gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

पांच बजे सुबह अमर घर पहुंचा। शरदपुर के इलाके के एक मोहल्ले मेहरा बाग में उसके पास एक कमरे और एक दालान का घर था, जो सस्ते किराए पर मिल गया था। घर में ही हैैंडपम्प था। रसोई भी थी और बाथरूम और ‘जरूरतों’ के लिए दरवाजे के पास ही इन्तजाम था।

गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

अमर ने दरवाजे पर दस्तक दी तो इस तरह दरवाजा खुल गया, जैसे कोई उसके दस्तक देने के ही इन्तजार में खड़ा हो।

दरवाजा खोलने वाली उसकी बहन रेवती थी। ऐसा लगता था, उसकी आंखें जागते रहने से लाल हो गई हों।

अमर ने मुस्कराकर कहा‒“अरे, आज तू इतने सवेरे कैसे जाग गई ?”

रेवती पीछे हटती हुई बोली‒“बस, यूं ही भैया। नींद नहीं आई थी रात को।”

अमर हंसता हुआ अंदर घुसा तो कमरे के अन्दर से आवाज आई‒“अरे रेवती, कौन है बेटी ?”

रेवती ने जोर से कहा‒“मां ! अमर भैया हैं।”

“अच्छा…अच्छा…!”

रेवती ने झट दरवाजा बन्द कर लिया। अमर ने दालान में आकर लाठी कोने में रखी, टोपी उतारकर खूंटी पर टांगी और भीतर घुस गया।

अन्दर बूढ़ी मां लक्ष्मी एक चारपाई पर रजाई ओढ़े चिंतित-सी बैठी नजर आई।

अमर ने पूछ लिया‒“अरे, मां ! क्या बात है ? आज तू भी जाग रही है।”

लक्ष्मी ने जबर्दस्ती मुस्करा कहा‒“बात क्या हुई ? बुढ़ापे में क्या जवानों जैसी नींद आती है और फिर तू तो सारी-सारी रात जागकर गश्त करता है।”

“मेरी तो ड्यूटी है मां। करना जरूरी है।”

“यह गश्त की ड्यूटी क्या जरूरी है ?”

“अब नई-नई पोस्टिंग है। शुरू-शुरू में ऐसे ही काम मिलते हैं। तू बता, धनीरामजी के घर से कोई खबर आई ?”

“तेरे जाते ही खुद धनीराम की मां और सुदर्शन आए थे।”

“अच्छा…!” अमर खुशी के मारे खड़ा हो गया‒“और इतनी खुशी की खबर तुम मुझे अब सुना रही हो ?”

“तू अभी तो आकर बैठा है।”

“अरे ! यह खबर तो मुझे दरवाजे पर ही मिलनी चाहिए थी।”

“अभी तो वह लड़की देखने आए थे।”

“मुझे मालूम है। मेरी रेवती को कोई मूर्ख ही नापसन्द कर सकता है।”

“हां, वह रेवती को तो पसन्द कर गए। मगर…”

लक्ष्मी रुक गई तो अमर ने झट से पूछा‒“क्या लेन-देन के लिए कुछ कह रहे थे ?”

“तोबा कर बेटा। ऐसे भले आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखे। बहनजी कह रही थीं, हमसे लिखित ले लो कि हमें सिर्फ एक जोड़े में लड़की चाहिए।”

“अरे, मेरी बहन क्या किसी दौलत से कम है ?”

“रमेश पढ़ा-लिखा लड़का है। दहेज विरोधी है। इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा किया है। जल्दी ही वह हाशिमनगर पावर हाउस में जे॰ ई॰ भी लगने वाला है।”

“अरे, वाह। फिर तो हमारी बहन राज करेगी।”

“लेकिन एक शर्त बड़ी कठिन रख दी है उन्होंने।”

अमर ने चौंककर पूछा‒“वह क्या ?”

लक्ष्मी ने कहा‒“उनका कहना है, शादी इसी महीने के आखिर तक हो जानी चाहिए।”

“उफ्फोह मां, तुमने तो मुझे डरा ही दिया था। भला यह भी कोई कठिन शर्त है ?”

“अरे बेटे ! यह लड़के की शादी नहीं है, बेटी का मामला है। कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ता है। लेन-देन न हो तो भी बारात में बीस-पच्चीस आदमी तो आएंगे ही, उनकी आव-भगत और दूसरे प्रबन्ध।”

“तू चिन्ता मत कर मां‒सब हो जाएगा।”

“कहां से हो जाएगा ? कैसे हो जाएगा ?”

“देखो मां। शरदपुर के बाजार में अब मेरा काफी मान है। जिस किराना वाले से कहूंगा, वह पूरी बारात का सामान उठाकर दे देगा।” फिर वह चौंककर बोला‒“अरे हां, मैं तो भूल ही गया था।”

“क्या…?”

“अब तो लाला सुखीराम एक ऐसे आदमी मिल गए हैं जिनसे पचास हजार का सामान भी उठाकर ला सकता हूं।”

“अच्छा…!”

“अरे, कल रात उनकी दुकान में लुटेरे घुस गए थे। लूटमार करके भागने लगे तो अकेला मैं था, जिसने उनमें से एक को पकड़वा दिया।”

“अच्छा…!”

“और क्या मां। अब एक के द्वारा सारा गिरोह पकड़ा जाएगा और यह जो पूरे शहर में आतंक फैला हुआ है, यह हमेशा कि लिए शांत हो जाएगा।”

फिर वह जूते उतारता हुआ बोला‒“आज मेरे पिताजी की आत्मा बहुत खुश होगी। उनके बेटे ने कोई कारनामा अंजाम दिया है। तुम्हें याद है मां। पिताजी मुझे बचपन में सुनाया करते थे कि मेरे दादा भी एस॰ पी॰ सिटी थे। जब बंटवारा हुआ था, दादाजी ने सैकड़ों बेगुनाहों की जानें बचाई थीं दंगाइयों से ?”

“हां बेटे। याद है।”

“और मेरे पिताजी भी कोई साधारण मौत नहीं मरे थे।”

“बस, बेटे और कुछ मत कह।”

“अरे, मां। तुम्हारा बेटा कुंवर रघुवीरसिंह एस॰ पी॰ का पोता, सब-इन्स्पेक्टर समीरसिंह का बेटा, देखो कितना नाम कमाता है।

“देखना कल रात के ही कारनामे पर मुझे एस॰ पी॰ और डी॰ एम॰ साहब निजी रूप से इनाम देंगे और जितनी जल्दी मुझे प्रमोशन मिलेगा, किसी को नहीं मिला होगा।”

लक्ष्मी कुछ न बोली।

अमर ने मोजे जूतों में ठूंसते हुए कहा‒“अब तुम मेरी तरक्की ही तरक्की देखोगी।”

लक्ष्मी ने झिझकते हुए कहा‒“वह…बेटे…एक बात पूछूं ?”

“हां मां। पूछो।”

“यह तुझे क्वार्टर कब मिलेगा। पुलिस लाइन में ?”

“अभी देर लगेगी। लेकिन यहां क्या डर है ?”

“डर तो कुछ भी नहीं है। मगर…”

“मगर क्या ?”

अगले ही पल रेवती बढ़कर अमर की छाती से लग गई और रोने लगी तो अमर भौंचक्का-सा रह गया। फिर उसने रेवती के कंधे पकड़कर कहा‒“रेवती ! क्या तुझे विदाई का सोचकर रोना आ रहा है ?”

“भैया…!” वह फिर से कंधे से लग गई।

अमर का दिल धड़क उठा। उसने पूछा‒“आखिर बताती क्यों नहीं ? क्या बात है ?”

रेवती रोती रही तो अमर ने लक्ष्मी की तरफ देखा। उसकी भी आंखें छलक रही थीं। चेहरा उतरा हुआ था।

अमर ने हैरत से कहा‒“मां, तुम भी…?”

“बेटे…!”

“मां, क्या बात है ?”

“बेटे किसी भी तरह यह घर छोड़कर पुलिस लाइन के क्वार्टर में ले चल हमें।”

“लेकिन इस घर में क्या बुराई है ? क्या पड़ोसी बुरे हैं ?”

“पड़ोसियों से तो अभी ठीक से पहचान भी नहीं हुई।”

“फिर क्या बात है ?”

“कल…कल…आधी रात बाद से हम मां-बेटी जाग रही हैं।”

अमर के दिल पर धचका-सा लगा।

उसने पूछा‒“मगर क्यों ?”

“क्योंकि रात को ग्यारह बजे किसी ने जोर-जोर से दरवाजा पीट डाला। पहले मैं समझी तू आया है। रेवती भागी ! बाहर से किसी ने पुकारकर कहा‒“जल्दी दरवाजा खोलो। हम…हम…।”

लक्ष्मी बरबस रो पड़ी।

अमर ने उसके पास बैठकर उसका कंधा झकझोरते हुए कहा‒“क्या कहा उसने मां ?”

“उसने…उसने कहा, हम…भगवान न करे…अमर की लाश लाए हैं।”

“ओह…!”

रेवती ने चिल्लाकर दरवाजा खोल दिया। और…और…।”

“और क्या…जल्दी बोलो मां ?”

“एक लड़का था। उसने रेवती को दबोच लिया और ऐसी बदतमीजी की कि बस…”

अमर झटके से खड़ा हो गया। उसकी मुट्ठियां भिंज गई थीं‒“कौन था वह हरामजादा ?”

“नाम थोड़े ही बताया था।”

“फिर…फिर क्या हुआ।”

“रेवती चिल्लाई तो मैं दौड़ी। बड़ी मुश्किल से मैंने रेवती को छुड़ाया। उसने निर्लज्जता से हंसकर कहा, आज के लिए इतना ही काफी है…।”

“नहीं…”

“कह रहा था, अपने बेटे से कह देना, अगर ऐसे ही तरक्की करता रहा तो अबकी बार पूरी किस्त चुका जाएंगेे कर्जे की…।”

अमर के होंठ कठोरता से भिंज गए। उसने वापस जूते पहने और साइकिल उठाने लगा तो लक्ष्मी ने तत्काल पूछ लिया‒

“कहां जा रहे हो, बेटा ?”

रेवती चिल्लाई‒“भैया…ठहरो…!”

लेकिन अमर साइकिल पर सवार होकर चला गया।


साइकिल थाने के कम्पाउंड में दीवार से लगाकर अमर तेज-तेज अन्दर पहुंचा। हवालात को दरवाजा खुला हुआ था और एक सिपाही नाश्ते की ट्रे लिए प्रेमप्रताप के सामने खड़ा था, जिसमें उबले हुए अन्डे, आमलेट, चाय की केतली, मक्खन स्लाइस और केले थे।

अमर ने ट्रे में हाथ मारा तो ट्रे दीवार से टकराई। सब कुछ गिरकर टूट-फूट गया।

सिपाही ने चिल्लाकर कहा‒“अमर ! यह क्या करता है ?”

अमर ने सिपाही की गर्दन दबोचकर बाहर धकेल दिया। फिर प्रेमप्रताप पर टूट पड़ा और गुर्राते हुए चीखा‒“सुअर के बच्चे…कुत्ते…मैं तेरी जान ले लूंगा।”

पप्पी चिल्लाया‒“दरोगाजी…इन्स्पेक्टर साहब…”

“इन्स्पेक्टर साहब…दरोगाजी के बच्चे…कौन था वह तेरा साथी ?”

कई सिपाही आ गए।

“अरे अमर ! यह क्या कर रहे हो ?”

“अरे, छोड़ अमर।”

“अरे, उसे मार लग गई तो केस बन जाएगा।”

“अरे, छोड़ दे न।”

अमर उसे लातें, घूंसे और चांटे मारता हुआ चीखा‒“नहीं छोड़ूगा सुअर के बच्चे को…जान से मार दूंगा…।”

पप्पी बुरी तरह चिल्लाया‒“अरे मग गया…बचाओ…बचाओ…”

बड़ी मुश्किल से छः-सात सिपाही अमरसिंह को खींच-खांच कर बाहर लाए। तब तक दरोगा आ गया था। उसने सबकुछ सुना तो अमर को खूंखार नजरों से घूरता हुआ बोला‒“इस हरकत का क्या मतलब ?”

अमर ने गुस्से से कहा‒“साहब ! इस हरामजादे के साथी गुंडे रात को मेरे घर आ गए थे। मेरी बहन के साथ बदतमीजी करके गये हैं। बड़ी मुश्किल से मेरी मां ने बहन को बचाया है।”

“क्या उन गुंडों के माथों पर लिखा था कि वह इस लड़के के साथी हैं ?”

“साहब ! हमारी यहां और किसी से न तो दोस्ती है, न दुश्मनी।”

“बको मत ! इस तरह हवालात में किसी अभियुक्त को बेदर्दी से मारना-पीटना कितना बड़ा जुर्म है, क्या तुम जानते हो ? इसके लिए तुम्हें दंड भी भोगना पड़ सकता है।”

“साहब ! पूछताछ के लिए भी तो अभियुक्त को मारा-पीटा जाता है ?”

“क्या तुम उससे पूछताछ कर रहे थे या अपनी निजी दुश्मनी निकाल रहे थे, वह भी शत्रुता के आधार पर।”

“साहब…!”

“बको मत। तुम्हारी नई-नई पोस्टिंग हुई है, इसलिए तुम्हें क्षमा किए देता हूं। लेकिन याद रखो, फिर कभी तुम इस तरह आपे से बाहर हुए तो उसके लिए तुम्हें भुगतना पड़ेगा।”

अगर कुछ न बोला। उसके होंठ कांपते रह गए थे। मगर अंदर ही अंदर वह गुस्से से खौल रहा था। उसका खून लावा बना हुआ था।

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