gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

यद्यपि इलाके में लूटपाट और अपराध की कई वारदातें हो चुकी थीं, और लोग अन्धेरा होते ही अपने घरों में घुस जाते थे, फिर भी रात के साढ़े नौ बजने पर भी लाला सुखीराम की दुकान अभी तक खुली थी, जबकि उस रोड पर सामने गर्ल्स कॉलेज की लम्बी चारदीवारी थी।

गर्ल्स कॉलेज के गेट से मौरिस रोड के चौराहे तक कॉलेज की दीवार के सामने बड़े-बड़े लोगों की कोठियां थीं, जिनके फाटक आठ बजे से ही बंद हो जाते और घरों में न्यूज, सीरियल वगैरह के बाद लोग केबल टीवी देखने में लग जाते।

लाला सुखीराम जान-बूझकर इसलिए अपनी दुकान देर तक खोले रहता था कि अड़ौस-पड़ौस की कोठियों के लेक्चरारों, प्रोफेसरों और दूसरे उच्चपदाधिकारियों के यहां के नौकर डिनर के बाद ही निबटकर सुबह के ब्रेकफास्ट के लिए डबलरोटी, मक्खन, दूध की थैलियां, जेली, जेम, बिस्कुटों के पैकेट और अंडे वगैरह लेने निकलते थे।

एक ही दुकान खुली देखकर वे लोग उसी दुकान पर आते थे। मौरिस रोड के पिछवाड़े के इलाके वालों को भी मालूम था कि लाला सुखीराम की दुकान ही इतनी रात में खुली मिल सकती है। इसलिए वे लोग भी आकस्मिक या इमरजेंसी जरूरत के लिए उधर ही आते थे।

लाला सुखीराम के लिए एक सबसे बड़ी सुविधा यही थी कि उसका मकान दुकान के ऊपर ही था और सीढ़ियां दुकान से बिल्कुल मिली हुईं थीं। अतः वह आराम से दुकान बंद करके अपने घर में घुस सकता था।

दुकान पर उसका छोटा बेटा अमृत साथ रहता था। बड़ा लड़का विवाहित था और उसने शिक्षा के बाद सर्विस कर ली थी। नौकरी से लौटने के बाद वह अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ टीवी देखने में लग जाता।

उस समय भी लाला सुखीराम के साथ उसका बड़ा बेटा अमृत ही दुकान पर था।

प्रायः लाला सुखीराम दिनभर की आय की धनराशि साढ़े सात से साढ़े आठ बजे तक गल्ले से निकालकर घर में भिजवा देता था। उसके बाद की जो आय होती थी, वह इतनी बड़ी रकम नहीं होती थी, जिसके लुटने की आशंका रहती क्योंकि उन दिनों शहर और सिविल लाइन क्षेत्र में लूट और डकैती की वारदातें बहुत हो रही थीं। मगर अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई थी। जनता इस बात को प्रशासन की लापरवाही की संज्ञा का नाम दे रही थी।

उस रात एक ग्राहक थोक का सौदा भरवाने आ गया था, जिसके कारण दिन भर की आय लाल घर नहीं भिजवा सका था। अब आखिरी ग्राहक एक प्रोफेसर के नौकर की डबलरोटी, मक्खन, अंडे वगैरह देने के बाद उसने अमृत से कहा‒“चल, बेटा‒झटपट सामान लगा दे। तब तक मैं गल्ला संभाल लूं।”

“बापू, शटर गिरा लूं ?”

“अरे पगले, शटर गिराकर क्या करेगा ? अब इतनी जल्दी कौन आ रहा है ?”

“बापू ! अभी परसों ही पिछवाड़े की गली में नौ बजे के बाद ही मोटरसाइकिल सवारों ने एक प्रोफेसर के हाथ की घड़ी और जेब का बटुआ छीन लिए थे रिवॉल्वर दिखाकर !”

“शुभ-शुभ बोल। चल, जल्दी कर।”

अमृत सामान काउंटर से उठाकर रखने लगा। लाला सुखीराम ने गल्ला खिसका लिया, लेकिन नोट निकाल-निकाल कर काउंटर के नीचे ही हाथ किए-किए गिनने लगा।

अचानक एक मोटरसाइकिल की दनदनाहट सुनाई दी और लाला के हाथों से नोट छूटते-छूटते बचे।

मोटरसाइकिल ठीक दुकान के सामने रुकी। उसके ऊपर तीन सुन्दर वेशभूषा वाले नौजवान सवार थे, जिनमें से दो आराम से उतर आए। तीसरा मोटरसाइकिल पर ही बैठा रहा और इंजन भी स्टार्ट रखा।

अमृत के हाथ भी कांप गए थे। लाला ने जल्दी से नोट गिरा दिए और उन्हें जूते से काउंटर के नीचे सरका दिया।

दोनों नौजवान ऊपर आ गए तो लाला ने बड़ी विनम्रता से पूछा‒

“क्या चाहिए, साहब ?”

अचानक दोनों ने रिवॉल्वर निकाल लिए। एक का रुख लाल की तरह था, दूसरे का अमृत की तरफ। अमृत चुप खड़ा रह गया। उसका चेहरा फीका पड़ गया था। लाला के चेहरे से तो लगता था, मानो उसके शरीर से आत्मा ही निकल गई हो।

एक नौजवान ने लाला से कहा‒

“चलो, माल ढीला करो…जल्दी…”

लाला ने कंपकंपाते हाथों से गल्ला खोल दिया और थूक निगलकर बोला‒“ब…ब…बस…इतनी ही आमदनी है गल्ले में !”

नौजवान ने गल्ले में झांका और गुर्राकर बोला‒“हरामजादे ! सुबह से शाम तक नोट गिनता है और गल्ले में ये चालीस-पचास रुपए ?”

अमृत ने तनिक गुस्से से कहा‒“गाली क्यों देते हो ?”

दूसरे नौजवान का उल्टा हाथ अमृत के गाल पर पड़ा और वह लड़खड़ाकर अलमारी के टकराया और लाल ने चिल्लाकर कहा‒“अमृत…बेटा…!”

मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही पहले ही से ऊपर गैलरी में लालाइन और उनकी लड़की रीता आकर नीचे झांकने लगी थीं।

जैसे ही लाला की चीख सुनी, ऊपर से लालाइन ने छाती पीटते हुए चिल्लाकर कहा‒

“हाय राम ! ये तो लुटेरे हैं।”

रीता चिल्लाकर पुकारने लगी‒बापू…भैया…”

लालाइन ने चिल्लाकर कहा‒“हाय…ये तो मेरे पति और बेटे को मार डालेंगे।”

फिर रीता दौड़कर दूसरी मंजिल की सीढ़ियों पर आकर चिल्लाई‒“बड़े भैया…बड़े भैया !”

लेकिन बड़े भैया के कमरे में चलने वाले टी॰ वी॰ का वाल्यूम इतना तेज था कि उसकी आवाज उनके कानों तक पहुंच ही न सकी।

दूसरी तरफ लालाइन लगातार चिल्ला रही थी‒ “बचाओ…बचाओ…।”

अरे, कोई आओ…मेरे पति और बेटे को बचाओ।”

“चौकीदार…चौकीदार…!”

रीता ने झट दूसरी खिड़की खोली और अपने मकान की दीवार से लगी कोठी में रहने वाले प्रोफेसर के लड़कों को पुकारने लगी‒“चांद भैया…मोहम्मद भैया…चाचा…चाची…अरे कोई है…”

लेकिन उन लोगों के यहां भी टी॰ वी॰ का वाल्यूम इतना ऊंचा था कि उनके ड्राइंग-रूम तक आवाज पहुंचने का सवाल ही नहीं पैदा होता था।

प्रोफेसर की कोठी से लगी दूसरी कोठी में रहने वाले पी॰ डब्ल्यू॰ डी॰ के इंजीनियर की पत्नी शीला ने पुकारकर कहा‒“क्या हुआ, रीता ? लालाइन की तबियत तो ठीक है ?”

रीता ने बेचैनी से कहा‒“आंटी ! भगवान के लिए जल्दी से अंकल और तीनों भैयों को भेज दीजिए दुकान पर।”

“दुकान पर…।”

“क्या हुआ दुकान पर ?”

“लुटेरे आ गए हैं‒बापू और अमृत भैया के सिवा दुकान मैं कोई नहीं।”

“हाय राम ! अभी भेजती हूं।”

शीला भागकर कमरे में घुस गई और दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया। रीता और भी ज्यादा जोर-जोर से रोआंसी होकर पुकारने लगी। फिर पलटकर गैलरी में आ गई, जहां लालाइन चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी और नीचे दुकान में तोड़-फोड़ और मारपीट की आवाजें आ रही थीं।

गर्ल्स कॉलेज के गेट पर खड़े चौकीदार ने हंगामे की आवाज सुनी। साथ ही किसी ने अन्दर से दरवाजा खोलकर उससे पूछा‒“यह कैसा शोर है, गोरखा ?”

चौकीदार ने जवाब दिया‒“लगता है, लाला की दुकान पर डाका पड़ रहा है।”

अन्दर खड़े माली ने उसकी भुजा पकड़कर अन्दर खींचते हुए कहा‒“अबे, तो तू क्यों मरने को बाहर खड़ा है ? अन्दर आ जा फटाफट।”

चौकीदार अन्दर घुस गया और दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया।

पुलिस की एक गश्ती जीप गर्ल्स कॉलेज के गेट के पास पहुंचते-पहुंचते धीमी हो गई। उसमें एक दरोगा और चार कांस्टेबल थे।

एक कांस्टेबल ने कहा‒“शोर की आवाजें आ रही हैं।”

दूसरा बोला‒“यह तो मोरिस रोड के चौराहे की तरफ से ही आ रही हैं।”

तीसरा चौंककर बोला‒“ओहो, लाला सुखीराम के यहां डाका पड़ रहा है।”

“वही साला लालची इतनी रात तक दुकान खोले बैठा रहता है।”

पहले कांस्टेबल ने दरोगा से कहा‒“साहब ! इधर शरदपुर की गली में मोड़ लीजिए।”

सब-इन्स्पेक्टर ने फुर्ती से जीप गली में मोड़ी और तेजी से दौड़ाता हुआ घटनास्थल से विपरीत दिशा में ले गया और इस बीच उसने लाइटें भी नहीं रोशन की थीं।

चार गश्ती कांस्टेबलों का दस्ता मौरिस रोड के चौराहे तक आया और शोर सुनकर रुक गया। उनके हाथों में लाठियां थीं।

एक कांस्टेबल ने कहा‒“यह सामने मोटरसाइकिल खड़ी है‒वहीं से शोर की आवाज आ रही है।”

दूसरा बोला‒“ऊपर गैलरी में औरतें भी चिल्ला रही हैं।”

दूसरा बोला‒“अरे, वह गैलरी तो लाला सुखीराम के मकान की है।”

“और उनके नीचे ही लाला सुखीराम की दुकान है।”

“पूरे रोड पर एक वही दुकान रात में देर तक खुली रहती है।”

“जरूर उसी दुकान पर डाका पड़ रहा है।”

“चलो, सामने के रोड पर निकल चलो।”

एक नौजवान कांस्टेबल अमरसिंह ने हैरत से कहा‒“आगे निकल चलो…क्यों…?”

दूसरा बोला‒“अबे, देखता नहीं…वहां डाका पड़ रहा है।”

“तो फिर हम काहे के लिए गश्त पर निकले हैं ?”

“क्या मतलब ?”

“एक दुकान पर डाका पड़ रहा है और हम लोग शोर की आवाज सुनकर निकल जाएं ? लुटने वालों की मदद करने भी न जाएं ?”

एक कांस्टेबल ने हंसकर कहा‒“अरे रंगरूट ! नया-नया भरती हुआ है न।”

अमरसिंह ने बुरा-सा मुंह बनाकर कहा‒“शब्द रंग-रूट नहीं, रिक्रूट है।”

“अच्छा, अंग्रेजी पड़ी है तूने।”

“बी॰ एस॰ सी॰ पास हूं।”

“तो फिर एम॰ एस॰ सी॰ या डी॰ एम॰ क्यों नहीं बन गया।”

“तुम लोग बातों में समय गंवा रहे हो‒वहां किसी की जान चली गई तो ?”

“अबे तो क्या सोलह सौ रुपल्ली के लिए हम अपनी जान दे दें।”

“क्या मतलब ?”

“गधे ! हमारे हाथों में डंडे हैं‒आजकल के जेबकतरों की जेबों में भी देसी कट्टे जरूर रहते हैं‒वे तो मोटरसाइकिल वाले हैं, विदेशी रिवाल्वर रखते होंगे।”

“तो फिर तुम लोगों ने पुलिस की नौकरी क्यों की है ?”

“बच्चों का पेट पालने के लिए‒उन्हें अनाथ करने के लिए नहीं।”

“क्या तुम लोगों ने वर्दी पहनते समय जनता और कानून की रक्षा की शपथ नहीं ली ?”

“अबे, शपथ ग्रहण का नाटक तो वे मंत्री भी करते हैं, जो कुर्सी संभालते ही देश के लाभ विदेशियों को बेचने लगते हैं।”

अमरसिंह ने गुस्से से कहा‒“यह कानून और जनता से गद्दारी है। हम लोग कानून और जनता के रखवाले हैं।”

“तेरे घर में कोई है ?”

“क्यों नहीं ? एक बूढ़ी मां है। एक जवान बहन है।”

“तेरी शादी नहीं हुई ?”

“अभी नहीं, पहले बहन की शादी होगी।”

“साले, इसीलिए इतना फुदक रहा है। एक बार बीवी के साथ सो लिया होता तो सबसे पहले यहां से भागता।”

“क्या बकवास है ?”

“तू शोर सुन रहा है न ?”

“तुम लोग भी सुन रहे हो। औरतें कैसे छटपटा रही हैं।”

“क्या उनके पड़ोसी नहीं सुन रहे होंगे।”

“क्या मतलब ?”

“कोई पड़ोसी अब तक उनकी मदद को निकलकर आया ? बराबर की कोठी में ही एक बन्दूक है। प्रोफेसर साहब की कोठी में ही बन्दूक है‒वह भी लाइसेंस वाली।”

एक हड़बड़ाकर बोला‒“अबे, वे इधर ही आ रहे हैं लूटमार करके।”

“तीन-तीन हैं।”

“जल्दी छूपो।”

तीन कांस्टेबल एक पनवाड़ी के खोखे के पीछे छुप गए। लेकिन अमर वहीं खड़ा रहा तो एक ने दांत पीसकर कहा‒“अबे, क्या मरेगा ?”

अमर गुस्से से बोला‒“मैंने वर्दी पहनते समय जो शपथ ग्रहण की है, उसे नहीं तोड़ सकता।”

एक अधेड़-उम्र कांस्टेबल ने उसे गंदी-सी गाली देकर कहा‒“अबे, गधे के बच्चे ! तू कलयुग में क्यों पैदा हो गया ? तुझे तो सतयुग में जन्म लेना चाहिए था। हम सबको भी मरवाएगा।”

इस बीच मोटरसाइकिल समीप पहुंच चुकी थी।

अमरसिंह ने लाठी घुमाकर मोटरसाइकिल पर मारी। लेकिन लुटेरे जवान पहले ही चौकन्ने हो गए थे। चलाने वाले ने एकदम मोटरसाइकिल लहरा दी। अमरसिंह की लाठी सड़क पर पड़ी। उसके दोनों हाथ बुरी तरह से झनझना गए। लेकिन साथ ही मोटरसाइकिल भी डगमगा गई।

अमरसिंह ने झपट्टा मारकर पीछे बैठने वाले की भुजा दबोच ली। उसके उस हाथ में कट्टा था, जिसका फायर बेकार गया।

बीच वाले ने हाथ मोड़कर फायर किया। लेकिन अमरसिंह झट झुक गया। मोटरसाइकिल रुकी नहीं थी, भागती ही रही। अमरसिंह ने पीछे वाले की भुजा इतनी जोर से दबोच रखी थी कि उसके लिए छुड़ाना मुश्किल हो रहा था।

आगे वाले ने चिल्लाकर कहा‒“पप्पी ! तू कूद जा, बाद में देख लेंगे सालों को।”

पीछे वाले ने चिल्लाकर कहा‒“अबे गोली चला मार डाल साले को।”

इस बार अमरसिंह ने जोर से झटका दिया और पीछे वाली गद्दी पर से उखड़ गया। मोटरसाइकिल फर्राटे भरती चली गई।

पप्पी नामक जवान गिर पड़ा।

अमरसिंह ने उसे मजबूती से दबोचते हुए चिल्लाकर कहा‒“पकड़ लिया।”

पप्पी ने अपने-आपको कई झटके देकर छुड़ाने की कोशिश की। लेकिन अमरसिंह एक नौजवान शक्तिशाली पट्ठा था। पप्पी खुद को नहीं छुड़ा सका। उसका कट्टा भी गिर गया।

जब पप्पी अकेला रह गया, तब बाकी तीनों गश्ती सिपाही खोखे के पीछे से निकल पड़े। फिर उन लोगों ने आते ही इस प्रकार जोर-जोर से चिल्ला-चिल्लाकर पप्पी को चांटे मारना और गालियां बकना शुरू कर दिया, जैसे उन्होंने ही पप्पी को पकड़ा हो।

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