एफ॰ आई॰ आर॰ लिखने के बाद जब गवाहों के बयान लिखे गए तो प्रोफेसर और हशमत ने एक ही प्रकार का बयान लिखवाया। शोर सुनकर वे दौड़कर बाहर आए तो लाला सुखीराम की दुकान से चीख-पुकार की आवाज आ रही थी।
गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
उन लोगों ने चिल्ला-चिल्लाकर लाला को पुकारा तब तक वे दोनों, जो अन्दर दुकान में थे कूदकर बाहर निकले और मोटरसाइकिल पर बैठ गए। मोटरसाइकिल तीसरे ने स्टार्ट कर रखी थी। वे तीनों भाग खड़े हुए।
फिर उन चारों कांस्टेबलों के बयान लिखवाए गए। चारों ने बताया कि वे लोग मौरिस रोड के चौराहे से गुजर रहे थे कि शोर सुना। फिर एक मोटरसाइकिल भागती हुई आई, जिस पर पीछे बैठे जवान पप्पी को अमरसिंह ने झपट्टा मारकर खींच लिया। बाकी दोनों मोटरसाइकिल पर भागते चले गए।
औपचारिक कार्रवाइयां पूरी होने के बाद अभियुक्त पप्पी उर्फ प्रेमप्रताप को हथकड़ियां लगा दी गईं और वे लोग उसे जीप में बिठाकर ले गए। प्रोफेसर और हशमत रुककर बराबर लाला सुखीराम को धीज बंधाते रहे।
शेष लोगों ने इधर-उधर कुछ देर तक ग्रुप बनाकर इस विषय पर विचार विमर्श किया। उसके बाद वे लोग भी अपने-अपने घरों में चले गए।
कांस्टेबल अमरसिंह उस दिन बहुत खुश था। पुलिस में नया-नया आया था ट्रेनिंग पूरी करके। उसकी पहली पोस्टिंग शरदपुर के थाने में हुई थी। उसे रात की गश्त का काम सौंप दिया गया था।
दूसरे सिपाहियों के लिए रात की गश्त का काम सबसे ज्यादा बोरिंग था, क्योंकि रात में ऐसे लुटेरों का खतरा रहता था, जो आजकल देसी कट्टे, चाकू और अंग्रेजी रिवाल्वरों से लैस, डकैती और खुली मिल गई दुकानों पर लूटमार की वारदातें कर रहे थे।
गश्ती सिपाहियों के पास सिर्फ लाठियां होतीं; जिनके द्वारा वे उन लुटेरों का मुकाबला नहीं कर सकते थे। न ही रात में आजकल लोग नाइट-शो देख रहे थे, जिनके दर्शकों को घर तक पहुंचाने वाले रिक्शापुलरों से कुछ ‘ऊपर की कमाई’ हो जाती।
उन दिनों चाय की दुकानें और पनवाड़ियों की दुकानें भी ज्यादा देर तक नहीं खुलती थीं, जिनसे मुफ्त में चाय-पान का ही आश्रय मिल जाता।
पप्पी उर्फ प्रेमप्रताप को हवालात में बन्द कर दिया गया था। इन्स्पेक्टर दीक्षित जो शरदपुर का एस॰ एच॰ ओ॰ था, प्रेमप्रताप से रात के ग्यारह बजे के बाद ‘पूछताछ’ करने वाला था। डी॰ एस॰ पी॰ थाने से जा चुका था।
अमरसिंह और उसके तीनों साथी थाने के बरामदे में पड़े सड़े हुए बेंत के मूंढ़ों पर बैठे थे। उनमें से एक ने अमरसिंह को जलती आंखों से देखा और दांत पीसकर बोला‒
“लाद लीन मुसीबत सिर पर। बहुत शौक उठ रहा था बहादुरी दिखाने का।”
दूसरे ने कहा‒“अब जब गले में खिंचकर आएगी तो पता चलेगा।”
तीसरा बोला‒“अबे, हीरो ही बनना था तो मुंबई क्यों नहीं चला गया ?”
अमरसिंह ने उन्हें हैरत से देखकर कहा‒“मेरी समझ में नहीं आता, तुम लोग कैसी बातें कर रहे हो !”
“आ जाएगा…जल्दी समझ में आ जाएगा।”
“अरे ! जब मैंने उसे पकड़ने को कहा तो तुम लोग पीछे हट गए और जब मैंने पकड़ लिया तो सबसे आगे आ गए और मुझे बोलने भी नहीं दिया और अब फिर वैसी ही बातें कर रहे हो।”
तभी कम्पाउंड से एक मारुति कार आकर रुकी। उसमें से बन्द गले का कोट और पतलून पहने एक गोरा-चिट्टा लगभग पचास वर्ष की उम्र का एक आदमी उतरा और सीधा अन्दर जाने लगा तो तीनों झट से खड़े हो गए।
अमरसिंह को भी खड़ा होना पड़ा। उन तीनों के साथ एक दरोगा ने भी आने वाले को नमस्कार किया।
जब वह अन्दर चला गया तो अधेड़ उम्र के कांस्टेबल ने अमरसिंह से कहा‒“साले ! सम्भालियो झोंक।”
अमरसिंह ने हैरत से पूछा‒“क्या हुआ ?”
“पहचानता नहीं अपने बाप को ?”
अमरसिंह ने आंखें निकालकर कहा‒“ऐ पण्डित ! बहुत हो गई। अब की बार मेरे माता-पिता के बारे में ऐसी-वैसी बात कही तो टेंटुआ दबा दूंगा। बड़ी देर से सुन रहा हूं।”
“अबे, जानता है। यह जो कार से आए हैं, कौन हैं ?”
“होंगे कोई। मुझे क्या मतलब है ?”
“साले ! यह शेरवानी साहब हैं।”
“शेरवानी हों या कोट-पतलून…मुझे क्या ?”
“अबे ! यह वह हस्ती हैं, जिनके हाथों में शहर भर के अपने धर्म के लोगों के वोट हैं यह अपने धर्म वालों की नकेेल पकड़कर, जिधर मोड़ दें, ऊधर ही सब मुड़ जाते हैं।”
“तो मैं क्या करूं ?”
“तू क्या करेगा ? जो करना है, वह खुद ही कर लेंगे।”
कुछ देर बाद सब-इन्स्पेक्टर ने जोर से पुकारा‒‘अमरसिंह !’
अमरसिंह तुरन्त उठता हुआ बोला‒‘जी साहब।’
“अन्दर आओ।”
“अच्छा, साहब।”
पण्डित व्यंग्य से हंसकर बोला‒“आ गई साले की…।”
अमरसिंह अन्दर पहुंचा और सैल्यूट मारकर खड़ा हो गया तो इन्स्पेक्टर दीक्षित ने उसकी तरफ इशारा करके शेरवानी से कहा‒“इसने पकड़ा था प्रेमप्रताप को ?”
शेरवानी ने सुर्ख-सफेद चेहरे और रौबदार नजरों से अमरसिंह को ऊपर से नीचे तक देखा और धीरे से गर्दन। हिलाकर बोला‒“हूं…”
इन्स्पेक्टर दीक्षित ने अमरसिंह से कहा‒“यह शेरवानी साहब हैं‒नगर के प्रतिष्ठित समाजसेवक।”
अमरसिंह ने विनम्रतापूर्वक शेरवानी को अभिवादन किया, ‘सलाम साहब।’
शेरवानी ने रौबदार आवाज में कहा‒“सलाम ! शायद तुम नए-नए तबादला होकर यहां आए हो।”
“साहब ! हम नए-नए ही यहां अप्वाइंटेड किए गए हैं।”
“अंग्रेजी भी जानते हो ?”
“बी॰ एस॰ सी॰ पास हैं साहब। नौकरी नहीं मिली तो सिपाही बनना पड़ा।”
“ओहो, बड़ी ट्रैजडी है। निकम्मी हुकूमतों में नौजवानों का भविष्य कभी सुरक्षित नहीं रह सकता।”
“नहीं साहब। हमें सरकार से कोई शिकायत नहीं। अरे साहब, हर साल लाखों डिग्रियां लेकर निकलते हैं। उतने रिटायर तो होते नहीं। भला, सरकार कहां से नौकरियां देगी ?”
शेरवानी बड़े दर्पयुक्त स्वर से बोला‒“समझदार भी लगते हो।”
“ऊपरवाले की दया है साहब। अपनी क्लास का सबसे तेज स्टूडेंट था।”
“तुमने कोई निजी कारोबार क्यों नहीं कर लिया ?”
“साहब ! इतनी पूंजी नहीं थी। हमारे पिता एक ईमानदार दरोगा थे। रिटायमेंट से पहले ही वह गुंडों से मुठभेड़ में शहीद हो गए।”
“कुंवर समीरसिंह !”
“ओहो, उन्होंने तो स्टूडेंट्स के जुलूस पर गोली चला दी थी।”
“नहीं…नहीं साहब। जुलूस स्टूडेंट्स का जरूर था। मैं भी जुलूस में शामिल था। लेकिन रास्ते में कुछ गुण्डे हम लोगों में शामिल हो गए थे।”
“बस जब डी॰ एम॰ की कोठी से पहले पिताजी ने छात्रों को रोका तो छात्रा तो रुक गए, लेकिन गुण्डों ने हुल्लड़ मचाकर पथराव शुरू कर दिया।
“पिताजी ने लाठीचार्ज का हुक्म दिया था सिर्फ। हमने खुद अपने कानों से सुना था। लेकिन एक दरोगा ने गुण्डों की जगह छात्रों पर गोलियां चला दीं। पिताजी ने रोका तो एक गोली उन्हें मार दी। बाद में अखबारों में यह छापा कि पिताजी पर किसी स्टूडेंट ने गोली चलाई थी।”
“हूं, तुम बहुत सीधे भी हो।”
“नहीं साहब। हम ईमानदार हैं। पिताजी की भांति।”
“तो तुम्हें पुलिस की नौकरी रास नहीं आएगी।”
“क्या मतलब ?”
“हम तुम्हारे लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखकर दे देंगे। यहां से दस किलोमीटर के फासले पर हरी रोड पर एक शुगर फैक्ट्री है, जिसकी कैंटीन का ठेका तुम्हें साल में दो बार मिला करेगा। उस ठेेके में तुम इतनी कमाई कर लोगे कि जीवन भर इस नौकरी में तुम्हें उतनी कमाई नहीं हो सकेगी।”

“नहीं…नहीं साहब ! हम पुलिस की ही नौकरी करना चाहते हैं। देश की सेवा इस विभाग से ज्यादा कहां हो सकेगी ?
“अब देखिए न। कल रात ही हमने एक ऐसे लुटेरे को पकड़ लिया, जिसने दो बदमाशों के साथ मिलकर एक लाला की दुकान भी लूटी थी और बाप-बेटे को मारा-पीटा भी था।”
“हूं, ठीक है यही नौकरी।”
इंस्पेक्टर दीक्षित ने अमरसिंह से कहा‒“जाओ…!”
अमरसिंह सैल्यूट करके एड़ी-पंजे पर घूमकर बाहर निकल गया।
इंस्पेक्टर दीक्षित ने शेरवानी की तरफ देखकर कहा‒“यह गधा वहां न होता तो पंडितजी और उसके दोनों बाकी साथी प्रेमप्रताप को हर्गिज नहीं पकड़ते।”
“इसकी बात छोड़िए। आप अपनी बात कीजिए।”
“अब आप जो भी हुक्म करें ? लेकिन यह सोचकर कि प्रोफेसर शर्मा और हशमत खां साहब प्रेमप्रताप की गिरफ्तारी के गवाह बन गए हैं।”
शेरवानी तनिक मुस्कराया और बोला‒“हमारी उन दोनों से फोन पर बात हो गई है। वे लोग माहौल से मजबूर हो गए थे। उन्होंने इस तरह के बयान लिखवाए हैं कि बचाव का पहलू निकल आता है। वे दोनों शिनाख्त परेड के समय प्रेमप्रताप की शिनाख्त नहीं करेंगे।”
“तब तो केस वहीं खत्म हो जाएगा।”
“लेकिन आपका यह कांस्टेबल अमरसिंह ?”
“एक नम्बर का गधा है।”
“इससे कहिए, बल्कि इसे किसी तरह राजी कीजिए कि इसने धोखे से प्रेमप्रताप को पकड़ लिया था।”
“मुश्किल है उसका राजी होना !”
“हूं…फिर ठीक है। प्रेमप्रताप को बुलवाइए।”
कुछ क्षणोंपरांत पप्पी शेरवानी के सामने खड़ा था। शेरवानी ने उससे कहा‒“इतने इज्जतदार बाप के बेटे हो। कल अगर दुनिया को मालूम हो जाए कि ज्योति ऑयल मिल के मालिक जगताप सेठ का बेटा मामूली लूटमार के मामले में पकड़ा गया तो उनकी क्या इज्जत रह जाएगी।”
पप्पी ने कहा‒“अंकल ! मैं तो अपने दोस्तों के साथ नाइट-शो देखकर लौट रहा था। वह रंगरूट कांस्टेबल है न। उसने मोटरसाइकिल रोक ली। कहने लगा‒कागजात दिखाओ।

“मैंने बताया कि कागजात घर पर हैं। मंगवाता हूं।
“इतने में लाला की दुकान की तरफ से चीख-पुकार सुनाई दी और वह मोटरसाइकिल हम लोगों के सामने से गुजरी जिस पर तीन लुटेरे थे। वे फायर करते निकल गए और उसने मुझे पकड़ लिया कि या तो सौ रुपए दो या अन्दर करवा दूंगा।”
शेरवानी ने मुस्कराकर कहा‒“यह बयान याद रखना। शिनाख्त परेड के बाद तुम जब बाहर आओगे तो अमरसिंह की पेशी डी॰ एम॰ के सामने होगी और तुम्हें उनके सामने यही बयान देना है।”
“जी, अंकल…!”
शेरवानी ने उठते हुए इंस्पेक्टर दीक्षित से कहा‒“ख्याल रखिएगा‒लड़के को बहुत मार पड़ चुकी है।”
“आप इत्मीनान रखिए। अब कोई पूछ-ताछ नहीं होगी।”
इन्स्पेक्टर दीक्षित भी उठ गया था। वह सादर शेरवानी के साथ चलता हुआ बाहर आया।
शेरवानी ने कहा‒“कल सुबह ही चालान मत कटवाइएगा। हो सकता है, दोपहर तक लाला सुखीराम खुद ही रिपोर्ट वापस ले लें। फिर जमानत का सवाल ही नहीं पैदा होता।”
“बेहतर है।”
शेरवानी ने सौ रुपए का नोट निकालकर दिया और बोला‒“लड़के के लिए इस वक्त खाने को जो कहे, मंगवा दीजिए। कल नाश्ता भी अच्छा-सा मंगवाइएगा‒वह वैज नहीं है।”
“मैं समझता हूं।”
इन्स्पेक्टर ने शेरवानी से हाथ मिलाया। शेरवानी गाड़ी में बैठा और गाड़ी चली गई। इन्स्पेक्टर वापस अन्दर लौट गया।
अमरसिंह अपने साथियों के साथ बाकी रात की गश्त पूरा करने जा चुका था।
