अचानक कहीं पास ही से बम के धमाके की जोरदार आवाज आई। लाला सुखीराम लेटते-लेटते उछलकर बैठ गया।
रात के तीन बज रहे थे। अभी-अभी लाला के सारे घर वाले लेटे थे। एक बजे के बाद तो बड़ी मुश्किल से थोड़ा-बहुत खाना गले से नीचे उतरा था। लाला और अमृत के शरीर की चोटों की सिंकाई में काफी देर लगी थी।
गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
लाला के साथ ही पूरा घर जाग गया।
अमृत ने कहा‒“बापू ! यह आवाज तो ज्यादा दूर की नहीं।”
लाला ने दिलासा देने के अन्दाज में कहा‒“अरे बेटा, अब ऐसे धमाकों की आवाजें रोजाना ही सुनाई देती हैं। सभी सुनते-सुनते आदी हो गए हैं।”
लालाइन ने कहा‒“लेकिन यह तो हमारे ही घर के पिछवाड़े ही मालूम होता है।”
लाला ने कहा‒“पागल हुई है ? घर के पीछे प्रोफेसर साहब की कोठी है।”
रीता का चेहरा उतरा हुआ था। आंखें लाल हो रही थीं। उसने कहा‒“बापु ! इतने पास से तो कभी धमाका नहीं सुनाई दिया।”
लाला ने कहा‒“तु क्या समझती है ? किसी ने हमारे घर पर बमों से हमला कर दिया है।”
लालाइन ने रीता से कहा‒“जरा बड़े को पुकारकर जगा ले।”
लाला ने बुरा-सा मुंह बनाकर बोला‒“क्या जरूरत है उसे जगाने की ? पत्नी के आंचल में सोया रहने दो।”
लालाइन ने जल्दी से कहा‒“क्या कह रहे हो। कुछ तो शर्म करो बेटी की।”
“अरे और क्या कहूं ? उस कम्बख्त से पहले तो और पड़ोसी बाहर निकल आए थे। वह तो आखिर तक नीचे उतरकर ही नहीं आया था। जब भीड़ जमा हो गई, तब आया।”
“बहू बहुत डरती है। मैं जानती हूं।”
सहसा एक साथ कई मोटरसाइकिलों के इन्जनों की आवाजें सुनाई दीं। साथ ही बहुत सारे लड़कों की आवाजेें आईं‒‘हूहू…हूहू…”
“हा हा…हा हा…हा…”
“हे हे…हे हे…हे…”
“पीं पीं…पीं पीं…”
“हाऊ…हाऊ…हाऊ…”
वे सब लोग सहम गये थे। मोटरसाइकिलें शायद गैलरी के नीचे से बड़ी धीमी गति से गुजर रही थीं, फिर गैलरी में एक पत्थर आकर गिरा। रीता डरकर लालाइन ने लिपट गई।
लालाइन का चेहरा भी सफेद था।
अमृत का एक हाथ बंधा हुआ गले में लटका था। उसने उठकर दूसरे हाथ से हाकी उठाई तो रीता ने गड़बड़ाकर कहा‒“भैया क्या कर रहे हो ?”
अमृत गुस्से से बोला‒“अरे ! तो क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाएंगे ?”
इतने में सीढ़ियों पर पद्चापें सुनाई दीं। वे लोग उछल पड़े, लेकिन आवाजें ऊपर की सीढ़ियों की थीं। दरवाजे में नंद लाल नजर आया। रीता ने जल्दी से कहा‒“आ गए, भैया ?”
नन्दलाल ने बुरा सा मुंह बनाकर कहा‒“सुन लिया होगा तुम लोगों ने यह शोर ?”
वह शोर और आवाजें अब दूर निकल गई थीं। अमृत के हाथ में हाकी देखकर नन्दलाल ने व्यंग्य से उससे कहा‒“ओहो, तो आपको फिर बहादुरी का शोक उठा था।”
अमृत ने गुस्से से कहा‒“वे लोग दरवाजा तोड़ने लगते तो क्या मैं हाथों में चूड़ियां पहनकर बैठा रहता।”
नन्दलाल ने गुस्से से कहा‒“बस, चुप रहो। ज्यादा ऊंची उड़ान मत भर। मैं समझता हूं। सबसे पहले तुझे ही हीरो बनने की सूझी होगी।”
“बापू को गाली देने देता ?”
“अबे, आजकल सबसे बड़ी बहादुरी दो गाली सुनकर उड़ा देना है। यह पहले का जमाना नहीं रहा कि तू-तू, मैं-मैं पर ही सिर फुटबाल हो जाती थी। एक गाली का जवाब देकर जान गंवाना क्या अच्छा होता है ? गुंडे, बदमाशों से कौन जीत सकता है।” फिर लाला से बोला‒“और आपको बड़ी हमदर्दी है पड़ोसियों से। उनके आराम के लिए साढ़े नौ बजे तक दुकान खोलकर बैठते हैं, ताकि वे नाश्ते का सामान ले जाएं। कौन आ गया आपकी मदद को ? गवाही देने तक को कोई राजी नहीं हुआ।”
लाला गुस्से से बोला‒“तू कौन-सा गैलरी से कूद पड़ा था बाप-भाई को बचाने के लिए।”
“मुझे तुम्हारी बहू ने बच्चों की सौगन्ध दे दी थी।”
“हां-हां, जब औलाद हो जाये तो मां-बाप और भाई-बहन का नाता टूट जाता है न।”
“बापू ! बोलोगे उल्टी ही। अपनी भूल नहीं मानोगे। अरे, एक दिन की आमदनी गई तो जाने दो, मगर इस दुर्घटना से सीख तो लो !”
“क्या सीख ले लूं ? अरे, इससे भी बड़ी कोई सीख होगी कि बाप और छोटा भाई मौत के मुंह में और बड़ा भाई नीचे उतरकर नहीं आया।”
लालाइन ने झट कहा‒“क्यों बाहर का झगड़ा घर में खड़ा करते हो ? अब तो आगे की सोचो।”
नन्दलाल ने कहा‒“आगे की अब क्या सोचना ? अब तो दिन-रात मोर्चा सम्भाले बैठे रहो। अभी धमाका नहीं सुना ? लड़कों का शोर नहीं सुना ?”
“सुना था।”
“उसे पकड़वाते ही नहीं तो यह दुश्मनी की बुनियाद न पड़ती।”
अमृत ने गुस्से से कहा‒“तुम्हारा मतलब है कि चोर को छुड़वा देते, ताकि कल वह फिर आ जाये लूटमार करने ?”
“एक ही तो पकड़ा गया है। उसके साथी कितने होंगे। कल अगर वे लूटमार करने आ गये तो क्या कर लोगे।”
लालाइन ने झट से कहा‒“भगवान न करे ! अरे बेटे, शुभ-शुभ बोल।”
नन्दलाल गुस्से से बोला‒“शुभ-शुभ सोचोगे तो शुभ-शुभ होगा। सिर्फ बोलने से शुभ-शुभ होगा। सिर्फ बोलने से शुभ-शुभ नहीं हो जाता। मेरी बात गांठ में बांध लो। कल सारे पड़ोसी यही कहेंगे, ‘लाला ! तुमने रिपोर्ट लिखवाकर गलती की। अकारण की शत्रुता मोल ले ली। अच्छा होता उसे छुड़वा देते। ’…’
अमृत ने बुरा-सा बुंह बनाकर कहा‒“उनसे क्या शिकायत ? वे तो पराये हैं। आजकल कौन पराया दूसरों की आग में कूदता है, जबकि अपने ही दामन बचाने की चिन्ता में लगे रहते हैं।”
नन्दलाल बोला‒“जबान को लगाम दे, तू बहुत बड़बोला हो गया है।”
“जाओ…जाओ, आराम करो। यह हमारी लड़ाई है। हमें खुद लड़ने दो।”
तभी फोन की घंटी बजी और वे लोग उछल पड़े। रीता ने रिसीवर उठाकर थूक निगला और कंपकंपाती आवाज में कहा‒“हैलो…?”
दूसरी तरफ से किसी नौजवान की आवाज आई‒“रीता…?”
“जी हां, मैं ही हूं।”
“हाय…क्या रसीली आवाज है…पुच…”
उसने रिसीवर पर चुम्बन की आवाज सुनी और घबराकर रिसीवर रख दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया था।
अमृत ने उसे घूरकर पूछा‒“कौन था ?”
रीता जल्दी से बोली‒“कोई नहीं भैया…वह…वह…”
अचानक फिर से घंटी बजी। इस बार अमृत हॉकी रखकर उठने लगा तो लाला ने उसे इशारे से रोका और खुद रिसीवर उठाकर बोला‒“हैलो…?”
दूसरी तरफ से आवाज आई‒“तुम शायद लाला दुखीराम हो ?”
लाला ने जवाब दिया‒“मैं दुखीराम नहीं, लाला सुखीराम हूं।”
“कोई बात नहीं आज का सुखीराम, कल का दुखीराम भी हो सकता है।”
“क्या मतलब ?”
“क्या तुमने धमाका नहीं सुना था ?”
“सुना था।”
“यह धमाका कल तुम्हारे घर में भी हो सकता है।”
“क्या बकते हो ?”
“तमीज से बात कर बे…लाला…धोतिये…अपनी हैसियत मत भूल…साले कल रात चने बेचता था फेरी लगाके, आज दुकान-मकान का मालिक बन गया है। मगर घबरा मत, हम तेरी यह दुकान-मकान की सारी मुसीबत खत्म कर देंगे। फिर से चने बेचना फेरी लगाकर।”

“देखो…तुम…”
“अरे, देखेंगे भी। देखने को छोड़ थोड़े ही देंगे। अभी कार्रवाई तो आगे बढ़ने दे। हमारे साथी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, जो हम तेरा बिगाड़ेंगे।”
फिर दूसरी तरफ से सम्पर्क कट गया।
लालाइन ने तुरन्त पूछा‒“किसका फोन था ?”
लाला ने खीझकर कहा‒“तुम चुप रहो जी। तुम औरतों की हर बात में टांग अड़ाने की आदत ही मर्दों के लिए मुसीबत खड़ी कर देती है।”
लालाइन चुप हो गई।
लाला ने डायल घुमाकर रिसीवर कान से लगा लिया। कुछ देर बाद आवाज आई‒“हैलो, थाना शरदपुर ?”
“कौन बोल रहा है ?”
“मैं इन्स्पेक्टर दीक्षित !”
“देखिए, इन्स्पेक्टर साहब। मैं लाला सुखीराम बोल रहा हूं।”
“कहिए…!”
“अभी कुछ देर पहले कई मोटरसाइकिलों पर बहुत सारे लड़के बहुत जोर-जोर से शोर मचाते हुए यहां से निकले हैं।”

“लालाजी ! वह तो सड़क है, निकलेंगे ही।”
“हमारी गैलरी में कंकर भी फेंका था।”
“शरारत की होगी किसी ने।”
“उससे पहले बम का धमाका भी हुआ था।”
“आपके घर में ?”
“नहीं…कहीं और…”
“वे तो रोजाना ही हो रहे हैं। धमाका सुनते ही हम लोग दौड़ते हैं। लेकिन जब तक हम लोग पहुंचे, क्या धमाका करने वाले बैठे रहेंगे।”
“और सुनिए, अभी-अभी उन गुण्डों ने हमें टेलीफोन पर धमकियां भी दी हैं।”
“किन गुण्डों ने ?”
“अब मैं क्या बताऊं, वे कौन थे ?”
“तो फिर हम किसके विरुद्ध कार्यवाई करें ?”
“वे उस लुटेरे के साथी थे।”
“लेकिन टेलीफोन पर धमकी कोई सबूत नहीं होता। आप चाहें तो रिपोर्ट दर्ज करा सकते हैं।”
“क्या हमें पुलिस प्रोटेक्शन नहीं मिल सकता ?”
“उसके लिए डी॰ एम॰ साहब को आवेदन कीजिए। हम उनके आदेश के बिना कोई भी कदम उठाने से मजबूर हैं।”
“जी…!”
“और कुछ ?”
“नहीं…बस।”
दूसरी तरफ से लाइन कट गई।
लाला ने रिसीवर रख दिया। उसकी आंखों में चिन्ता की झलकियां स्पष्ट रूप से नजर आ रही थीं।
