चबूतरे पर खड़े बड़े ठाकुर दातुन कर रहे थे। सामने से वैदराज को लपकते हुए आता देख चौंक पड़े।
‘बात क्या है वैदराज?’
‘गजब…गजब हो गया ठाकुर…नैनी सैन्ट्रल जेल, बम के धमाकों से तहस-नहस हो गया और….और आपका राज….जेल से निकल भागा….।’
अपना पराया नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
सुनकर बड़े ठाकुर के पैर कांपने लगे और वे लड़खड़ा से गए, हाथ का दांतुन चबूतरे पर गिर पड़ा—‘कहते क्या हो वैदराज…मेरा राज…।’
‘जी हां, आपका राज, नहीं तो क्या मेरा राज…।’ कहकर वैदराज ने एक मुड़ा-तुड़ा अखबार खोलकर उनके सामने कर दिया—‘घबरा क्यों रहे हो ठाकुर राजा…तुम्हारे उस नर-शार्दूल बेटे राज के नाम से देश की हवा तक सनक-सी गयी है…समझे कि नहीं? अंग्रेजी राज का तख्ता हिल उठा है…देख रहे हो न? राज का कितना बड़ा फोटो छपा है। अखबार के पहले पन्ने पर…सरकार ने उसकी जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तारी पर पचास हजार का इनाम…अरे, अरे! यह…यह तुम्हें क्या हो गया ठाकुर…।’ वैदराज ने लपककर बड़े ठाकुर को अपनी बांहों में सम्भाल न लिया होता तो वे चबूतरे के नीचे गिर पड़े होते।
‘तुम…तुम शैतान से कम नहीं हो वैदराज…।’ बड़े ठाकुर ने करुण स्वर में कहा—‘मुझ अभागे को इस तरह तड़पाने में आखिर तुम्हें क्या मिल जाता है…..?’
‘यह तुम खूब जानते हो ठाकुर….।’
‘हूं…अब…अब क्या होगा?’
वैदराज के जबड़े भिंच गये—‘अंग्रेजी सत्ता इस चुनौती का मुकाबला, हजारों निरपराधों पर जुल्म ढाकर करेगी!’ उनका स्वर गंभीर था।
‘किस पर जुल्म हो रहा है वैदराज मामा!’ पीछे से आलोक की आवाज आई—‘कम से कम सवेरे-सवेरे तो जुल्मों-सितम से परहेज किया करो…।’ कहता हुआ वह चबूतरे की सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आ गया। हाथ में उसके सूटकेस था। लगता था, जैसे कहीं बाहर से चला आ रहा हो।
‘तुम…तुम कहीं बाहर गए थे क्या छोटे ठाकुर?’ पूछा वैदराज ने।
‘बाहर ही से तो चला आ रहा हूं….क्या पिताजी की तबीयत, फिर खराब हो गईं थी…।?’
‘नहीं, मैं ठीक हूं।’ ठाकुर बोले—‘बाहर से आये हो थके-थकाये, जाकर मुंह-हाथ धोकर विश्राम करो…।’
लेकिन आलोक ने जैसे उनकी बात सुनी ही नहीं—‘वैदराज मामा, मैं तो राज की जमानत के लिए जमीन-आसमान एक कर रहा था और वह…अरे, यह अखबार…तो आप लोगों को सब कुछ मालूम हो ही गया है—।’
‘तुम्हारा यह विप्लवी मित्र, इस समय कहां होगा, बतला सकते हो आलोक?’ पूछा बड़े ठाकुर ने।
बड़े ठाकुर के इस प्रश्न से आलोक और वैदराज दोनों ही चौंक पड़े।
‘मैं…मैं कैसे जान सकता हूं पिताजी…?’
‘तुम….तुम उसकी जमानत के इंतजाम में लगे थे न? यह जानते हुए भी कि उस जैसे विप्लवी अपराधी की जमानत असंभव है…वैदराज, इस लड़के से कह दो कि मुझ अभागे पर दया करे, मेरा कलेजा छलनी हो चुका है। अब और बर्दाश्त नहीं होता…सच कहता हूं वैदराज….।’
‘पिताजी…मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया—।’ आलोक बोला—‘राज मेरा दोस्त है। उसके लिए कुछ करता हूं तो अपना फर्ज समझकर। उससे आपको दुख होता है, चोट लगती है तो विश्वास करें, भविष्य में कभी उसका नाम भी जुबान पर न लाऊंगा—।’ कहता हुआ वह तेजी से हवेली के भीतर चला गया।
‘ठाकुर!’
‘कहो वैदराज…..।’
‘तुम्हारे दोनों लड़के आफत के परकाले निकले। एक ने तुम्हारी मूछों का तर्पण अपने क्रांतिकारी विवाह से किया तो दूसरे ने…।’
‘चुप भी रहो वैदराज!’ बड़े ठाकुर ने इतने करुण भाव से उनकी ओर निहारा कि वे सिहर उठे। एक छटपटाती रही सी सांस लेकर बड़े ठाकुर कहते रहे—‘तकदीर ने मुझे अब तोड़कर रख दिया है वैदराज, तुम खूब जानते हो।’
‘क्या?’
‘यह सब मेरे कर्मों का फल है।’
‘हूं।’
‘तुम्हारा बदला क्या अब भी बाकी है?’
‘कैसा बदला?’
‘मैंने तुम पर जुल्म किया था न…।’
‘केवल मुझ पर ही?’
‘नहीं-नहीं…मैं तो जीवन भर अन्याय और अत्याचार ही सब पर करता रहा हूं, पर हूं तो आदमी ही न…।’
वैदराज ने धीरे से उनके कंधों पर हाथ रख दिया—‘आदमी थे नहीं, पर अब बन जरूर गए हो। यही तो मैं तुम्हें स्वीकार कराना चाहता था। तुम आदमी बन गए हो, यही मेरा बदला है, यही सारे पापों का प्रायश्चित्त है। भूत को बिसार दो ठाकुर और भविष्य से जूझने को अपने को तैयार कर लो…बस।’

‘मेरे उस अभागे…..राज का क्या होगा?’
‘राज को बेटा कहने में अब भी हिचकते हो तुम ठाकुर…? अपने और पराये की भूल-भुलैया में अपने को अब तो मत भटकाओ…आगे जो होगा, देखा जाएगा। अब मैं चलता हूं। दो-चार दिन के लिए एक जरूरी काम से शहर जा रहा हूं।’ कहकर वैदराज चबूतरे से नीचे उतर गए।
बडे ठाकुर ने अत्यंत निरीह भाव से जाते हुए वैदराज की ओर निहारा, फिर कसकर आंखें मूंद लीं। उनके हाथों में, बमकांड और राज के जेल से भागने के समाचार वाला अखबार अब भी था। अनजाने ही उन्होंने उस अखबार को अपनी छाती से लगा लिया। मुंदी आंखों की कोरों से एक के बाद एक आंसू की बूंदें लुढ़क कर, छाती से दबे अखबार पर पसरती रहीं…।
बहुत देर तक वे क्रांतिकारी ‘राज’ के छपे हुए फोटे वाले अखबार को सीने से लगाये आंसू बहाते रहे।

उसी समय बाहर से ठाकुर के लठैत सम्पत की कड़कती हुई आवाज सुनाई पड़ीं। शायद हमेशा की तरह वह किसी आसामी पर कड़क रहा था। कड़कती आवाज सुनकर ठाकुर की तन्द्रा भंग हो गईं। उन्होंने सीने से लगे अखबार को सामने कर लिया और थरथरा रहे होंठों से कह उठे—‘मेरे अभागे बेटे राज…कहां होगा तू इस समय—। हाय बेटे—यह कैसी मजबूरी है कि मैं…मैं चाहकर भी तेरे लिए कुछ नहीं कर सकता….।’
कहते हुए वे लड़खड़ाते पगों से हवेली के भीतर की ओर चले गए।
