तालाब पर पंचायत बैठी थी। खासी भीड़ थी। गांव में खूब सनसनी थी। ठाकुर की जमींदारी के सभी चौधरी, साहू-सहकार एवं अमीर-गरीब आमंत्रित थे। बहुत से लोग उत्सुकतावश भी आ गए।
‘ठाकुर साहब अभी तक नहीं आए।?’ पंडित रामरक्षा शास्त्री जो पूरी जमींदारी के पुरोहित एवं धर्म के ठेकेदार थे, पूछ बैठे।
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‘आते ही होंगे।’ वैदराज बोले!
अपराधी युवक ललुआ एक कोने में, अपने पिता जैकरन के साथ बैठा हुआ था। बुधनी पासिन भी खूब बनाव- शृंगार करके आई थी।
‘वह ठाकुर का हाथी आ रहा है।’ किसी ने कहा और पंचायत में सन्नाटा छा गया।
हाथी पास आ गया, उस पर से बड़े तथा छोटे ठाकुर उतरे। लोग उनके स्वागतार्थ उठ खड़े हुए। ठाकुर ने आकर पंडित रामरक्षा शास्त्री को पालागन किया और पंचायत की जुहार का जवाब देकर उचित आसन पर बैठते हुए भीखम चौधरी से बोले—‘तुम्हारे गांव में यह कैसी गड़बड़ी हो गईं, चौधरी?’
‘होनी होकर ही रहती है, बड़े सरकार! भीखम बोला।
पंचायत की कार्यवाही शुरू हुई। जिन लोगों ने ललुआ को बुधनी पासिन के घर पकड़ा था, उनके बयान हुए। सबके अंत में संकट गोंठ ने कहा—‘कल काफी रात गए, ससुर ललुआ को बुधनी पासिन के घर मा जात हम देखली। हम जानत रहे कि ससुरी बुधनी वेस्सा हौ बस हम समझ गए कि दाल में कुछ करिया है, तब हम कुलि पंचन के जुटाय लावा—, फिर बड़े सरकार! हम देखली कि दूनी हरामिन आपस में लिपटि के खूब चुम्मा-चाटी करत रहेन।’
‘चुप रह रे लटकू। इतनी बेशरमी पर न उतर आ कि तेरे कान भी गरम करने पड़ें—।’, फिर तुरंत ललुआ की ओर अभिमुख हो कर्कश स्वर में बोले—‘ललुआ।’
‘जी सरकार!’ ललुआ उठकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, गोरा-सा छोकरा था। सत्रह साल की उमर थी। बुधनी की उमर पच्चीस से कम न थी।
‘तुझ पर लगाए इलजाम सच हैं, न रे?’ पूछा ठाकुर ने।
‘सच हैं, सरकार!’ ललुआ कांपते हुए बोला—‘बुधनी ने अपनी लच्छेदार बातों में मुझे फांस लिया था, बड़े ठाकुर!’
‘और तुम फंस गए?, इतने भोले हो।’
ललुआ चुप रहा।
‘बैठो तुम।’ ठाकुर ने आज्ञा दी—‘बुधनी इधर आ?’
बुधनी ने आकर ठाकुर के सामने माथ टोका, फिर कृत्रिम आंसू बहाती हुई बोली—‘दुहाई राजा की! मेरा पूरा न्याय हो, ठाकुर मालिक। कल रात में मैं बेसुध पड़ीं सो रही थी। कपड़ों का ख्याल नहीं था, सरकार! किवाड़ खुले थे। आंखें खुली तो देखा, यह मेरी बगल में लेटा हुआ था।
बहुत नशा किए था, ठाकुर राजा। जाने शराब पी थी या भांग। मैं डर से उठकर भागने लगी, उसने मेरी कमर पकड़कर बैठा लिया और नशे के झोंक में गाली दी, मारा भी। यह देखो, बड़े ठाकुर!’ बुधनी ने अपनी दाहिनी जांघ खोलकर एक दाग दिखा दिया—‘मैं क्या करती, बड़े ठाकुर! इसने मुझे बेबस कर दिया था।
गालों पर छाती पर, देखो सरकार!’ बुधनी ने अपने गाल दिखाए, थोड़ा-सा कपड़ा सरका कर छातियां दिखाई, उन पर दांतों के गहरे निशान थे।
‘और देखो, सरकार!’ बुधनी ने एक फटी-चिथड़ी धोती ठाकूर के सामने रख दी। यही धोती कल मैं पहने हुए थी। एकदम नई थी ठाकुर! पर आज इसकी दशा देखी जाय।’
दूर बैठे वैदराज और भीखम चौधरी में धीरे-धीरे बात हो रही थी। भीखम ने कहा—‘बुधनी बड़ी बदमाश है वैदराज! देखो, कैसी खुलकर बोल रही है, जैसे औरत नहीं, मर्द हो। बेशरम कहीं की। कसूर उसका ही है। बेचारे को सीधा पाकर फांस लिया, अब कैसे तिरिया चरित्तर दिखा रही है।’
उधर पंडित रामरक्षा शास्त्री और बड़े ठाकुर में अलग बातचीत हो रही थी। वे बुधनी पर विश्वास कर ललुआ को अपराधी समझ बैठे थे। दोनों में से किसी में निर्णायक बुद्धि नहीं थी।
‘कसूर ललुआ का है।’ ठाकुर ने अपना विचार प्रकट किया।
‘अवश्य!’ शास्त्री जी ने अनुमोदन किया—‘अहीर होकर एक नीच जाति से सम्पर्क रखना अत्यंत घृणित अपराध है, राजन! इसकी प्रायश्चित व्यवस्था भी बड़ी ही कठिन होनी चाहिए!’
ठाकुर उठ खड़े हुए बोले—‘ललुआ का ही दोष है। या तो उसे पंडित जी के कहे अनुसार प्रायश्चित करना होगा या गांव छोड़कर चले जाना होगा। साथ ही अपने माता-पिता, जमीन-जायदाद, भाई-बंधु सबको छोड़ देना पड़ेगा।’
अब शास्त्री जी उठे और बोले—‘यों तो ऐसे भारी अपराध की प्रायश्चित व्यवस्था अत्यंत गुरुतर है, फिर भी मैं एक सहज व्यवस्था बताता हूं।
पहले तो ललुआ को उदयाचल, अस्ताचल, हिमालय, मलयाचल तथा विन्ध्याचल—इन पांचों का दर्शन करना पड़ेगा। पुनः 101 ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें गोदान देना होगा, फिर पांच वर्ष तक प्रत्येक एकादशी को सत्यनारायण भगवान की कथा सुननी होगी।’
‘मैं गरीब हूं पंडितजी।’ जैकरन हाथ जोड़कर बोला—‘भला इतना भारी प्रायश्चित कैसे कर सकूंगा?’
‘गरीब हो तो अपने बेटे से सम्बन्ध तोड़ लो। निकाल दो उसे घर से। जहां चाहे जाकर वह जीवनयापन करे।’ कहकर शास्त्री जी बैठ गए।
‘बड़ी दुविधा में पड़ गया हूं पंचों।’ जैकरन बोला—‘प्रायश्चित करने की ताक नहीं, बेटे को छोड़ देने में मोह लगता है, खुद उसके साथ गांव छोड़कर जा नहीं सकता, क्योंकि जगह-मीन की भी तो ममता है?’

‘बड़े ठाकुर!’ वैदराज उठकर बोले—‘गलती बड़ों-बड़ों से हो जाती है। ललुआ तो अभी छोकरा है। पहला अपराध होने के कारण उसे क्षमा कर दिया जाना चाहिए।’
‘गलती के लिए मेरे पास दंड है वैदराज! क्षमा नहीं…।’ ठाकुर सक्रोध बोले।
‘ठीक है बड़े राजा! अगर आपका बेटा होता, तो आप क्या करते?’ वैदराज का मुंह आवेश से लाल हो उठा।
छोटे ठाकुर ने कांपकर वैदराज की ओर देखा—! तो क्या वैदराज उनका भेद खोलने जा रहे हैं?
‘मेरे बेटे के लिए भी यही दंड होगा, वैदराज!’ ठाकुर स्थिर वाणी में बोले।
‘सभी मनुष्यों से गलतियां होती हैं—।’ बोले वैदराज—‘यदि आपने ऐसी गलती की होती, तो?’
उपस्थित जनता कांप उठी। सिवा वैदराज के किसमें साहस था कि वह बड़े ठाकुर से ऐसा कठोर प्रश्न कर सकता है, खाल उधेड़ लेते ठाकुर उसकी।
मगर अब भी ठाकुर स्थिर रहे, बोले—‘मैं ऐसी गलत करने से पहले हाथी के पांव-तले अपने आपको रख देता वैदराज!’
वैदराज एक मर्मभेदी व्यंग्यात्मक हंसी हंसकर चुप रह गए। पंचायत उठ गईं।
अभागे जैकरन को अपने प्यारे लड़के ललुआ को घर से निकाल देना पड़ा। वह दूर जाकर अपनी मौसी के घर रहने लगा।
कई दिन बाद—
प्रातःकाल जैकरन अहीर उदासमान हो कंधे पर हल रखे हुए वैदराज के दरवाजे के सामने से जा रहा था, तो वैदराज ने पुकारा—‘इधर आना, जैकरन!’
जैकरन ने हल को एक कोने से टिका दिया और आकर बैठ गया। वैदराज बोले—‘आज तुम बहुत उदास दीखते हो?’
‘हंसी करते हो, वैदराज! जिसका पट्ठा जवान बेटा बिछुड़ गया हो, वह क्या खुशी मनाएगा? अब तो जिंदगी भर खट-खट करके मरना है वैदराज!’

‘तुम समझते हो कि वे लोग, जो उस दिन पंच बनके बैठे थे, वे दूध के धोऐ थे—।’ वैदराज बोले—‘बड़े ठाकुर, जो खद्दर के कपड़े पहनते हैं, रामरक्षा शास्त्री, जो कर्मकाण्ड बनते हैं, क्या इनका मन, इनकी आत्मा शुद्ध है, क्या इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है!’
वैदराज ने जैकरन के कंधे पर हाथ रखकर कहा—‘जैकरन! इनमें से एक-एक आदमी की करतूत मैं जानता हूं, मगर अवसिर की ताक में हूं, इसलिए चुप हूं आने दो मौका, देखना, तुम्हारा न्याय करने वाले ही तुम्हारे पैर पकड़ेंगे!’
‘तुम्हारी कृपा रही तो मैं जी जाऊंगा, वैदराज!’ कहकर जैकरन हल लेकर चला गया!
