अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

वैदराज भंग के बहुत शौकीन थे। दोनों समय उनकी छनती थी। अभी-अभी भंग छानकर तैयार ही हुए थे कि दरवाजे पर कोलाहल सुनाई पड़ा। लपक कर बाहर आए तो देखा कि छोटे ठाकुर तथा कारिन्दा आदि उपस्थित हैं। जुहार करके उन्हें गद्दी पर सम्मानपूर्वक बैठाया।

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‘कैसे हो छोटे राजा?’ वैदराज ने पूछा।

‘अच्छा रहा वैदराज मामा?’ छोटे ठाकुर ने कहा।

वैदराज को प्रायः लोग मामा ही कहकर पुकारते थे।

‘अब क्या करने का इरादा है?’

‘क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता।’ छोटे ठाकुर बोले—‘यहीं जमींदारी का काम सम्भालने की कोशिश करूंगा।’

‘जरूर कोशिश करो, छोटे ठाकुर! आजकल किसानों के पास पैसा बहुत कम रह गया है। इस साल बरखा भी इतनी कम हुई है कि खेत के सभी पौधे सड़ गए।’ वैदराज मुंहफट थे। उनका यह स्पष्टीकरण सुन छोटे ठाकुर मुस्करा पड़े।

छोटे ठाकुर ने लठैतों और कारिन्दा को किसी काम से अन्यत्र भेज दिया।

‘बड़े ठाकुर के ही मार्ग पर तुम भी चलोगे, छोटे राजा…?’ वैदराज धीरे से बोले—‘इतना पढ़-लिखकर भी गरीबों की दशा से अनभिज्ञ ही हो तुम?’

‘आप इत्मीनान रखें, वैदराज मामा! अपनी जमींदारी में मैं आशातीत परिवर्तन करूंगा?’

‘हैलो—आलोक।’ पीछे से आवाज आई।

छोटे ठाकुर ने घूमकर देखा। पीछे मुस्कराता हुआ एक खद्दर धारी युवक खड़ा था।

वैदराज ने उस युवक की ओर घूमकर देखा।

‘हैलो राज—।’ छोटे ठाकुर बोले—‘तुम यहां कैसे?’

वैदराज यह नहीं चाहते थे कि छोटे ठाकुर का और राज का सामना हो, क्योंकि दोनों एक ही कालेज में पढ़ने के कारण एक दूसरे से परिचित थे।

वैदराज ने आश्चर्य-मिश्रित क्रोध से राज की ओर देखा।

‘कोई हर्ज नहीं, मामा—।’ राज बोला—‘यह मेरे अंतरंग मित्र हैं। इनसे मेरा कोई गुप्त भेद छिपा नहीं है। शायद आप नहीं जानते होंगे कि जिस समय मैं डकैती के अभियोग में गिरफ्तार हुआ था, उस समय इन्होंने पानी की तरह रुपए बहाकर मुझे छुड़ाना चाहा था, परंतु हुआ वहीं, जो होना था।’

वैदराज ने कृतज्ञता पूर्ण दृष्टि से छोटे ठाकुर की ओर देखा।

‘आओ, इधर बातें करें।’ कहकर राज छोटे ठाकुर को एक कोने में ले गया।

एक क्षण के लिए वैदराज कांप उठे, न जाने क्यों! परंतु शीघ्र ही उन्होंने अपनी भंगिमा ठीक कर ली और अंदर आकर अपनी स्त्री और बेटी से बातें करने लगे।

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम जमींदार के बेटे हो आलोक।’ राज ने कहा।

‘अब तो जान गए न—।’ डाकू कहीं के! मेरे घर पर भी डाका डालने का इरादा है क्या?’ कहकर आलोक हंसने लगा।

‘डाकू कहते हो मुझे—?’ राज मुस्कराकर बोला—‘वह डाका तो तुमने डाला था, उस्ताद! मगर पकड़ा गया मैं और तुम्हारी लाख कोशिश करने पर भी आखिर आजन्म कैद की सजा हो गईं मुझे। आज जेलखाने से भागकर इस पहाड़ी गांव की हवा खा रहा हूं, वह भी तुम्हारी ही बदौलत। यदि तुम रुपए खर्च कर मेरे भागने का प्रबंध न कर देते तो मैं जेल में ही सड़ता रहता।’

‘तुम निकल आए, मुझे बड़ी खुशी हुई, मगर पुलिस से बचकर रहना अत्यंत आवश्यक है।’

‘क्या बताऊं बहुत ही दुविधा में पड़ा हूं—!’ राज बोला—‘मामा को मेरा यहां रहना पसंद नहीं। कल वे पिताजी के साथ देर तक रात में बातें करते रहे और अंत में यही निश्चय हुआ कि मैं शहर में ही जाकर रहूं और अपने को जिस प्रकार सम्भव हो, छिपाये रखूं, मगर शहर में अपने को छिपाना कितना कठिन है, यह तो तुम जानते ही हो’

‘कुछ दिनों तक तो तुम ‘जोगीबीर की दरी’ के पास चलकर रहो, फिर देखा जाएगा।’ आलोक ने सुझाव दिया।

जोगीबीर की दरी, एक प्रशस्त एवं बहुत ऊंचा जल-प्रपात है, जो दाढ़ीराम गांव से दो मील दक्षिण की ओर बीहड़ वनस्थली के मध्य में है। पानी बहुत ऊंचाई से गिरता है। पर्वत की दीवार में, जहां से प्रपात की तीव्र धारा दिन-रात गिरा करती है, वहां एक गुप्त एवं प्राचीन गुफा है। प्राप्त की स्वच्छ धाराओं से यह गुफा सदैव प्रच्छन्न रहती है। बहुत कम लोग इसके विषय में जानते हैं। वहां के निवासियों का कहना है कि यह गुफा पर्वत में बहुत दूर तक न जाने कहां तक चली गईं है। जितने लोग उसके अंदर गए, पुनः बाहर लौटकर नहीं आए।

‘जैसा तुम कहोगे, वैसा ही करूंगा।’ राज ने कहा।

उसी समय लठैत तथा कारिन्दा आ पहुंचे, राज उन्हें आते देखकर अंदर चला गया और वे लोग घर लौट पड़े।

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