अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

दूसरे दिन प्रातःकाल विचित्र रोगी के रूप में राज ने वैदराज के घर में प्रवेश किया।

‘कई दिनों के बाद दिखाई पड़े, राज! कहां थे?’ वैदराज ने पूछा।

‘शहर चला गया था, आलोक से अकस्मात् मुलाकात हो गईं थी।

‘छोटे ठाकुर मिले थे—?’

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‘हो।’

‘कैसे हैं वे?’

‘अब तो दवाखाना खोल लिया है। भीखम और घटा भी वहीं हैं।’

‘अच्छा।’

‘शहर भर में उसका नाम प्रख्यात हो गया है। पैसा पानी की तरह बरस रहा है उसके चरणों में…और इसी महीने में उसकी शादी घटा से होने वाली है।’

‘शादी?’ चौंक पड़े वैदराज!

‘हां मामा, वे दोनों अंतर्जातीय विवाह करेंगे, मेरे विचार से प्रेम प्रधानता है और सामाजिक रूढ़ियां गौण…!

‘बड़े ठाकुर की उन्हें कोई चिंता नहीं?’

‘बड़े ठाकुर से उनका सम्बंध ही क्या है?’ राज बोला—‘सम्बन्ध, स्नेह और घनिष्ठता का द्योतक है, इन दोनों का अभाव है ठाकुर में।’

‘तुम्हारे विचार से मैं सहमत हूं, परंतु ठाकुर तक यह समाचार पहुंचाना ही चाहिए…!’ वैदराज बोले—‘तुम जाओ, मैं भी जरा हवेली की ओर जा रहा हूं। यह निर्दयी जमींदार अगर किसी से पस्त होगा तो अपने बेटे से।’

राज चला गया।

वैदराज हवेली की ओर बढ़े।

बैठक में बैठे थे ठाकुर! चेहरा अत्यंत गंभीर एवं उदास था।

वैदराज ने मुस्कराते हुए भीतर प्रवेश किया।

‘जुहार, बड़े ठाकुर!’

‘जुहार वैदराज!’ बड़े ठाकुर ने सिर नीचा किए हुए ही अभिवादन स्वीकार किया।

‘एक खुशखबरी लाया हूं ठाकुर!’

‘खुशखबरी…! कोई दिल जलाने वाली खुशखबरी होगी तुम्हारी—है न?’ बड़े ठाकुर बोले।

‘जी, गलत ख्याल नहीं है। आपके छोटे ठाकुर ने दवाखाना खोला है। भीखम और घटा भी उनके साथ हैं। इसी महीने में घटा और छोटे ठाकुर की शादी होने वाली है।’

‘शादी?’ चौंक उठे ठाकुर! दूसरे ही क्षण गरज कर बोले—‘घटा और आलोक की शादी! क्या कह रहे हो, तुम वैदराज?’

‘एकदम सच कह रहा हूं, बड़े ठाकुर!’

‘वैदराज! वह चमार का बेटा मुझे तबाह करने पर तुला है क्या? मालूम होता है, मेरी सारी इज्जत-आबरू लुटाकर ही दम लेगा वह!’ ठाकुर गरजे—‘मैं मर जांऊगा, उसे भी मार डालूंगा मगर यह शादी न होने दूंगा।’

‘जब तुम उसे अब तक पराया समझते रहे हो, ठाकुर!, फिर तुम्हारा हक ही क्या है उस पर?’

‘पराया तो है ही वह वैदराज! अपना कैसे हो सकता है, आखिर वह एक चमार का बेटा ही तो है।’

‘चमार का बेटा—?’ वैदराज के मुख पर घृणा की कई रेखाएं उभर आयीं। आंखों के लाल डोरे क्रोध की भयंकरता को प्रकट करने लगे, फिर भी नम्र बनकर बोले—‘वह चमार का बेटा नहीं है ठाकुर!’

‘क्या कहते हो तुम?’ ठाकुर ने दांत पीस।

‘ठीक कहता हूं! वह ठाकुर का बेटा है—और वह ठाकुर तुम हो! तुम्हारा ही बेटा है, दूसरे का नहीं।’

‘जुबान बंद करो, वैदराज!’ पुनः गरज पड़े ठाकुर!

‘यह कैसे बंद हो सकती है ठाकुर, जबकि सत्य, सत्य है। आलोक चमारिन के पेट से पैदा हुआ तुम्हारा बेटा है, तुम्हारा रक्त उसके शरीर के रक्त में मिला है।’

‘वैदराज मुंह संभालकर बातें करो।’

‘नहीं तो लठैतों को बुला लेंगे आप…? है न! मगर इतनी हिम्मत आप में कहां…? जो आपके कितने ही भेद अपने पेट में छिपाए हुए है, उसे अपमानित करने के लिए बित्ते भर का कलेजा चाहिए ठाकुर?’

‘तुम शैतान हो वैदराज!’ ठाकुर हताश वाणी में बोले।

‘शैतान तुम जैसे होते हैं, ठाकुर—!’ वैदराज अत्यंत उत्तेजित हो उठे—‘तुमने मेरे साथ बहुत अन्याय किया है, उसे मैं भूल नहीं सकता हूं। जिस समय हम लोग निस्सहाय पानी में भीगते हुए तुम्हारे पास आश्रय मांगने आए थे, तुमने हमें कुत्ते की तरह दुत्कार दिया था। मेरे बेटे की जान भीगने से ही चली गईं। वह आग मेरे सीने में अब तक सुलग रही है। जब तक तुम्हें तड़पता हुआ न देख लूंगा , यह आग ठण्डी नहीं होगी—समझे ठाकुर!’ सुनकर ठाकुर अत्यंत उद्विग्न हो उठे।

‘मरते समय लाखन चमार की स्त्री ने शैतान का नाम बताया था, जिसने उसकी जवानी का जबरदस्ती उपभोग किया था। नाम सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। आज तक उस बात को पेट के बाहर नहीं किया। लाखन भी आजन्म चुप रहा। तुमसे ज्यादा इन्सानियत तो उस नीच समझे जाने वाले लाखन में थी…।’ वैदराज आज सब कुछ उगल देना चाहते थे।

ठाकुर को बहुत दिन पहले की घटना याद आ गईं।

बीस वर्ष पहले की बात है—

शाम हो चली थी। पानी मूसलाधार बरस रहा था। अरहर के खेत की मेड पर से एक हट्टा-कट्टा युवक चला आ रहा था। चारों और निर्जनता थी! एक युवती पानी में भीगती हुई मेड पर घास का गट्ठर बांध रही थी। युवक ने युवती को देखा। बड़ी देर तक देखता रहा। युवती उठकर खड़ी हो गईं। बोझ भारी था। युवक को आते देखकर वह बोली—‘ठाकुर! जरा मेरा गट्ठर उठा दो न सरकार!’

युवक और नजदीक आ गया। भीगे हुए कपड़े युवती के अंग-प्रत्यंग से इस तरह सटे हुए थे कि उनका मादक यौवन पूर्णरूप से झलकने लगा था। जिसे देखकर युवक के शरीर में रोमांच हो आया। उसके मन में वासना जाग्रत हुई और उसने आगे बढ़कर उस युवती को अपनी गोद में उठा लिया और अरहर के खेत में घुस गया।

युवती चीख उठी। अरहर के खेत में से बड़ी देर तक उसकी चिल्लाहट आती रही, मगर उस निर्जन स्थान में उसकी चिल्लाहट कौन सुनने बैठा था? आधा घंटे बाद युवती अस्त-व्यस्त होकर बाहर आई। युवक भी निकला। वह बोला—‘किसी से कुछ कहां तो बोटी-बोटी काट डालूंगा।’

युवक थे स्वयं ठाकुर दीप नारायण सिंह और युवती थी लाखन चमार की स्त्री।

जवानी के दिनों की इस घटना को स्मरण कर ठाकुर का रोम-रोम कांप उठा। उन्होंने निःश्वास ली। तो वह आलोक उन्हीं का पुत्र है?

‘अपने उस बेटे की याद है तुम्हें, ठाकुर?’

ठाकुर ने निश्चेष्ट भंगिमा से वैदराज की ओर देखा।

वैदराज के मुख पर निष्ठुरता नर्तन कर रही थी।

‘जो ठकुराइन के गर्भ से पैदा हुआ था और पैदा होते ही मृत घोषित कर दिया गया था और उसकी जगह पर आलोक को रख कर ठकुराइन की जान बचाई गईं थी, वह बात याद है तुम्हें?’

‘याद है, उस मृतक के बारे में…! क्या कहना चाहते हो आखिर तुम वैदराज?’

‘कुछ नहीं, सिर्फ यह देखना चाहता था कि तुम उस शिशु को भूले तो नहीं हो, अब तो वह बीस साल का नौजवान हो चुका है।’

‘क्या कहा?’ आवेश में उठकर खड़े हो गए ठाकुर—क्या मतलब है तुम्हारा वैदराज?’

‘बैठ जाओ ठाकुर!’ क्रूरतापूर्वक हंसी हंस पड़े वैदराज—‘इतने बेताब न हो ठाकुर! तुम्हारा वह लड़का मरा नहीं, अब तक जिंदा है! मेरी दवा से वह उस समय कुछ देर तक के लिए मुरदा-सा जरूर हों गया था, मगर वह पुनः जीवित हो उठा मेरी हिकमत से। मैंने लालन-पालन के निमित्त उसे शहर में अपने एक रिश्तेदार के यहां छोड़ दिया था। तुमने जो कुछ मेरे प्रति, गरीबों के प्रति अन्याय किया है, उसका उचित बदला मैंने ले लिया है, ठाकुर!’

‘वह कहां है, वैदराज…? कहां है वह…? कहां है मेरा बेटा!’ ठाकुर ने दीन व्यक्ति की तरह गिड़गिड़ाकर पूछा—‘मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूं।’ ठाकुर लपक कर वैदराज के पैरों पर गिर पड़े।

‘उठो ठाकुर!’ वैदराज निष्ठुर वाणी में बोले—‘तुम उसे अभी नहीं पा सकते। पाओगे उस दिन, जिस दिन उसे लौटा लाना तुम्हारे लिए असम्भव हो जाएगा, तभी मेरा बदला उन गरीब किसानों का बदला चुकेगा, जिनके प्रति तुम राक्षस-सा व्यवहार करते आ रहे हो।’ कहकर वैदराज ने हृदयबेधी अट्टहास किया और बाहर चले गए।

ठाकुर धम्म से गद्दी पर जा बैठे। आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। जीवन में पहली बार उन्होंने मात खाई थी। अब शक्ति रहते हुए भी। वे वैदराज का कुछ भी अहित करने में अपने को असमर्थ अनुभव कर रहे थे।

‘सरकार!’

ठाकुर ने सिर उठाया, देखा एक लठैत खड़ा था, घबराया हुआ।

‘क्या है बिहारी?’

‘सरकार गजब हो गया, हाथी पागल हो गया है। हाथीवान को उसने अपने पैरों के नीचे रखकर पीस दिया है। इधर-उधर चिंघाड़ता हुआ भाग रहा है। खेत-खलिहान उजाड़कर वीरान कर रहा है।’

‘घबराओ नहीं—!’ उठ खड़े हुए ठाकुर—‘मेरी लाठी में बल्लम लगाकर अभी लाओ। जरा भी देर न हो।’

लठैत अन्दर गया! दो मिनट में एक लम्बी लाठी, जिसमें एक लम्बा भाला लगा हुआ था, लेकर आ पहुंचा। ठाकुर ने लाठी दाहिने हाथ में पकड़ ली।

ठकुराइन दौड़ी हुई आईं और बोली—‘कहां जा रहे हो तुम?’

‘हाथी पागल हो गया है। बिना मेरे गए रास्ते पर नहीं आयेगा ससुरा।’ बोले ठाकुर!

‘आज उस पर खून सवार है, ठाकुर! महावत को चीर डाला है, तुम न जाओ, तुम्हें मेरी कसम है!’

‘जाना ही पड़ेगा, नहीं तो प्रजा का सब कुछ बरबाद हो जाएगा।’ ठाकुर गंभीर स्वर में बोले।

‘प्रजा के सुख-दुख का ख्याल आज पहले-पहल तुम्हारे दिमाग में आया है?’ ठकुराइन ने आश्चर्ययुक्त स्वर में व्यंग्य किया।

उन्होंने व्यंग्य पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने ठकुराइन की ओर देखा, मुस्कराए और आगे बढ़ चले। लठैत एवं सैकड़ों अन्य लोग भी ठाकुर के पीछे दौड़े चले जा रहे थे। ठाकुर सबके आगे थे।

कुछ दूर जाने पर हाथी की भयानक चिंघाड़ सुनाई पड़ने लगी। मालूम हुआ कि हाथी जोगीबीर की दरी के पास कहीं पर है। ठाकुर उधर ही दौड़ चले।

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