ सकते हैं। मैं गीदड़ की भांति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमान जनक समझता हूं। मैं वहां तक तो सहर्ष आप की सेवा कर सकता हूं जहां तक रानीजी का अहित न.. हो। मैं तो दोनों ही द्वारों का भिक्षुक हूं।

ठाकुर साहब दिल में शरमाये, पर इसके साथ मुंशीजी पर उनका विश्वास और भी दृढ़ हो गया। बात बनाते हुए बोले -नहीं-नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा। छीः! छीः! मैं इतना नीच नहीं।

ठाकुर साहब ने बात तो बनायीं, पर उन्हें स्वयं ज्ञात हो गया कि बात बनी नहीं। अपनी झेंप मिटाने को वह समाचार-पत्र देखने लगे। इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगे तो मुझसे मिल लीजियेगा।

ठाकुर साहब ने गरजकर कहा-ऐसी क्या बात है, जिसको कहने की इतनी जल्दी है। इन बेचारों को देर हो रही है। कुछ निठल्ले थोड़े ही हैं कि बैठे-बैठे औरतों का रोना सुना करें। जा, अन्दर बैठ!

यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए, मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं। वह वसुमती को उनसे बातें करने का अवसर न देना चाहते थे। मुंशीजी को भी अब विवश होकर विदा मांगनी पड़ी।

मुंशीजी यहां से चले, तो उनके मन में यह शंका समायी हुई थी कि ठाकुर साहब कहीं मुझसे नाराज तो नहीं हो गये। हां; इतना सन्तोष था कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। इस विचार से मुंशी जी और अकड़कर घोड़े पर बैठ गये। वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़ रहे हैं। उनकी आत्मा कभी इतनी गौरवोन्मत्त न हुई थी। चिन्ताओं को कभी उन्होंने इतना तुच्छ न समझा था।