भीखम ने बाहर से लौटकर पूछा—‘छोटे ठाकुर कहां गए, बिटिया?’
‘सिनेमा गए हैं, काका!’
‘भला सिनेमा का तीसरा शो देखना क्या अच्छा है? व्यर्थ में नींद खराब होती है।’ भीखम ने कहा।
उसी समय किसी ने दरवाजा खटखटाया।
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‘मालूम होता है छोटे ठाकुर आ गए, मगर अभी तो शायद खेल भी खतम न हुआ होगा। देखो, कौन है?’ भीखम चारपाई पर बैठ गया। घटा लालटेन लेकर दरवाजा खोलने चली।
दरवाजा खुला। घटा की सूरत देखते ही आगन्तुक चौंक पड़ा बोला—‘तुम यहां?’
‘इतनी देर में ही तुम्हें क्या हो गया, छोटे ठाकुर…?’ घटा मुस्कराकर बोली और आगन्तुक का हाथ पकड़कर भीतर ले आई।
‘मुझे कुछ नहीं हुआ?’ आगन्तुक गम्भीरतापूर्वक बोला—‘मगर तुम अब तक मुझे छोटे ठाकुर ही क्या कहती हो, अब तो मैं छोटे ठाकुर रहा नहीं। जबरदस्ती पकड़कर मुझे छोटे ठाकुर बना दिया गया था। मुझे पागल समझ रखा था उन लोगों ने।’
‘आपकी तबियत आज कुछ खराब है, पहले भी आप इसी तरह कभी-कभी उल्टी-सीधी बातें करने लगते थे…!’ घटा बोली।
‘अब मेरा दिमाग एकदम ठीक है। बताया न कि बड़े ठाकुर की दृष्टि में मैं पागल था, इसलिए वैदराज की दवा होती रही। अब बिल्कुल ठीक हूं।’ आगन्तुक बोला। वह राज था, जिसे घटा आलोक समझ रही थी। वह कहता गया—‘आज मेरे एक दोस्त शहर में मिल गए और उन्होंने कहां कि शाम को मेरे घर आना! इसी घर का उन्होंने पता बताया था, मुझे आने में देर हो गईं, शाम को न आ सका, लेकिन मुझे यह विश्वास न था कि तुम्हें मैं यहां देखूंगा, अब तो तुम एकदम…एकदम बदल गईं हो!’
‘काका!’ घटा ने चीखकर भीखम को पुकारा।
भीखम सरसराता ऊपर से नीचे आ गया।
‘यह देखो…इन्हें क्या हो गया है, काका! एकदम पागलों की बातें कर रहे हैं’ घटा पीछे हटकर खड़ी हो गईं।
तभी परिचित स्वर गूंज उठा।
‘हैलो राज!’
आवाज पहचानकर राज घूम पड़ा।दोनों दोस्त एक-दूसरे के गले से लग गए। राज बोला—‘शाम को आने के लिए कहां था, परंतु कुछ कारणवश नहीं आ सका, माफ करना। मुझे आशा न थी कि…।’ कहते-कहते राज रुक गया। घटा के विषय में कोई बात कहने जा रहा था। रुककर उसने सोचा। अब घबराहट का कारण और उसे पागल समझने की बात उसकी समझ में आ गईं। वह समझ गया कि घटा आलोक को चाहती है, बहुत पहले से चाहती रही और आलोक के ही धोखे में कभी-कभी उससे भी प्रेमालाप करती रही…! अभागी छोकरी….! अभागा राज!
घटा और भीखम चुपचाप आश्चर्यचकित खड़े थे। अन्त में आलोक ने परिस्थितियां साफ कर दीं—‘यह मेरा दोस्त राज नारायण है। हमारी और इनकी सूरतें एक सी हैं…है न घटा?’
‘ओह…!’ घटा ने अपना सिर पकड़ लिया। अन्दर जाकर चारपाई पर गिर पड़ीं। उसके नेत्रों के सामने से अंधकार छिन्न-भिन्न हो गया। कभी-कभी उसे छोटे ठाकुर की बातें दो प्रकार की क्यों मालूम देती थीं। इसका कारण उसकी समझ में आ गया। उफ्! वह एक रूप के दो व्यक्तियों से प्रेम करती आ रही थी, फिर भी वह अभी तक यह निर्णय न कर सकी थी कि उसने पहले-पहल किसे देखा था—आलोक को या राज को!
रात को राज वहीं रह गया। घटा सो चुकी थी और भीखम रात को दवाखाने में सोने चला गया था।
एकांत पाकर आलोक राज से बोला—‘दोस्त, मैंने तुम्हें एक जरूरी काम से यहां बुलाया था।’
‘कैसा काम?’ अन्यमनस्क भाव से पूछा राज ने। इस समय उसके हृदय पर जो बीत रही थी, यह वहीं जानता था।
‘मैं घटा को प्यार करता हूं!’ सुनकर कांप उठा राज। उसका अनुमान सत्य निकला।
‘वह भी मुझे चाहती है, अतः मेरी राय है कि तुम भीखम चौधरी से हम दोनों की शादी की बातचीत चलाओ। मुझे तो बड़ी शरम लगती है, अन्यथा मैं ही उनसे कहता।’
‘अवश्य बातचीत करूंगा…।’ हृदय को पत्थर बनाकर बोला राज। उसे लगा जैसे उसकी आत्मा उसके शरीर से उड़ चली हो, जैसे उसके बदन का सारा खून सूख गया हो, जैसे उसकी सारी संचित आशाओं पर क्षणमात्र में वज्रपात हो गया हो!
प्रातःकाल ही आलोक और भीखम दवाखाने चले गए। ऊपर केवल घटा और राज रह गए थे।
‘उठिए, काफी दिन चढ़ आया है!’ घटा ने दबी जबान से उसे पुकारा।
राज चुपचाप उठ बैठा। उसका मुख अत्यधिक गंभीर था। घटा भी कम गम्भीर नहीं थी। राज ने नित्यक्रिया से छुट्टी पाकर स्नान किया। घटा उसके लिए नाश्ता ले आई। राज नाश्ता करने लगा।
‘बड़ी गलती हुई है मुझसे…।’ सकुचाते हुए घटा बोली।
‘मुझसे भी…मुझे पहले ही सब कुछ समझ लेना चाहिए था क्योंकि मैं जानता था कि आलोक की शक्ल मुझसे मिलती-जुलती है, पर तुम इस बात से अनभिज्ञ थीं। इसमें तुमसे अधिक मैं अपराधी हूं।’
‘एक बात पूछूं?’ घटा का स्वर कम्पित था!
‘पूछो।’
‘तालाब में जिसकी टोपी गिर गईं थी, वहीं आप थे या छोटे ठाकुर?’
‘मैं…मैं था वह!’
‘ओह!’ हथेली में मुंह छिपा लिया घटा ने—‘वस्तुतः आप ही वह पहले व्यक्ति हैं, जिस पर मैं मुग्ध हुई थी। आप ही ने मेरे हृदय में तूफान की सृष्टि कर दी थी। अब भी मेरा प्रेम आप पर है, परंतु अब विवश हो गईं हूं। लुट चुकी हूं आलोक के हाथों।’
‘बहुत खुश हूं मैं तुम्हारे स्पष्ट कथन पर। मेरे हृदय में भी तुम्हारे लिए अगाध प्रेम है। रात-रात भर मैंने तुम्हारे स्वप्न देखे है और कुछ देर के लिए अपनी बेबसी की जिंदगी को भूल गया हूं, मगर अब? अब क्या हो सकता है? छोटे ठाकुर तुम्हें बहुत चाहते है और मैं भी उसे उतना ही चाहता हूं, जितना तुम मुझे।’
‘मेरे बगैर शायद वे जीवित भी न रह सके।।’ घटा ने अपनी शंका प्रकट की।
‘जानता हूं, सब कुछ जान गया हूं। मुझे आलोक की जान तुमसे कम प्यारी नहीं है। मित्र ने मेरे लिए अपना घर-बार छोड़ा, उसके लिए क्या मैं अपने प्रेम का बलिदान भी नहीं कर सकता?’
राज ने एक ठंडी सांस ली और भरे हुए हृदय से घटा को अपनी तथा आलोक की अब तक की कहानी सुना डाली।
‘मुझे क्षमा कर सकेंगे आप?’ घटा बोली।
‘जहां तक प्रेयसी का प्रश्न है, मैं क्षमा नहीं कर सकता…।’
राज ने कहा—‘हां! आलोक की पत्नी के रूप में तुम्हें क्षमा कर सकता हूं।’
‘आप बड़े सहृदय हैं।’
‘अच्छा अब चल रहा हूं, तुम्हारे पिता से तुम दोनों के विवाह की बातचीत करने! इसीलिए मुझे आलोक ने बुलाया भी था।’
कहकर उठ खड़ा हुआ राज। जाते-जाते कहता गया—‘शायद अब तुमसे कभी भेंट न हो। स्वप्न समझ लेना इसे, जैसे हम तुम कभी मिले ही नहीं थे, जैसे यह एक करुणाजनक अधूरी कहानी थी, जो यहीं आकर समाप्त हो गईं।’ कहते हुए चला गया राज, खट-खट सीढ़ियां उतर गया।
नीचे ही दवाखाना था। राज ने भीखम को अलग बुलाकर कहा—‘देखो काका! घटा की शादी अब कर देना ही उचित होगा।’

‘शादी तो हो चुकी है भैया! परंतु बेचारी के भाग की बात है, यह विधवा हो गईं।’ भीखम करुण स्वर में बोला।
‘बीती बात को भूल जाओ, वर्तमान पर दृष्टिपात करो! अब उसकी शादी तुम करना चाहते हो या नहीं?’ पूछा राज ने।
‘क्यों नहीं भैया? चाहता तो हूं, पर कोई मिले भी तो।’
‘मैं यदि अच्छा वर खोज दूं तो तुम्हें पसंद आएगा?’
‘आएगा, भैया! जरूर आएगा।’
‘तो तुम घटा की शादी छोटे ठाकुर से कर दो।’
‘छोटे ठाकुर से?’ भीखम जैसे आसमान से गिरा—‘यह कैसे हो सकता है, भैया! वे ठाकुर हैं, हम काछी।’
‘जात-पात के झगड़े को छोड़ो, दुनिया किधर जा रही हे, वह देखो! दकियानूसी समाज की दृढ़ दीवार को हम युवक ही धराशायी कर सकते हैं। यदि हमने साहस नहीं किया तो यह समाज सड़-गल जाएगा—‘विजातियों की संध्या में वृद्धि होगी और हिन्दू-धर्म ह्रास की ओर अग्रसर होता जायेगा।’
‘छोटे ठाकुर राजी हो तो?’
‘वे राजी हैं!’
गदगद स्वर में बोला भीखम—‘तो, मुझे क्या आपत्ति हो सकती है भैया?’
खुशी-खुशी राज आलोक के पास आया, बोला—‘लो, तुम्हारा काम कर दिया। शीघ्रातिशीघ्र विवाह की तैयारी करो! मैं जा रहा हूं, शायद शादी में न आ सकूं।’ आवाज भर्रा उठी थी राज की।
‘तुम नहीं आओगे तो शादी का इन्तजाम कौन करेगा?’
‘सारा शहर, शहर की सारी जनता, जो तुम्हारे एहसानों से दबी हुई है, वह करेगी। मेरा रहना ठीक नहीं होगा। सम्भव है पहचान लिया जाऊं और सींकचों के अंदर बंद कर दिया जाऊं। अतः मुझे रोकने की जिद्द न करो। मेरी शुभकामना तुम दोनों के साथ रहेगी।’ कहकर उसने आंखें फेर लीं। शायद उसकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।

जोगीबीर की दरी पर ही तो रहोगे न।’ पूछा आलोक ने।
‘नहीं, अब कुछ ठोस कार्य करूंगा, चोरों की तरह छिपकर नहीं रहूंगा…।’ कहकर राज तेजी से चला गया।
