अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

आसमान पर बादल गड़गड़ा उठे। छम-छम पानी ‘बरसने’ लगा। हवा की सनसनाहट तीव्र हो उठी। चारो और जल-ही-जल उमड़ पड़ा। वैदराज अपनी गद्दी पर बैठे हुए भंग की तरंग में पानी का आनन्द ले रहे थे। बौछारों से ऊबकर दरवाजा बंद कर दिया था।

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अकस्मात खट-खट की आवाज हुई।

चौंक पड़े वैदराज! दरवाजा कोई खटखटा रहा था। कौन हो सकता है यह…? दस बजे रात को इस बरसते पानी में, कौन दरवाजा खटखटाने आया है?

पुनः वहीं खटखट की आवाज आई।

वैदराज सशंकित हो उठे। हाथ में लालटेन लेकर दरवाजे की ओर बढ़े। धीरे से सांकल हटाकर किवाड़ खोल दिए।

चौंक पड़े वह बड़े ठाकुर को आया देखकर।

‘बड़े ठाकुर आप—?’ उसके मुख से आश्चर्य-सूचक आवाज निकल पड़ीं। ठाकुर दीप नारायण सिंह को अकेले, हाथ में लाठी लिए हुए पानी से तर, दरवाजे पर खड़े देखकर।

‘अन्दर आ जाओ ठाकुर!’

ठाकुर अन्दर आ गए।

ठाकुर के अंदर आ जाने पर वैदराज ने दरवाजा बन्द कर दिया।

ठाकुर ने लाठी एक कोने में खड़ी कर दी, फिर अपने कपड़ों में से पानी निचोड़ने लगे।

‘बड़ा अचरज हो रहा है, ऐसी काली रात में आपको यहां अकेले आया देखकर। न हाथी है, न लठैत। पानी में भीगते हुए अकेले ही आधा कोस दौड़े आए हैं आप?’

ठाकुर का चेहरा मुरझाया हुआ था। बोल—‘काम बहुत जरूरी है वैदराज! आना ही पड़ा। बहुत छिपता हुआ आया हूं।’

वैदराज ने ठाकुर के भीगे हुए शरीर को देखकर उन्हें एक सूखी धोती और एक गमछा देते हुए—‘यह सूखे कपड़े पहन लो, ठाकुर! ठंड लग रही है आपको।’

ठाकुर ने चुपचाप उन्हें लेकर पहन लिया। वैदराज ने एक कम्बल दिया, जिसे उन्होंने अपने बदन पर लपेट लिया, फिर दोनों आकर गद्दी पर बैठ गए।

‘कैसे आए ठाकुर?’ वैदराज ने पूछा।

‘पहले यह बताओ कि हमारी-तुम्हारी बात सुनने वाला यहां कोई है तो नहीं?’ ठाकुर ने शंकाग्रस्त व्यक्ति की भांति इधर-उधर देखा।

‘कोई नहीं है ठाकुर! बेखटके कहो।’ वैदराज बोले।

‘मैं जानता हूं कि मेरे और तुम्हारे सिवा, उस भेद को इस दुनिया में और कोई नहीं जानता, इसलिए तुमसे सलाह लेने आया हूं।’ ठाकुर बहुत धीरे से बोले।

‘लाखन चमार में धरोहर के बारे में सलाह लेने आये हो, क्यों—? है न यही बात, ठाकुर?’

‘क्या करूं वैदराज? आलोक के व्यवहार से मैं परेशान हो गया हूं। वह छोकरा दिन-पर-दिन हाथ से बाहर हुआ जा रहा है। जब-जब उसे देखता हूं, मुझे उस कलूटे लाखन की याद आ जाती है। मेरा दिल मसोसकर रह जाता है। काश, आज मेरा कोई अपना बेटा होता तो क्या वह इसी तरह मेरे साथ व्यवहार करता?’

‘मगर दुनिया तो यही जानती है कि आलोक तुम्हारा ही बेटा है, ठाकुर! सिवा हमारे और तुम्हारे और कोई नहीं जानता कि आलोक लाखन चमार का बेटा है।’

‘उसकी सूरत चमार जैसी नहीं है, वैदराज! मैं उसकी अक्ल से परेशान हूं। कल वह जमींदारी घूमने गया था, किसी से नजराना नहीं लिया, कितनों का लगान माफ कर दिया…।’ कुछ रुककर ठाकुर पुनः बोले—‘अगर आज मेरा बेटा होता तो क्या वह आलोक की तरह नजराना न लेता, लगान माफ कर देता? नहीं वैदराज! मेरा बेटा होता तो आसामियों से एक के दो वसूल कर लाता।’

‘ठीक है, ठाकुर…!’ वैदराज के मुख पर अप्रकट घृणा परिलक्षित हो उठी—‘उस बात को बीते बीसों बरस हो गए हैं। अब उस पर दिमाग दौड़ाकर फजूल तकलीफ मत उठाओ। आलोक को पराया मत समझो। याद रखो, जिस दिन पराये की भावना प्रकाश में आई नहीं कि तुम असहनीय मानसिक यंत्रणाओं से अर्धविक्षिप्त हो जाओगे, ठाकुर!’

‘दिल नहीं मानता, वैदराज! इस बेईमान छोकरे को मैंने अपने बच्चे की तरह पाला-पोसा, खिलाया-पढ़ाया, मगर वह तो पूरा कांग्रेसी बन गया है, वैदराज अपनी अम्मा से कहता है कि जमींदारी कुछ ही दिनों में नाश होने वाली है। बेचारी ठकुराइन। उन्हें क्या मानूम कि सांप को उन्होंने अपना दूध पिला-पिलाकर पाला है, वह उनका अपना नहीं, पराया है—एक चमार का बेटा है! उफ!’ ठाकुर ने अपना माथा पकड़ लिया।

‘बीती भूल जाओ ठाकुर! आगे की देखो। रास्ता सिर्फ एक है, आलोक को अपना समझो। उसे समझा-बुझाकार रास्ते पर लाओ।’

‘बहुत परेशान हूं मैं, वैदराज…।’ ठाकुर हांफते हुए बोले—‘आज से बीस साल पहले…।’

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