अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

मस्तक पर परेशानी से चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए बड़े ठाकुर बोले—‘क्या कहा? कुछ वसूल नहीं हुआ? एक पाई भी नहीं?’

‘नहीं सरकार!’ कारिन्दा भयमिश्रित स्वर में बोला।

‘यह आलोक क्या घास खोदने वहां गया था?’ बड़े ठाकुर ने जोर से अपना मुक्का सामने रखी हुई सन्दूक पर दे मारा।

अपना पराया नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

कारिन्दा कांपता हुआ खड़ा था। कमरे में और कोई न था। कारिन्दा ठाकुर का क्रोध जानता था।

‘क्यों नहीं हुआ?’ क्रोध से चीख उठे ठाकुर—‘रुपया-पैसा, साग-तरकारी, कुहड़ा-लौकी, गुड़-गन्ना आदि कुछ नहीं?’

‘कुछ नहीं, बड़े सरकार!’

बड़े ठाकुर की प्रज्वलित आंखों में लाल-लाल डोरे बड़े भयावह लग रहे थे।

‘नजराना बहुत कुछ मिल रहा था, परंतु छोटे राजा ने लेना मंजूर ही नहीं किया।’ कारिन्दा बोला।

‘क्यों?’

‘उन्होंने कहां गरीबों से नजराना लेना पाप है।’

‘पाप है—।’ बड़बड़ा उठे ठाकुर—‘कल का छोकरा पुश्तैनी बात को बदल देना चाहता है। कहता है, पाप है—अब तक तो वह पाप की ही कमाई से गुलछर्रे उड़ा रहा है।’ कहकर बड़े ठाकुर सन्दूक पर रखी हुई बही इधर-उधर उलटने लगे।

‘यह क्या?’ चौंक उठे ठाकुर—‘जैकरन का कुल लगान चुकता कैसे हो गया?’

‘छोटे राजा ने उसका लगान माफ कर दिया है, सरकार!’

क्रोध से कांपकर वह उठ खड़े हुए। गले से आवाज नहीं निकल रही थी। एकाएक कोने में रखी हुई बड़ी-सी लाठी उन्होंने उठा ली। गरजकर बोले—‘छोटे ठाकुर को बुलाओ।’

कारिन्दा ठाकुर की उग्र मूर्ति देखकर कांप उठा। उस समय ठाकुर ऐसे लग रहे थे, जैसे कोई बलिष्ठ गोरा पिशाच हाथ में बन्दूक लिए किसी देशभक्त को गोली से उड़ा देने के लिए उद्यत खड़ा हो। उनके मस्तक की नसें मोटी होकर फूल गईं थीं।

कारिन्दा चुपचाप छोटे ठाकुर को बुलाने चला गया। ठाकुर इधर-उधर टहलने लगे। हाथ की लाठी उन्होंने पुनः कोने में खड़ी कर दी।

थोड़ी देर बाद जब कारिन्दा छोटे ठाकुर को साथ लेकर लौटा, तो यह देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया कि बड़े ठाकुर चुप-चाप गद्दी पर बैठे हैं। चेहरे पर क्रोध नहीं, वरन् अत्यधिक गंभीरता है। छोटे ठाकुर आकर सामने खड़े हो गए। क्रोधी पिता के पास बैठने का उनमें साहस नहीं था।

‘छोटे ठाकुर!’ पिता की गंभीर आवाज को सुनकर चुपचाप खड़े छोटे ठाकुर ने अनुमान लगा लिया कि उनके पिता की आवाज में रुष्टता नहीं, अवहेलना टपक रही है—‘जैकरन का लगान तुमने क्यों माफ कर दिया?’

छोटे ठाकुर चुप रहे।

‘क्यों माफ किया? बोलते क्यों नहीं?’

‘वह बहुत गरीब है, पिताजी!’

‘गरीब है—! गरीबों की गरीबी पर तुम्हें बहुत तरस आता है न—!’ ठाकुर की भृकुटी पुनः तन गईं—‘नजराना मिलता था, उसे क्यों लौटा दिया? जिन गरीबों पर ईश्वर भी रुष्ट है, उन पर तुम दया दिखाकर क्या भला कर सकोगे उनका, अगर आज तक मैं भी ऐसा ही करता होता तो यह बाबू गिरी तुम्हारी न रहती। गली-गली मेरे साथ तुम भी ठोकर खाते होते।’

छोटे ठाकुर चुपचाप खड़े रहे।

कारिन्दा अब तक भय से कांप रहा था।

‘यह जमींदारी मेरी है। इस जमींदारी का चप्पा-चप्पा मेरा है, तुम्हारा नहीं। यह फूली-फली जमींदारी मेरे खून से सींची गईं है, तुम्हें इसे लुटाने का कोई अधिकार नहीं? ख्याल रखना, आगे से ऐसी गलती न हो। यह न समझना कि बुड्ढा ठाकुर मर गया है। मेरे मरने पर जी चाहे, तो सारी जमींदारी खैरात कर देना, अपने तक को लुटा देना।’

छोटे ठाकुर सिर झुकाकर जाने लगे।

‘ठहरो।’ कर्कश आवाज गूंज उठी।

छोटे ठाकुर के बढ़ते पैर ठिठक गए।

आज तुम अपनी अम्मा से सौ रुपये क्यों मांग रहे थे?’

कांप उठे छोटे ठाकुर! बोले—‘एक काम से पिताजी।’

‘बहुत गुप्त काम है न? तभी तो अपने पिता से छिपाया जा रहा है? यह न समझो कि मैंने तुम्हारी अम्मा को जहां-तहां लुटा देने के लिए रुपये नहीं दे रखे हैं, जो वह तुम्हारे मांगते ही तुम्हारे हाथ पर रख देगी। तुमने उससे कहां था कि रुपये न मिलने पर तुम उसकी अंगूठी बेच दोगे?’

छोटे ठाकुर कुछ नहीं बोले। वास्तव में उन्होंने अपनी अम्मा से यह बात कही थी, क्योंकि उन्हें रुपयों की सख्त जरूरत थी। राज को रुपये देने थे, ताकि वह अपने खाने-पीने का पूरा सामान जुटाकर ‘जोगीबीर की दरी’ में जा छिपे।

‘अंगूठी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’ बड़े ठाकुर बोले—‘मेरे धन से बनी है। उसे बेचने का ख्याल भी न करना।’

छोटे ठाकुर को बड़ी आत्मग्लानि हुई। दुनिया जानती है कि वह बड़े जमींदार का बेटा है, मगर आज उसे मालूम हुआ कि वह भी उतना ही गरीब है, जितना उसकी प्रजा है। उसके पास है ही क्या? उसके बदन पर का एक-एक सूत, उसके मनीबैग का एक-एक पैसा उसके पिता का है। वह निर्धन है, निस्सहाय है।

छोटे ठाकुर का सिर भन्ना गया। शीघ्रता से वे घूम पड़े और कोठरी से बाहर जाने लगे।

‘सुनो, छोटे ठाकुर!’ बड़े ठाकुर ने उन्हें रुकने का पुनः आदेश दिया।

छोटे ठाकुर रुक गये।

‘तुम्हें कितने रुपयों की जरूरत है?’

निस्तब्ध बने रहे छोटे ठाकुर!

‘जवाब दो, छोटे ठाकुर!’

‘अब जरूरत नहीं पिताजी।’

‘क्योंकि पिता की दो बातों ने दिल पर लकीर खींच दी है, क्यों?’ कहकर ठाकुर ने सन्दूक से सौ का नोट निकालकर छोटे ठाकुर की मुट्ठी में ठूंस दिया और बोले—‘ऐसी गलती, फिर कभी न करना।’

Leave a comment