gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

कार के शीशे चढ़े हुए थे। अमर जान-बूझकर पिछली सीट पर बैठा था। उसके पास प्रेमप्रताप का ही दिया हुआ रिवाल्वर भी था, जो अंग्रेजी था और जिसमें छह राउंड मौजूद थे। प्रेमप्रताप खुद कार ड्राइव कर रहा था।

एक बाजार से गुजरते हुए कुछ ऐसे हंगामे की आवाज आई, जैसे आपस में कुछ लोग लड़ रहे हों। वे लोग चौकन्ने हो गए।

गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

फिर एक आदमी बुरी तरह चिल्लाता और भागता हुआ उधर ही आता नजर आया‒“बचाओ…बचाओ…।”

“अरे, मुझे मार डालेंगे…!”

“भगवान के लिए मुझे बचाओ !”

उसके पीछे दस-बारह आदमी हाथों में लाठियां, हाकियां और दूसरी चीजें लेकर दौड़ते आ रहे थे।

अमर ने धीरे से कहा‒“होशियार प्रेम…!”

प्रेम ने धीरे से कहा‒“मैं समझ रहा हूं।”

“कार इतनी धीमी कर लो, जैसे रोक रहे हो। फिर एकदम निकालते ले चलना।”

प्रेमप्रताप ने कार की गति धीमी कर ली और भागने वाला आदमी उसी की गाड़ी के बोनट पर आकर गिरता हुआ चीखा‒“मुझे बचा लो…बाबूजी…।”

“मुझे बचा लो…!”

“मैंने किसी लड़की को नहीं छेड़ा, मुझ पर झूठा आरोप लगा रहे हैं।”

इतनी देर में वे दस-बारह बिफरे हुए लोग करीब पहुंच गए थे। उन्होंने जैसे ही कार के गिर्द घेरा डाला। प्रेमप्रताप ने फुर्ती से एक्सीलेटर दबा दिया।

गाड़ी झटके से आगे बढ़ी और फरियादी बोनट पर ही लटका रह गया।

पीछे से कई हाकियां, लाठियां कार पर पड़ीं। लेकिन शीशा भी न टूट सका और गाड़ी फर्राटे भरती हुई निकलती चली आई। फरियादी लटका रहा।

अमर ने प्रेम से कहा‒“बाजार से निकाल ले चलो। किसी सुनसान जगह रोकना।”

“वे लोग पीछे-पीछे आ गए तो ?”

“छः राउंड हैं। छः सौ की भीड़ भाग जायेगी।”

गाड़ी बाजार से निकली और एक सुनसान रास्ते पर आकर रुक गई। रुकते-रुकते अमर खिड़की खोलकर उतर पड़ा।”

फरियादी संभलकर खड़ा हो गया था। उसने आंखें फाड़कर हांफते हुए कहा‒“बहुत-बहुत धन्यवाद ! आपने मुझे मरने से बचा लिया।”

अमर ने उसकी भुजा पकड़कर कहा‒“चलो, गाड़ी में बैठो। वे लोग आ रहे होंगे।”

“नहीं-नहीं साहब। मैं चला जाऊंगा।”

“अबे, चला कैसे जाएगा ?”

अमर ने उसकी गर्दन पकड़कर गाड़ी में ठूंस लिया और प्रेमप्रताप से बोला‒“शहर से बाहर नहर की तरफ ले चलो।”

फरियादी ने हड़बड़ाकर कहा‒“क…क…क्यों ?”

अमर ने क्रूर स्वर में कहा‒“वहां से गोली की आवाज शहर तक नहीं आयेगी और नहर में लाश भी आसानी से बहाई जा सकती है।”

“नहीं…नहीं…!”

“हरामजादे…पहले इस नाटक का मतलब बता, फिर तुझे मरना तो है ही।”

“नहीं…नहीं। भगवान के लिए मुझे छोड़ दो !”

“छोड़ेंगे…मगर नहर में और लाश की सूरत में। और अब गोली की जगह मैं तुझे हाथों से मारूंगा। पहले दोनों हाथों का तोड़ दूंगा। फिर नाक पर पत्थर मारूंगा।”

फरियादी कंपकंपाकर गिड़गिड़ाया‒“नहीं…नहीं…।”

गाड़ी अब नहर की दिशा में ही दौड़ रही थी। अचानक अजनबी ने गाड़ी से बाहर झांककर चिल्लाने की कोशिश की‒“बचाओ…बचाओ…!”

अमर का एक तगड़ा-सा घूंसा उसकी ठोड़ी पर पड़ा और उसके अगले दो दांत बाहर आ गिरे। साथ ही खून भी मुंह से गोद में टपकने लगा।

अमर ने निर्मम स्वर में कहा‒“अब आसानी से चिल्ला सकोगे। चिल्लाओ…इस बार मैं तुम्हारी नाक की हड्डी तोड़ दूंगा।”

अजनबी बिल्कुल जड़ होकर रह गया।

गाड़ी कुछ देर बाद नहर के किनारे ठीक उस जगह रुक गई, जहां प्रेमप्रताप ने चेतन को गोली मारी थी। अमर ने नीचे उतरकर अजनबी की गर्दन पकड़कर नीचे खींच लिया।

प्रेमप्रताप भी उतर गया। अमर ने प्रेमप्रताप से कहा‒“एक पत्थर लाओ। पहले इसके घुटने तोड़ दिये जाएं।”

अजनबी ने गिड़गिड़ाकर कहा‒“नहीं, भगवान के लिए नहीं। मेरे ऊपर दया करो।”

अमर ने उसकी गर्दन पकड़कर झटका दिया और बोला‒“वे लोग कौन थे, जो तेरे पीछे दौड़ रहे थे ?”

“व…व…वे लोग…एक…एक लड़की को छेड़ने का आरोप…।”

अमर ने उसका दायां हाथ पकड़कर एक झटका दिया। ‘चटाक’ की आवाज के साथ एक हड्डी टूट गई। अजनबी भैंसे की तरह डकराया।

अमर ने वैसे ही निर्मम स्वर में गुर्राकर कहा‒“प्रेम पत्थर लाओ।”

अजनबी नीचे धम्म से बैठ गया था। उसके चेहरे पर तीव्र वेदना के लक्षण थे और आंखों में आंसू।

उसने बैठी-बैठी आवाज में कहा‒“ब…ब…बता रहा हूं…मुझे मत मारो…!”

“बताओ, वे लोग कौन थे ?”

“शहर के गुण्डे !”

“ओहो, क्या उनमें नासिर भी था ?”

“नासिर के ही चेले-चपाटे थे।”

“और तुम कौन हो ?”

“मैं नासिर के ही मोहल्ले में रहता हूं।”

“क्या करते हो ?”

“जेबें काटता हूं।”

“नासिर तुम्हारे द्वारा प्रेम की कार रुकवाना चाहता था ?”

“हां…!”

“उसके गुंडे प्रेम को जान से मारने आए थे न ?”

“हां…मैं कार से टकराता…प्रेम बाबू जैसे ही उतरते…गुंडे उन पर टूट पड़ते…लाठियों…हाकियों से मार डालते और फिर गाड़ी में आग लगा देते…कुछ दुकानदारों पर आक्रमण करते…छोटा मोटा फसाद बना दिया जाता।”

“और यह षड्यंत्र चौहान साहब का था ?”

“म…म…मुझे नहीं मालूम।”

अमर ने प्रेम से कहा‒“प्रेम…पत्थर…!”

अजनबी जल्दी से बोला‒“हां, शेरवानी साहब ने नासिर को…इस काम के लिए…एक बड़ी रकम दी थी और उसमें से हम सबको भी…हिस्सा मिला था।”

“अब तुम नासिर को क्या बताओगे ?”

“ज…ज…जो…आ…आ…आप कहेंगे।”

“नासिर को तुम बताओगे कि जिस कार को उसने प्रेम प्रताप की कार समझा था। उसमें प्रेमप्रताप नहीं था, टाइगर था।”

“ट…ट…टाइगर…!”

“हां, ब्लैक टाइगर…!”

“क…क…कौन ब्लैक टाइगर ?”

अगले ही पल अमर ने गुर्राकर चीते के ही पंजे की तरह उसके मुंह पर पंजा मारा और बुरी तरह छटपटाने लगा, क्योंकि उसके चेहरे पर पांच नाखूनों के निशान वैसे ही बन गए थे, जैसे किसी चीते ने पंजा मारा हो और बाईं आंख की पुतली भी निकल पड़ी थी।

अमर ने हिंसक स्वर में कहा‒“अब समझे किसे कहते हैं ब्लैक-टाइगर।”

“स…स…समझ गया।”

“याद रखो, अगर तुमने बता दिया कि इस गाड़ी में प्रेमप्रताप भी था तो तुम पाताल में भी छुप जाओगे तो भी मैं तुम्हें ढूंढ निकालूंगा और तुम्हारी दूसरी आंख भी फोड़ दूंगा। साथ में जुबान भी जड़ से काट दूंगा। मैं तुम जैसे लोगों को जान से मारने में विश्वास नहीं रखता हूं।”

अजनबी ने हांफते हुए बैठी-बैठी आवाज में कहा‒“म…म…मैं वही कहूंगा, जो आपने बताया है…”

“बस, अब तुम बेहोश होने वाले हो। कुछ देर बाद होश में आओगे तो शहर जाने के लिए कोई न कोई सवारी मिल जाएगी।”

अजनबी सचमुच बेहोश होकर गिर पड़ा।

प्रेमप्रताप की आंखें फैली हुई थीं। और चेहरा जाने क्यों सफेद-सा हो रहा था।

अमर ने उसकी भुजा पकड़कर कहा‒“शायद अब तुम ड्राइविंग न कर सकोगे…बैठो…”

प्रेमप्रताप हैरान-हैरान अगली सीट पर ही बैठ गया। ड्राइविंग अमर ने संभाल ली।

गाड़ी चल पड़ी तो प्रेमप्रताप ने थूक निगलकर कहा‒“स…स…सचमुच…तुमने तो मुझे मौत के मुंह से निकाल लिया।”

अमर ने गम्भीरता से कहा‒“इसलिए कि अब तुम एक पूंजीपति के एय्याश, आवारा बेटे नहीं रह गए हो।”

“त…त…तुम कौन हो ?”

“एक सिपाही‒मेरा काई दूसरा रूप नहीं है।”

“म…म…मगर इतना निर्मम और भयानक…”

“प्रेम बाबू ! युद्ध के मैदान में यही निर्ममता और हिंसा काम आती है। दुश्मन पर टूटते हुए आदमी को यह नहीं सोचना चाहिए कि दुश्मन के अस्तित्व के कौन से भाग का नुकसान पहुंच रहा है। उसके ऊपर जितना ताबड़-तोड़ हमला करोगे। उतनी ही सरलता से विजय प्राप्त कर लोगे।”

“सचमुच…तुम…तुम्हें तो कोई बहुत बड़ा अफसर होना चाहिए था।”

“हरगिज नहीं। अफसर सिर्फ कुर्सी तोड़ने के लिए होता है। लड़ाई सिर्फ सिपाही लड़ता है। बहरहाल, यह साबित हो गया कि चौहान दुश्मनी पर उतर आया है।”

“और यह उसका आखिरी हमला नहीं हो सकता।”

“हमले का जवाब हमला होना चाहिए, ईंट का जवाब पत्थर। इसी प्रकार दुश्मन के ऊपर काबू पाया जा सकता है।”

“यानी…?”

“हमें पहलेे चौहान और शेरवानी की जोड़ी तोड़नी है। उसके बाद उन दोनों का जोर तोड़ना है। यह नासिर तो शेरवानी का ही गुन्डा है।”

“बेशक, शेरवानी जरूर चौहान से मिल गया है।”

“क्या मैं इस हमले के बारे में डैडी को बता दूं ?”

“क्या तुम्हें उन पर इतना भरोसा है ?”

“क्या मतलब है ?”

“संभव है, तुम्हारे डैडी तुम्हें अपनी नीतियों की भेंट चढ़ा दें। एक बार तो तुम उन्हें परख ही चुके हो। क्या कमी रह गई थी तुम्हारे गले में फांसी का फंदा पड़ने में ?”

वह कुछ न बोला। थूक निगलकर रह गया।

Leave a comment