lottery by munshi premchand
lottery by munshi premchand

विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब और ताऊ, छोटे ठाकुर साहब दोनों नास्तिक थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ानेवाले । मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान और ईश्वरभक्त हो गए थे । बड़े ठाकुर साहब प्रात:काल गंगास्नान करने जाते और मंदिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चंदन लपेटे घर लौटते । छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम नाम लिखना शुरू कर देते । धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते । शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत-कथा तन्मय होकर सुनते । विक्रम के बड़े भाई, प्रकाश को साधु महात्माओं पर अधिक विश्वास था । वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था । उस उम्र में भी उन्हें सिंगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं । लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं । वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण । हमारा धर्म स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है । हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था । हम दोनों भी ज्योतिषियों और पंडितों से कभी-कभी प्रश्न कर लिया करते थे ।

ज्यों-ज्यों लाटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शांति उड़ती जाती थी । हमेशा उसी ओर मन रंगा रहता । मुझे अकारण संदेह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इनकार कर दे, तो मैं क्या करूँगा । साफ इनकार कर जाए कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं । न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत । सब कुछ विक्रम की नीयत पर है । आदमी ऐसा तो नहीं है; मगर भाई दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है । अभी ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है? परीक्षा का समय तो तब आएगा, जब दस लाख रुपए हाथ में होंगे । मैंने अपने अंत:करण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपए बिना कान-पूँछ हिलाए विक्रम के हवाले कर देता? कौन कह सकता है; मगर अधिक संभव यही था कि मैं हीले-हवाले करता, कहता-तुमने मुझे पाँच रुपए उधार दिए थे । उसके दस ले लो, सौ ले लो और क्या-करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बेईमानी न होती ।

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा-कहीं हमारा टिकट निकल आए, तो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया ।

वह सरल भाव से मुसकुराया, मगर यह थी उसकी आत्मा की झलक, जिसे वह मजाक की आड़ में छिपाना चाहता था ।

मैंने चौंककर कहा-सच! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है?

‘लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है…अच्छा मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊँ?

मेरा खून सर्द हो गया । आँखों के सामने अँधेरा छा गया ।

‘मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था ।’

‘मगर पाँच लाख! सोचो तो दिमाग चकरा जाता है ।’

‘तो अब से लिखा-पड़ी कर लो । यह संशय रहे ही न!’

विक्रम ने हँसकर कहा-तुम बड़े शक्की हो यार! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था । भला, ऐसा कहीं हो सकता है? पाँच लाख क्या पाँच करोड़ भी हों, तब भी ईश्वर चाहेगा तो नीयत में फर्क न आने दूँगा ।

किंतु मुझे उसके इस आश्वासन पर बिलकुल विश्वास न आया । मन में एक संशय बैठ गया ।

मैंने कहा-मैं जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, पर लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हर्ज है?

‘तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा । दस लाख की कोर्ट फीस ही साढ़े सात हजार हो जाएगी । किस भ्रम में हैं आप?’

मैंने सोचा, सादी लिखा-पड़ी के बल पर कानूनी कार्यवाही न कर सकूँगा । पर इन्हें लज्जित करने का, इन्हें जलील करने का और इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर मेरे हाथ आएगा । बोला-मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जाएगा ।

विक्रम ने लापरवाही से कहा-जिस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्या समय नष्ट करें?

मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फर्क आ गया । नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती है? बिगड़कर कहा-तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गई ।

उसने निर्लज्जता से कहा-तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?

‘मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है ।’

‘रहने भी दो । अच्छे-अच्छों की नीयत बदलते देखा है । तुम्हें इसी वक्त लेखाबद्ध होना पड़ेगा । मुझे तुम पर विश्वास नहीं रहा ।’

‘यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं, तो मैं भी नहीं लिखता ।’

‘तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपए हजूम कर जाओगे?’

‘किसके रुपए और कैसे रुपए?’

‘मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अंत न हो जाएगा, बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा ।’

हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अंदर दहक उठी ।

सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया । यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे । उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो- सकती है । बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे । हम दोनों दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गए । दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठकर खड़े हो गए थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ आए थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्योरियाँ चढ़ी हुई, मुट्ठियाँ बँधी हुई । मालूम होता था, बस हाथापाई हुई ही समझो ।

छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा-सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आए, वह सबका है, बराबर ।

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया-हरगिज नहीं, अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं । मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं । यह वैयक्तिक प्रश्न है ।

‘इसका फैसला अदालत से होगा ।’

‘शौक से अदालत जाइए । अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी या मेरे नाम लाटरी निकली, तो आपका उससे कोई संबंध न होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लाटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उसका कोई संबंध न होगा ।’

‘अगर मैं जानता कि आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था ।’

‘यह आपकी गलती है ।’

‘इसीलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।’

‘यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए था । जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता । अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आएँ तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा ।’

‘मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते ।’

‘आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर और न कोई महात्मा ।’

विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आईं और दोनों को समझाने लगीं ।

छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा-आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइए जो चार-चार टिकट लिए हुए बैठे हैं । मेरे पास क्या है, एक टिकट । उसका क्या भरोसा! मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपए मिलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बिगड़ जाए, तो लज्जा और दुख की बात है ।

ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा-अच्छा, मेरे रुपए में से आधे तुम्हारे । अब तो खुश हो ।

बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी-क्यों आधे ले लेंगे? मैं एक फैला भी न दूँगा । हम उदारता से काम लें, फिर भी उन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा । आधे का दावा किस नियम से हो सकता है?- न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक ।

छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा-सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं!

‘जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है?’

‘यह वकालत निकल जाएगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूँगा ।’

‘बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लंदन का ।’

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए कपड़ों पर ताजा खून के दाग लगाए, प्रसन्न मुख आकर एक आरामकुर्सी पर गिर पड़े । बड़े ठाकुर ने घबराकर पूछा- यह तुम्हारी क्या हालत है जी? ऐं, यह चोट कैसे लगी? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गई ।

प्रकाश कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहे, फिर मुसकुराकर बोले-जी, कोई बात नहीं । ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी ।

‘कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी? सारा हाथ और सिर सूज गया है । कपड़े खून से तर । यह मुआमला क्या है? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गई?’

‘बहुत मामूली चोट है, दो-चार दिन में अच्छी हो जाएगी । घबराने की कोई बात नहीं ।’

प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, शांत मुसकान थी । क्रोध लज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था ।

बड़े ठाकुर ने व्यग्र होकर पूछा-लेकिन हुआ क्या, बताते क्यों नहीं? मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूँ?

प्रकाश ने हलके मन से कहा-मार-पीट किसी से नहीं हुई । बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था । आप तो जानते हैं, वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं । जो डरकर भागा, वह गया । जो पत्थर की चोट खाकर भी उनके पीछे लगा रहा वह पारस हो गया । वह यही परीक्षा लेते हैं । आज मैं वहाँ पहुँचा, तो कोई पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिए, कोई बहुमूल्य भेंट लिए, कोई कपड़ों का थान लिए । झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे थे । एकाएक उन्होंने आँखें खोलीं और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े । फिर क्या था, भगदड़ मच गई । एक भी न टिका । अकेला मैं घंटाघर की तरह वहीं डटा रहा । बस उन्होंने पत्थर चला ही दिया । पहला निशाना सिर में लगा । खोपड़ी भन्ना गई, खून की धारा बह चली; लेकिन मैं हिला नहीं । फिर बाबा जी ने दूसरा पत्थर फेंका । वह हाथ में लगा । मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया । जब होश आया तो वहाँ सन्नाटा था । बाबाजी भी गायब हो गए थे । अंतर्धान हो जाया करते हैं । किसी तरह उठा और सीधा डाक्टर के पास गया । उन्होंने देखकर कहा- हड्डी टूट गई है और पट्टी बाँध दी; गर्म पानी से सेंकने को कहा है । चोट लगी तो लगी; अब लाटरी मेरे नाम आई धरी है । यह निश्चित है । ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो । मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूँगा ।

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखाई दी । फौरन पलंग बिछ गया । प्रकाश उस पर लेटे । ठकुराइन पंखा झलने लगीं, उनका भी मुख प्रसन्न था । इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा न था ।

छोटे ठाकुर के पेट में चूहे दौड़ रहे थे । ज्यों ही बड़े ठाकुर भोजन करने गए और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गईं, त्यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा-क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं जोर से तो क्या मारते होंगे?

प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा-अरे, पत्थर नहीं मारते, बमगोला मारते हैं ।

कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक ही पत्थर में टें हो गाए । कितने ही तो मर गए; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला । और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते, जब तक आप गिर न पड़े और बेहोश न हो जाएँ, वह मारते ही जाएँगे; मगर रहस्य यही है कि आप जितनी ज्यादा चोटें खाएँगे उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचेंगे.. ।

प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब धरा उठे । पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी ।