रात के अंधेरे में तीन छायाओं ने कब्रिस्तान में प्रवेश किया और दबे पांव चलते हुए शौकत की कब्र के पास रुक गए।
वे तीनों अमर, अमृत और हशमत थे।
हशमत ने कहा‒“यही है शौकत की कब्र !”
गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
अमर ने कहा‒“हशमत चाचा ! कब्र खोदकर उसमें से लाश निकालना गुनाह तो नहीं है ?”
हशमत ने गम्भीरता से कहा‒“बेशक गुनाह जरूर है, लेकिन दस हजार गुनाह बचाने के लिए एक गुनाह करना कोई गुनाह नहीं है। अगर यह गुनाह है तो भी यह गुनाह मैं अपने सिर लूंगा।”
“हशमत चाचा ! इंसाफ की इस जंग में आपका नाम हमारे दिलों में सुनहरी शब्दों में हमेशा लिखा रहेगा।”
“जल्दी…देर मत लगाओ…कब्रिस्तान का चौकीदार सो रहा होगा।”
अमर और अमृत ने फाबड़े संभालकर कब्र की खुदाई शुरू कर दी।
लगभग एक घण्टे में लाश बाहर निकालकर उन लोगों ने कब्र को फिर से पहले की ही तरह बराबर कर दिया। कब्र ऐसी हो गई कि किसी को भी संदेह न हो सके कि वह खोदी गई है।
लाश को एक काले कम्बल में लपेटकर अमर और अमृत ने उठवाया, फिर वे तीनों कब्रिस्तान से बाहर आ गए।
अमर के शरीर पर एक मैला-सा कुर्ता और मैली-सी धोती थी। पैरों में गंवारों सरीखे जूते और और सिर पर पगड़ी। वह ठेठ देहाती नजर आ रहा था।
उसने लाश रिक्से के टब में रखी। फिर अमृत और हशमत से कहा‒“अब आप लोग जाइए।”
अमृत ने झट पूछा‒“लेकिन तुम अकेले जाओगे। अगर पकड़े गए तो ?”
“मैं अब नहीं पकड़ा जाऊंगा। हां, तुम मेरे साथ होगे तो हम दोनों पकड़े जाएंगे, क्योंकि तुम वे सब नहीं कर सकते, जो मैं कर लूंगा।”
“ठीक है, लेकिन मुझे तुम्हारी चिंता जरूर रहेगी।”
“घबराओ मत। अगर मेरी नीयत अच्छे काम की है तो मुझे कुछ नहीं होगा।”
हशमत ने कहा‒“जाओ, बेटे। मेरी दुआएं तुम्हारे साथ हैं।”
अमर ने दिल में भगवान का नाम लिया और रिक्शा लेकर चल पड़ा। अमृत और हशमत कुछ दूर तक उसे जाते हुए देखते रहे। फिर जब उसका रिक्शा नजरों से ओझल हो गया तो वे लोग एक तरफ साथ-साथ चल पड़े।
रात के लगभग साढ़े बारह बजे होंगे।
शेरवानी ने अभी-अभी आखिरी घूंट लेकर गिलास रखा था और तन्दूरी चिकन की प्लेट आगे सरकाकर नौकर को पुकारा था‒“रहीम…!”
रहीम दौड़कर आया और बोला‒“जी, मालिक।”
“अबे, तूने क्या कनीज से नहीं कहा था ?”
“कह दिया था हुजूर कि आपने बुलाया है।”
“और उस डोमिनी की यह मजार कि अब तक गायब है।”
“सरकार ! मोहल्ले भर में एक ही तो नौजवान और खूबसूरत डोमिनी है सांवली है तो क्या हुआ। हर जगह शादी-ब्याह पर उसी की पुकार पड़ती है।”
“आज किसके यहां शादी है ?”
“शादी नहीं, अकीका है। बन्ने मियां के बेटे का। पांच लड़कियों पर पहला लड़का हुआ है। बड़ी धूमधाम की है उन्होंने। कनीज भी वहीं होगी।”
“इसका मतलब है, वह आज नहीं आएगी।”
“यह तो नामुमकिन है। आपका हुक्म उसने कभी नहीं टाला। कोई न कोई बहाना करके, किसी न किसी तरह वह आ जरूर जाएगी।”
अचानक किसी ने दरवाजे की घण्टी बजाई और शेरवानी ने चौंककर कहा‒“यह कौन आया ?”
रहीम ने जवाब दिया‒“सरकार ! वही होगी कनीज।”
“नहीं, घण्टी बजाने का यह अंदाज कुछ-कुछ शौकत जैसा है।”
“मगर शौकत मियां तो कई दिनों से लापता हैं।”
“लापता क्या ? जवान-गर्म खून है। कहीं बड़ा हाथ मारा होगा। चला गया होगा किसी लड़की को लेकर मनोरंजन करने।”
घण्टी फिर से बजी और रहीम ने कहा‒“हजूर ! यह तो कनीज ही मालूम होती है।”
“जाओ, देखो।”
रहीम ने आकर “मैजिक-आई” से बाहर झांका, लेकिन वहां कोई नजर नहीं आया। रहीम सहम गया।
लौटकर कमरे में आया और बोला‒“सरकार ! दरवाजे पर तो कोई नहीं नजर आ रहा है।”
“अबे, बेवकूफ ! क्यों हैं ? फाटक पर तो पहरेदार मौजूद है। जब तक उसने अंदर नहीं आने दिया होगा, कौन आ सकता है ?”
“सरकार आप ही चलकर देखिए।”
“ला, बन्दूक उठाकर ला मेरी।”
रहीम बन्दूक ले आया। शेरवानी ने उसकी दोनों नलियों में कारतूस डाले और दरवाजे की जगह वह ऊपर वाले हिस्से में आया और जोर-जोर से पुकारने लगा‒“गफूर…गफूर !”
रहीम ने भयभीत आवाज में कहा‒“मालिक चौकीदार भी गायब है।”
“चुप करो, गायब होकर कहां जाएगा ? पन्द्रह वर्ष से हमारा नौकर है।”
“फिर बोलता क्यों नहीं ?”
“शायद निबटने गया होगा !”
फिर वह वापस मुड़ता हुआ बोला‒“आओ, नीचे आओ !”
वे लोग नीचे आये तो रहीम ने कहा‒“सरकार, इस प्रकार दरवाजा मत खोलिए।”
“क्यों ?”
“पता नहीं, क्या चक्कर है। दो बार घंटी बजरकर रह गई। फिर गफूर की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही है। घर में हम दोनों ही हैं। और आपके दोस्त कम, दुश्मन ज्यादा हैं।”
शेरवानी के माथे पर चिंता की रेखाएं नजर आईं। फिर उसने रिसीवर उठाकर डायल घुमाया और इलाके की पुलिस चौकी का नंबर मिलाने लगा।
रहमत पांडे की पुलिस-चौकी का इन्चार्ज सब-इन्स्पेक्टर ठाकुर जीप में चार कांस्टेबलों के साथ आ गया। फाटक पर जीप रोककर उसने कई बार हार्न बजाया।
फिर उसे इमारत की ऊपरी मंजिल से शेरवानी की आवाज सुनाई दी‒“निचली खिड़की खुली होगी। चौकीदार अब तक गायब है। आप लोग खिड़की से अन्दर आ जाइये।”
सब-इन्स्पेक्टर ठाकुर ने जोर से पूछा‒“बाद में किसी ने घंटी नहीं बजाई ?”
“नहीं…!”
सब-इन्स्पेक्टर ठाकुर ने रिवाल्वर निकालकर उतरे हुए कांस्टेबल से कहा‒“चलो, खिड़की खोलकर अंदर घुसो।”
कांस्टेबल ने सावधानीपूर्वक इस प्रकार खिड़की खोली, जैसे उसे आशंका हो कि खिड़की खुलते ही फायरिंग न शुरू हो जाए।
पहले कांस्टेबल अंदर घुसे। सब-इन्स्पेक्टर ठाकुर। ऊपर से आवाज आई‒“दरोगाजी ! आप लोग अंदर आ गए।”
“हां क्या बात है, शेरवानी साहब ?”
“मैं नीचे आ रहा हूं।”
दरोगा और कांस्टेबल जहां खड़े थे, वहां से हिले भी नहीं।
शेरवानी रहीम के साथ बंदूक लेकर नीचे आया और रहीम से बोला‒“चलो, दरवाजा खोलो। अब तो पुलिस आ गई है। अब काहे का डर ?”
रहीम ने बहुत डरते-डरते दरवाजा खोला। फिर बाहर निकला और किसी चीज से टकराकर औंधा गिरता हुआ गला फाड़कर चिल्लाया।

दरोगा ने चिल्लाकर चेतावनी दी‒“कौन है…खबरदार…?”
शेरवानी ने भी बंदूक तान ली थी। वह चिल्लाकर बोला‒“जल्दी आइए, दरोगाजी। यहां एक लाश पड़ी है।”
ठाकुर चीखकर बोला‒“लाश…किसकी लाश…?”
“लाश कफन में लिपटी है। पता नहीं किसकी है ?”
दरोगा ने शेरवानी से पूछा‒“कहां से आई यह लाश ?”
शेरवानी ने खीझकर कहा‒“मुझे मालूम होता तो तुम्हें क्यों बुलाता ?”
“म…म…माफ कीजिएगा।”
“किसी ने दो बार घंटी बजाई थी। वही लाश डालकर गया है शायद।”
“वह कौन था ?”
“तुम दरोगाजी हो या जोकर ? मैं अगर उसे देख भी लेता तो क्या बंदूक छाती से चिपटाए खड़ा रहता। उसे गोली न मार देता।
“ओह, ठीक कहते हैं। लेकिन आपका चौकीदार…?”
“पता नहीं, कम्बख्त कहां मर गया !”
अचानक गफूर की आवाज आई‒“सरकार मैं यहां हूं।”
वे लोग चौंक पड़े। गफूर आंखें रगड़ता हुआ आया तो शेरवानी ने उसे डपटकर कहा‒“कहां मर, गया था तू ?”
गफूर ने तुरंत जवाब दिया‒“हुजूर ! पता नहीं किसने मेरी कनपटी पर घूंसा मारकर बेहोश कर दिया था। बस, अभी-अभी होश में आया हूं।”
दरोगा ने कहा‒“जरूर उसी ने बेहोश किया होगा, जो लाश डाल गया है।”
गफूर उछलकर बोला‒“लाश ? कहां है ?”
“यह क्या पड़ी है।”
“कि…क…किसकी है ?”
दरोगा ने एक कांस्टेबल से कहा‒“कफन खोलकर मुंह देखो।”
दो कांस्टेबल बैठ गए। उन लोगों ने ऊपर का बंधन खोलकर जैसे ही मुंह खोला, शेरवानी लड़खड़ा कर पीछे हटता हुआ कंपकंपाती आवाज में बोला‒“शौकत मियां…!”
फिर वह दरवाजे से टिक गया और दरोगा हड़बड़ा कर बोला‒“अरे हां, यह शौकत मियां हैं। यह तो कई दिनों से लापता थे।”
शेरवानी कुछ न बोला। बड़ी मुश्किल से पीछे हटकर उसने एक सोफे का सहारा लिया। और फिर धम्म से सोफे पर बैठ गया।

दरोगा ने अचानक कहा‒“शेरवानी साहब ! लाश के साथ एक कागज भी है।”
शेरवानी ने मुश्किल से कहा‒“क…क…कागज…?”
“जी हां, ऐसा लगता है‒मानो खून से कुछ लिखा हो। अखबार का कागज है।”
“क…क…क्या लिखा है ?”
“उर्दू में लिखा है। मैं पढ़ नहीं सकता।”
शेरवानी ने दरोगा से कागज लिया। जिसमें खून में उंगली डुबोकर लिखा गया था‒
“मुझे चौहान ने मरवाया है नासिर से।”
शेरवानी ने कागज को मुट्ठी में भींच लिया। दरोगा ने झट पूछा‒“क्या लिखा है, शेरवानी साहब ?”
शेरवानी ने निढाल आवाज में कहा‒“कुछ नहीं ! इसे किसी ने लड़की के चक्कर में मार डाला है। आप एम्बूलैंस मंगवाइए।”
दरोगा ने फोन संभाला और सिविल हस्पताल के नंबर घुमाने लगा।
