ठाकुर दीप नारायण सिंह जब जलपान करने आए तो उन्होंने ठकुराइन से पूछा—‘आलोक जलपान कर चुका?’
‘हां!’ ठकुराइन ने छोटा-सा उत्तर दिया।
‘है कहां वह?’ ठाकुर ने पूछा।
‘ठकुराइन अम्मा के पास बैठा है।’ ठकुराइन ने कहा।
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ठाकुर दीप नारायण सिंह की माता को सभी लोग ठकुराइन अम्मा कहां करते थे।
‘अम्मा ने ही तो उसे सिर पर चढ़ा रखा है। बड़ा बदमाश हो गया है वह—!’ ठाकुर बोले।
‘वह कहता है कि ठकुराइन अम्मा को छोड़कर और कोई उसे प्यार नहीं करता।’ ठकुराइन बोली—‘मैं उसकी मां हूं, मगर मुझसे भी जाने क्यों असन्तुष्ट रहता है।’
‘मुझे तुम्हारा ख्याल है, ठकुराइन! नहीं तो मैं उसका दिमाग एक दिन में ठिकाने लगा देता।’
‘क्या करूं, ठाकुर…? आखिर वह अपना ही तो कलेजा है।’
‘मैं देख रहा हूं कि अब उसका मन यहां पर नहीं लग रहा है। आज कई दिन उसे यहां आए हो गए, मगर जमींदारी की ओर आंख उठाकर भी उसने नहीं देखा है। अब उसकी पढ़ाई समाप्त हो चुकी है। जमींदारी के काम से भागना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। मेरे पीछे और कौन बैठा है?’ ठाकुर बोले।
‘अभी उसे समझ नहीं है। समझते-समझते सब समझ जाएगा, ठाकुर! उसे प्यार से समझाइए।’ ठकुराइन ने कहा।
ठाकुर ने लम्बी सांस ली। सहसा ही उनके मुख से निकल गया—‘अगर आज कोई अपना बेटा—।’
‘तुम कैसी बात कहते हो…?’ ठकुराइन ने बीच ही में टोक दिया—‘वह अपना बेटा नहीं है, तो किसका…?’
मुख से अनायास निकल गईं बात पर ठाकुर एकाएक चौंक पड़े, बोले—‘है तो अपना ही बेटा, ठकुराइन, मगर हमारे जैसा दिमाग और स्वभाव उसका नहीं है। उस पर तुम और अम्मा, दोनों एक हो गईं हो। उसे डांटने भी नहीं देतीं…भला कैसे सुधारेगा वह? जरा उसे बुलाओ तो!’
ठकुराइन अन्दर चली गईं और एक युवक को साथ लेकर लौटी। युवक की अवस्था बीस साल की थी। वेशभूषा आधुनिक थी। रंग गोरा था। बदन पर साफ-सुथरा खद्दर का कुर्ता और जवाहर जैकेट थी।
ठाकुर ने उपेक्षा से युवक की ओर देखा युवक का नाम था ठाकुर आलोक नारायण सिंह। ठाकुर दीप नारायण का एकमात्र पुत्र था वह। पिता और पुत्र के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर था। एक था गरीबों पर अत्याचार करने वाला क्रूर जमींदार और दूसरा था सरल प्रकृति का सौम्य एवं शांत युवक। उसे गरीबों के प्रति सहानुभूति थी, पद-दलितों के प्रति दया थी और थी अपने पिता के प्रति भयंकर घृणा और विद्रोह की भावना!
‘बैठो।’ ठाकुर की आवाज में इतनी तीक्ष्णता थी, जैसे वे अपने पुत्र से नहीं, किसी आसामी से बात कर रहे हों।
चुपचाप बैठ गया आलोक।
‘अब क्या करने का इरादा है तुम्हारा?’
‘जो आप आज्ञा दें…।’ युवक ने उत्तर दिया।
‘तुम्हारी पढ़ाई खत्म हो चुकी है, मैंने तुम्हें, इसलिए पढ़ाया-लिखाया कि तुम मेरे काम में हाथ बटाओ। मेरा विचार है कि तुम अब जमींदारी का काम देखो।’
‘बहुत अच्छा!’ आलोक बोला।
‘मेरे साथ आओ!’ कहते हुए ठाकुर बाहर की ओर चले।
आलोक उनके पीछे-पीछे चला।
बैठक में आकर उन्होंने पुकारा—‘सम्पत।’
तुरंत एक लठैत आ उपस्थित हुआ।
‘कारिन्दे को बुलाओ।’ ठाकुर ने कहा।
दूसरे ही क्षण जमींदार का कारिन्दा आ गया। उसने ठाकुर को अदब के साथ जुहार की और छोटे ठाकुर को सलाम।
‘देखो—।’ ठाकुर बोले—‘तुम छोटे ठाकुर को जमींदारों का काम शीघ्र समझा दो और आज साथ ले जाकर सारी जमींदारी इन्हें दिखा दो।’
‘बहुत अच्छा सरकार!’ कारिन्दा बोला। उसने छोटे ठाकुर को साथ आने का संकेत किया।
आलोक चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
बड़ी देर तक जमींदारी के कागजात देखता रहा। आज उसके नेत्रों के समक्ष जमींदारों की हथकंडों की पोल खुल गईं। उसका हृदय
घृणा से भर उठा। कैसे कर सकेगा वह इतनी क्रूरता, इतनी दगाबाजी, इतना छल-कपट! आज उसकी समझ में आया कि उसके पिता अमीर, सम्पन्न एवं जमींदार कैसे बने और अन्य ग्रामवासी निर्धन तथा दीनहीन क्यों हैं?
‘विश्वासघात…! यही तो है जमींदारी का मूल मंत्र। अब उसे भी निर्धन ग्रामवासी कृषक का रक्त-शोषण करना पड़ेगा, अब उसे भी उनके जीर्ण-शीर्ण हड्डियों के ढांचे पर लात-घूसों की वर्षा करनी पड़ेगी।
अब समझ चुके छोटे ठाकुर…।’ कारिन्दा बोला—‘चलिए, अब जरा जमींदारी की सैर कर लीजिए।’
‘आज नहीं…।’ आलोक ने कहा—‘कल चल के देख लूंगा।’
कागजात देखकर उसका हृदय घृणा से भर गया।
‘कल नहीं, आज! समझे छोटे ठाकुर?’
आलोक ने पीछे से घूमकर देखा तो देखता ही रह गया। उसके पिता ठाकुर दीपनारायण सिंह उग्र मुद्रा धारण किए खड़े थे।
‘आज तबीयत नहीं लग रही है, पिताजी।’ आलोक ने साहस बटोरकर कह दिया।
‘तबियत लगेगी कैसे…?’ ठाकुर ने व्यंग्य किया—‘कहीं सभा हो, गरीबों के सुधार की बातें सुननी हों, तब लग सकती है तुम्हारी तबियत, मगर उस काम में, जिससे तुम्हारा लाभ है, जिससे पलकर तुम इतने बड़े हुए हो—उसमें तुम्हारी तबियत नहीं लग सकती है, न?’
आलोक चुप हो गया। पिता के उग्र स्वभाव को वह बाल्यावस्था से ही देखता आया है। वह जानता है कि उसके पिता ने कभी उसे प्यार नहीं किया और न कर सकेंगे।

‘कारिन्दा!’
‘जी सरकार!’
‘छोटे ठाकुर अभी जमींदारी देखने जायेंगे। हाथी तैयार कराओ और लठैतों को साथ में ले लो। तुम भी साथ चले जाना।’
ठाकुर के एक-एक शब्द में आज्ञा की कठोरता झलक रही थी।
‘हाथी की क्या जरूरत है, पिताजी?’ आलोक बोला—‘पैदल ही चला जाऊंगा मैं।’
‘पैदल…।’ क्रोधपूर्ण हंसी हंसे ठाकुर—‘ठाकुर का बेटा पैदल जाएगा? हाथी पर चढ़ते हुए शर्म लगती है। चमार के घर क्यों न पैदा हुए तुम?’

आलोक की मुखाकृति अप्रतिभा हो गईं। वह चुपचाप बाहर निकल आया। हाथी तैयार खड़ा था।, लठैत भी हाथों में लम्बी-लम्बी लाठियां लिए हुए अदब से खड़े थे।
छोटे ठाकुर को देखकर महावत ने हाथी बैठाया। छोटे ठाकुर हाथी पर जा चढ़े। हाथी मन्थर गति से चल पड़ा। कारिन्दा तथा लठैत पैदल चले।
