gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

लक्ष्मी और रेवती बुर्के ओढ़कर एक संदूक और एक बैग लेकर खरीफ चाचा के साथ चली गईं। जाते-जाते रेवती बुरी तरह रो रही थी और लक्ष्मी बार-बार बेचैन हो रही थी और बार-बार अमर को आशीर्वाद के साथ संभलकर रहने की भी सीख देती रही।

गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उन लोगों को विदा करने के बाद अमर लौटकर गली में आया। खोखे के नीचे पड़े हुए बेहोश नौजवान को उठाकर अपने घर में ले आया। दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया।

अंदर कमरे में ले जाकर अमर ने उसे फर्श पर लिटा दिया। उसके हाथ पीछे बांधकर कमरे के नीचे कर दिये और टांगे इस प्रकार पीछे की तरफ मोड़कर बांधी कि उसके पंजे कमर से मिल गए और घुटने दोहरे हो गए।

उसने एक पतली-सी डोरी का फंदा बनाकर नौजवान के गले में डालकर इस प्रकार गांठ बना दी कि एक झटके में ही सांस रुक जाए।

फिर एक बर्तन में पानी लाकर उसने नौजवान के चेहरे पर छींटे मारे। कुछ देर बाद नौजवान की आंखें खुल गईं। साथ ही गले से कराह भी निकली।

अमर ने उसके मुंह पर इतनी सख्ती से हाथ रखा कि वह बिलबिला गया और अमर कानाफूसी में बोला‒“अगर आवाज जरा-सी भी ऊंची हुई तो याद रखो। तुम्हारे गले में ऐसा फंदा है, जिसका सिर्फ एक झटका तुम्हें मौत के घाट उतार देगा।”

नौजवान के चेहरे पर घोर पीड़ा के भाव थे। साथ ही अमरसिंह की निर्मम और ठंडी आवाज सुनकर उसका चेहरा भय से पीला पड़ गया।

अमर सिंह ने होंठ भींचकर कहा‒“तुम लोगों ने मुझे बहुत सताया है। याद रखो, मैं तुम्हारे साथ जरा-भी रियायत नहीं करूंगा। अगर तुमने मेरे हर सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं दिया।”

नौजवान की आंखें भय से फैल गईं। अमर ने फंदे पर थोड़ा-सा जोर डाला और बोला‒“मैं तुम्हारा मुंह खोल रहा हूं। लेकिन याद रखना यह फंदा, मौत का फंदा है।”

फिर उसने नौजवान के मुंह पर से हाथ हटा लिया। नौजवान ने थूक निगलकर बैठी-बैठी-सी आवाज में कहा‒“म…म…मुझे क्यों पकड़ा है ?”

अमर निर्मम स्वर में बोला‒“क्योंकि तुम मेरी गली में मेरी जासूसी कर रहे थे।”

“न…न…नहीं, तुम्हें गलतफहमी हुई है।”

“तुम्हारा नाम क्या है ?”

“क्या करोगे पूछकर ?”

“तुम इस तरह काबू में नहीं आओगे। शायद तुम भूल रहे हो कि मैं भी पुलिसवाला हूं और पुलिसवालों को जुबान खुलवाने की ट्रेनिंग दी जाती है।”

कुछ पल रुककर वह फिर से बोला‒“मान लो, मैं तुम्हारे मुंह में कपड़ा ठूंसकर माचिस की एक तीली जलाऊं और उसकी लौ से तुम्हारी आंख की पुतली जला डालूं ?”

नौजवान ने दहलकर कहा‒“नहीं…।”

“कहो तो माथा जलाकर नमूना दिखाऊं ?”

“नहीं…नहीं…।”

“तुम्हारा नाम क्या है ?”

“शौकत…शौकतअली शेरवानी।”

अमर क्रूर अंदाज में मुस्कराया‒“खूब ! तो तुम भी शेरवानी हो यानी शर-पसंद…झगड़ा-फसाद करने वाले।”

“म…म…मैं…?”

“कौन-सी क्लास में पढ़ते हो ?”

“ब…ब…बारहवीं क्लास में।”

“और इस कमउम्री में गुण्डागर्दी करते हो। आगे जाकर तुम डकैत बनोगे या दूसरे देशों के लिए जासूसी करोगे ?”

“म…म…मैं सिर्फ पढ़ता हूं।”

“समाज-सेवक शेरवानी से तुम्हारा क्या रिश्ता है ?”

“बहुत दूर का।”

“दो-चार हजार किलोमीटर का ?”

“मैं उनकी विधवा बहन का बेटा हूं।”

“खूब ! तो अपनी विधवा मां के लिए सुख कमा रहे हो।”

“मैंने कुछ नहीं किया।”

“गली में क्या करने आये थे ?”

“यूं ही, मेरा एक दोस्त इसी गली में रहता है। उसे ढूंढ रहा था।”

“रात के दो बजे ?”

“म…म…सेकेंड-शो देखकर लौटा था।”

“अच्छा बेटे, तो फिर पहले तुम नमूना ही देख लो।”

अमर ने उसके मुंह में रूमाल ठूंस दिया, फिर एक दियासलाई जलाकर फुर्ती से माथे पर चिपका दी। शौकत बुरी तरह बिलबिलाकर तड़पा। लेकिन आवाज न निकल सकी। पीड़ा के मारे आंखों में आंसू आ गए।

अमर ने क्रूर मुस्कान के साथ कहा‒“तो यह था नमूना‒अबकी बार अगर ठीक जवाब नहीं दिया तो यह जलती हुई तीली सीधी आंख की पुतली पर चिपका दूंगा।”

शौकत का चेहरा पीला पड़ गया।

अमर ने उसके मुंह से रूमाल निकालकर पूछा‒“हां, बोलो‒“यहां क्या कर रहे थे ?”

“न…न…निगरानी…।”

“मेरे घर की ?”

“हां…।”

“किसने लगाया था ?”

“प…प…प्रेमप्रताप और चौहान ने !”

“हूं…प्रेमप्रताप का दोस्त है।”

“अबे, उल्लू के पट्ठे ! मैं उसका भूगोल और इतिहास पूछ रहा हूं।”

“ओहो, तो क्या उस रात लाला की दुकान पर लूटमार करने वालों में वही दोनों शामिल थे।”

“ज…ज…जी हां।”

“और तीसरा कौन था ?”

“म…म…मुझे नहीं मालूम।”

अमर ने आंखें निकालते हुए गुर्राकर कहा‒“नहीं मालूम ?”

शौकत डरकर बोला‒“म…म…तीसरा मैं था।”

“गाड़ी कौन चला रहा था ?”

“चौहान।”

“और तुम बीच में बैठे थे।”

“ज…ज…जी हां।”

“और पप्पी मेरे हाथ आ गया था। तुम दोनों भाग गए थे।”

“जी…।”

“मेरे घर का दरवाजा धोखे से खुलवाकर किसने बदतमीजी की थी ?”

“व…वह चौहान था।”

“सिर्फ चौहान…?”

“म…म…मैं भी साथ में था।

“और भी तो थे।”

“वे चौहान के चमचे हैं।”

“हूं ! आज तुम क्यों मेरे घर की निगरानी कर रहे थे ?”

“आपकी बहन के लिए।”

“क्या मतलब ?”

“चौहान को आपकी बहन बहुत अच्छी लगी थी।”

“और तुम लोग उसका अपहरण करना चाहते थे ?”

“ज…जी हां।”

“कहां ले जाते ?”

“पप्पी का फार्म-हाउस है यहां से चालीस किलोमीटर की दूरी पर उसके बराबर ही नदी बहती है।”

“तुम लोग मेरी बहन की इज्जत लूटकर मार डालते और उसे नदी में बहा देते ?”

“जी…।”

अमर की आंखों में खून उतर आया था। उसने शौकत का मुंह पूरी शक्ति से दबाकर उसकी दाईं पसलियों पर घूंसा मारा।

शौकत छटपटाकर पूरा हिलकर रह गया। अमर उसका मुंह इतनी जोर से दबाए रहा कि उसके मुंह से ‘चूं’ की भी आवाज नहीं निकल सकी। शौकत की दो पसलियां टूट गईं थीं, जिसकी आवाज आई थी।

काफी देर छटपटाने के बाद शौकत जैसे बेदम-सा हो गया। अमर ने उसके ऊपर झुककर उसकी आंखों में देखते हुए खुंखार स्वर में कहा‒“देखा तुमने, मार से कितनी पीड़ा होती है ?”

शौकत कुछ न बोल सका। विवशता से देखता रहा।

अमर ने कहा‒“तुम मेरी बहन को उठाकर ले जाते, उसके साथ रंगरलियां मनाते ओर उसे जान से मारकर नदी की धारा में बहा देते। अब मैं तुम्हें मारकर पानी में नहीं बहाऊंगा, दफन कर दूंगा।”

शौकत की यंत्रणा से भरी आंखों से विवशता झांकती रही।

अमर ने फिर कहा‒“अब मैं तुम्हारा मुंह खोल रहा हूं। याद रखो, अगर आवाज जरा-सी भी ऊंची हो गई तो मैं तुम्हारी कम से कम दो पसलियां और तोड़ दूंगा।”

शौकत सिर हिलाकर रह गया। अमर ने उसके मुंह पर से हाथ हटाया तो शौकत की हल्की-हल्की करहें इस तरह निकलीं, जैसे वह अपनी आवाज को दबाने की यथा-संभव कोशिश कर रहा हो।

अमर ने उससे कहा‒“तुम लोगों ने लाला और उसके लड़के अमृत को कितनी बुरी तरह मारा था। उसे भी ऐसी ही पीड़ा हुई होगी। इसका अंदाजा तुम्हें अब हुआ होगा।”

“म…म…मुझे माफ कर दीजिए।”

“तुम्हें, चौहान या प्रेमप्रताप को रुपये-पैसे की कमी है, जो तुम लोग लूटमार ओर डकैती करते फिर रहे हो ?”

“श…श…शौकिया…!”

“यानी तुम यह अपराध भी शौक के लिए करते हो ?”

“ज…ज…जी…!”

“पूरे हरिनगर और हरिनगर से लगे डिस्ट्रिक्टों में जो डकैतियां और लूटमार और गोली मारने की वारदातें हो रही हैं, वे क्या सिर्फ तुम तीन ही कर रहे हो ?”

“न…न…नहीं…हम लोग तो…सिर्फ सिविल लाइन एरिया कवर करते हैं।”

अमर व्यंग्य से बोला‒“खूब ! सिविल लाइन एरिया कवर करते हो ?”

“ज…ज…जी हां !”

अब तक कितनी वारदातें कर चुके हो ?”

“याद नहीं।”

“लूटमार का रुपया कहां जाता है ?”

“व्हिस्की, फ्लैश और औरतों में।”

“पिछले सप्ताह एक लड़की की लाज लूटकर उसे मेडिकल के पीछे तुम लोगों ने बेहोश छोड़ा था, जिसकी सलवार तक उतरी पड़ी थी ?”

“हां…!”

“उस लड़की को तुमने मेडिकल से ही उठाया था।”

“हां, उसकी बहन भर्ती है जनरल-वार्ड में। वह लड़की अपनी बड़ी बहन की देख-भाल के लिए रुकी हुई थी।”

“और अनूपशहर रात फिर एक देहाती साइकिल पर अपनी नवविवाहिता दुल्हन को शहर से शाॅपिंग कराके ले जा रहा था।”

“उसे भी हमने ही रोका था। उसका सिर फाड़ दिया था। उसकी पत्नी की इज्जत लूटकर खेतों में डालके चले गए थे।”

“एक घोसी ने रिपोर्ट लिखवाई थी कि वह अपने ग्राहकों से पहली तारीख का हिसाब लेकर आ रहा था‒उसे तीन मोटरसाइकिल सवारों ने लूट लिया।”

“व…व…वह भी हम तीन ही थे।”

“तो तुम तीन एक्सट्रा आर्टिस्ट भी होंगे ?”

“दस-बारह हैं‒वे भी मोटरसाइकिलों पर अकारण घूमते-फिरते हैं। जब हमें मदद की जरूरत होती है तो कभी समर्थक बनकर और कभी विरोधी बनकर बीच में आन कूदते हैं।

“एक बार हम पकड़े जाते। मगर हमारे साथियों ने हम पर ही पथराव शुरू कर दिया। साथ में वे लोग भी पथराव करने लगे, जो हमें पकड़ रहे थे‒हमें भागने का मौका मिल गया।”

“सिविल लाइन के बाद पुराना शहर लगता है‒रेलवे लाइन की दूसरी तरफ।”

“हां…।”

“वह एरिया कौन कवर कर रहा है ?”

“उनके बारे में मुझे नहीं मालूम।”

“ऐसी ही वारदातें वहां भी बहुत हो रही हैं।”

“हमें सिर्फ अपने इलाके से ही मतलब है।”

“और अकरोली का दूसरा इलाका ?”

“मैंने कहा न, मुझे किसी और इलाके के बारे में नहीं मालूम।”

“लेकिन तुम्हें यह तो मालूम है कि इस काम के लिए इलाके बंटे हुए हैं, जैसे सिविल लाइन तुम तीन के पास हैं। पुराना शहर स्थानीय गुंडों और पुराने शहर के पूंजीपतियों के पास।”

“जी…!”

“और ये एरिये बांटे किसने हैं ?”

“क…क…क्या मतलब ?”

“तुम्हें किसने आर्डर दिया है कि तुम सिविल-लाइन से हटकर कोई वारदात मत करना ?”

“कि…किसी ने नहीं।”

अमर ने निर्ममता से मुस्कराकर कहा‒“शायद तुम अपनी एक-दो पसलियां और तुड़वाना चाहते हो।”

“शौकत गिड़गिड़ाया‒“नहीं…खुदा के लिए नहीं।”

“तो फिर बताओ, तुम लोगों को ये निर्देश किससे मिलते हैं ?”

“यह…यह भेद सिर्फ पप्पी जानता है।”

“प्रेमप्रताप ?”

“हां…!”

“तुम्हें विश्वास है कि तुम सच कह रहे हो ?”

“मैं खुदा की कसम खाता हूं।”

“खुदा…ईश्वर, गॉड‒उन लोगों का होता है, जिनका ईमान होता है। तुम्हारा कोई ईमान ही नहीं है। इसलिए तुम्हारी किसी कसम पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।”

“आप मानें या न मानें। मगर यह सच है कि प्रेमप्रताप के अलावा यह भेद कोई नहीं जानता कि इन अपराधों की क्षेत्रबंदी किसने की है।”

“प्रेमप्रताप, एक पूंजीपती जगताप का बेटा है। तुम भी किसी घसियारे के रिश्तेदार नहीं हो। चौहान भी एक एम॰ एल॰ का बेटा है। इतने बड़े-बड़े लोगों के बेटे और ऐसे गंदे और भयानक अपराध, फिर सबसे पहले तुम्हारे मामा शेरवानी साहब ही प्रेमप्रताप को छुड़ाने आये थे।”

“जी…!”

“क्या यह सब किसी षड्यंत्र के अधीन हो रहा है ?”

“म…म…मैं क्या बताऊं ?”

“जो कुछ तुम्हें मालूम है, बताओ ?”

“मुझसे ज्यादा तो आपको मालूम था।”

“वह सिर्फ मेरे अन्दाजे थे, जिनकी तुमने पुष्टि कर दी।”

“म…म…मैंने…!”

“चौहान अकरोलिया में ही रहता है ?”

“नहीं, शहर में…!”

“होस्टल में…?”

“नहीं, उसके पिता की कोठी है विजयनगर मैं !”

“पूरा परिवार वहीं रहता है ?”

“ज…ज…जी हां।”

“कौन-कौन है उसके परिवार में ?”

“मां-बाप, बड़ा भाई, भाभी और बहन…।”

“बड़ा भाई क्या करता है ?”

“कॉलेज में लेक्चरार है।”

“बहन…?”

“वह पढ़ती है।”

“कौन-सी क्लास में ?”

“साइकालोजी में एम॰ ए॰ कर रही है।”

“इसका मतलब है, अट्ठाइस-तीस वर्ष की उम्र होगी।”

“जी, हां…!”

“सूरत-शक्ल ?”

“सुन्दर है।”

“हूं…और प्रेमप्रताप ?”

“वह अपने बाप का इकलौता बेटा है।”

“दूसरा कोई रिश्तेदार ?”

“एक पागल बहन हैं, जिन्हें आगरा मेंटल हॉस्पिटल में प्रवेश दिला रखा है।”

“जन्म से पागल ?”

“नहीं…!”

“फिर…?”

“उनके पति और इकलौते बेटे का एक्सीडेंट में देहांत हो गया था उनके सामने ही। उस सदमें से वह पागल हो गईं।”

“हूं…और कुछ ?”

“अब सब आप ही पूछिए।”

“तुम्हारी विधवा मां कहां रहती हैं ?”

“अकरोली में !”

“शेरवानी साहब के साथ नहीं ?”

“उनसे नहीं मिलतीं ?”

“क्यों ?”

“मामू ने मुसलमानों के कब्रिस्तान की चारदीवारी के लिए कई करोड़ रुपए जमा किए थे। मगर उस रुपए से उन्होंने कारखाना डाल लिया और चारदीवारी के निर्माण के लिए उन्होंने कुछ गैर-मुस्लिमों से मुकद्दमा दायर करा दिया।

“वह मुकद्दमा दस वर्ष से चल रहा है, जिसका कोई फैसला नहीं होता। लोग समझते हैं कि इसीलिए चारदीवारी नहीं बन पा रही।”

“इससे तुम्हारी मां का क्या सम्बन्ध ?”

“मेरी मां पांच वक्त की नमाजी हैं‒बल्कि तहज्जुद और अशराक की नमाजें भी पढ़ती हैं। वह हराम की कमाई और हराम कमानेे वालों से नफरत करती हैं। अपना पेट भरने के लिए वह कपड़े सीकर और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करती हैं।”

अमर ने नफरत से कहा‒“और तुम उनके बेटे हो‒धिक्कार है तुम पर।”

शौकत कुछ न बोला।

“लगता है, तुम अपने मामू के इशारों पर नाचते हो ?”

“म…म…अपना भविष्य बनाना चाहता हूं। मां चाहती थीं कि मैं अपनी शिक्षा प्राप्त करके रोजे-नमाज का पाबंद हो जाऊं।”

“और तुम शैतान बन गए।”

“म…म…मैं…”

“यकीनन तुम्हारी मां को तुम्हारे हालात मालूम होंगे ?”

“म…म…मैं अपने मामू के पास रहता हूं।”

“मां को छोड़कर ?”

“मां मेरी सूरत देखना भी पसन्द नहीं करतीं।”

“इसीलिए तुम्हारी सूरत पर फटकार बरसती है।”

शौकत कुछ न बोला।

अमर ने कहा‒“तुम अपनी विधवा मां का सहारा बनने के बजाए शराब, जुआ, व्यभिचार और मनोरंजन के लिए अपनी देवी जैसी मां को छोड़कर अपने राक्षस समान मामू से आ मिले‒क्यों ?”

“म…म…मैं पढ़ना चाहता हूं।”

“यही सब जो पढ़ रहे हो ? शायद तुम्हारी जाति का पतन तुम जैसे ही नौजवान बन रहे हैं।”

शौकत खामोश रहा।

अमर ने कहा‒“जो अपनी सगी मां का सगा नहीं हुआ, वह किसी दूसरे का क्या हो सकता ? इसलिए अच्छा होगा कि तुम अब दुनिया से ही चले जाओ।”

“नहीं…!”

अचानक अमर ने उसका मुंह सख्ती से बन्द कर दिया। फिर उसकी छाती पर बाईं तरफ दिल की जगह इतनी जोर से घूंसा मारा कि कुछ पसलियां टूटने के साथ ही मुंह से हिच्च की आवाज आई। फिर जितनी देर शौकत मचलता रहा। अमर ने उसके मुंह पर से हाथ नहीं उठाया। उसकी आंखें बन्द करके उसके हाथ-पांव खोलकर सीधा करने लगा।

ठीक उसी समय दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी और अमर चौंक पड़ा। झटपट उसने शौकत की लाश खींचकर पलंग के नीचे कर दी और चादर नीचे तक खींच दी।

दरवाजा खोला तो सामने शरीफ दर्जी खड़ा था। अमर ने इत्मीनान का सांस लिया।

शरीफ ने उससे कहा‒“बेेटे ! अब चैन की नींद सोओ‒“तुम्हारी मां और बहन को गाड़ी जब तक सिगनल से निकल नहीं गई, तब तक मैं वहां से हटा नहीं था।”

“किसी पहचान वाले ने तो नहीं देखा ?”

“नहीं। बस, मेरे साढ़ू भाई जरूर मिल गए थे।”

“वह कौन हैं ?”

“मतलब मेरी साली के पति।”

“ओहो…!”

“मेरी साली का देहांत हो चुका है। उनका एक नौजवान लड़का जफर था। अच्छा-खासा स्वस्थ नजर आता था। मगर बस अचानक ही तबियत खराब हुई। पिछले सप्ताह उसे हरिनगर लाया गया था। मैंने उसे मेडिकल में भर्ती करा दिया।”

“फिर…?”

“आज दस बजे रात को उसका देहान्त हो गया। इन्ना लिल्ला हे व इन्ना अलेेहे राजऊन।”

“रोग क्या था ?”

“ब्लड कैंसर। अरे, अगर तुम उसे देखते तो विश्वास न करते। मेरे साढू तो अल्लाह वाले हैं। उनके हाथ में तसबीह रहती है। आंसू निकलना गुनाह समझते हैं।”

“मुझे बहुत अफसोस है, चाचा।”

“बेटे ! कुदरत का हुक्म कौन टाल सकता है; फिर औलाद तो अल्लाहताला की अमानत है। जब चाहे दे, जब चाहे वापस ले ले। औलाद भली हो तो आदमी की जिन्दगी सुख-चैन से कटती है। बुरी निकल जाए तो फिर आदमी ही सोचता है, ऐसी औलाद से बे-औलाद भला था।”

“आप सच कहते हैं, चाचाजी। बुरी औलाद से तो आदमी बे-औलाद भला। अगर कोई नालायक बेटा अपनी नमाजी, साध्वी और ईमानदारी की कमाई करने वाली की छत्रछाया ठुकराकर चरित्रहीन, स्वार्थी मामा की काली छाया में आ जाए और एय्याशी करने लगे तो उसके लिए अल्लाहताला का क्या हुक्म है ?”

“बेटेे ! अल्लाह के भेद तो अल्लाह जाने। लेकिन जिसने मां को ठुकरा दिया‒वह भी दुनिया के सुख-वैभव के लिए। उसने दुनिया और दीन दोनों ठुकरा दिए। वह न तो दुनिया में मुंह दिखाने के लायक रहता है और न ही खुदा उसे जन्नत में जगह देता है।”

“आप ठीक कहते हैं, चाचाजी।”

“अच्छा, बेटे। अब तो आराम करो।”

“आज की रात तो न मैं आराम करूंगा, न ही आपको करने दूंगा।”

“और कोई खिदमत हो तो बोलो…”

“शर्मिंदा मत कीजिए। अभी मैं आपके साथ चलता हूं आपके घर तक। वहीं बात करूंगा। जरा दरवाजा बन्द कर लूं। आप अपने घर का ताला खोलिए तब तक !”

और अन्दर से ताला लेने चला गया। शरीफ अपने घर की तरफ बढ़ गया।

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