वैदाराज अत्यधिक आश्चर्यचकित हो उठे। पंडित रामरक्षा शास्त्री और जैकरन अहीर को इस मध्याह्न बेला में आया देखकर। जैकरन अहीर वैदराज का पांव पकड़कर बोला—‘दुहाई वैदराज की! मेरा न्याय अभी हो। मैंने छोटे ठाकुर को घटिया के साथ तालाब पर देखा है। अब बड़े ठाकुर से कहिए कि वे छोटे ठाकुर का भी न्याय करें—उसी तरह जिस तरह उन्होंने ललुआ का किया था।’
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‘तुम यह साबित कर सकते हो?’ वैदराज का चेहरा अतिशय गम्भीर हो उठा।
‘हां वैदराज! इसीलिए पंडित जी को साथ लेकर आपके पास आया हूं। मैं साबित कर सकता हूं।’
‘तो ठीक है। यह मामला चलकर बड़े ठाकुर के सामने उपस्थित करो।’
‘चलिए वैदराज! शीघ्र बड़े ठाकुर के पास चलिए—!’ जैकरन बोला।
‘तुम बड़े तैश में आ गए हो जैकरन—!’
‘तैश नहीं वैदराज! उजड़ा हुआ व्यक्ति क्या तैश में आएगा? मुझे अब देखना है कि न्याय की दुहाई देने वाले ठाकुर में न्याय का कितना वजन है?’ जैकरन ने सीना ऊंचा कर कहा—‘चलिए देर न कीजिए!’
दोपहर का खाना खाकर अभी बड़े ठाकुर लेटे ही थे कि ठकुराइन धीरे से आकर उनकी चारपाई पर बैठ गईं। ठाकुर जानते थे कि ठकुराइन का इस प्रकार आकस्मिक आना कोई-न-कोई विशेष तात्पर्य रखता है। अतः उन्होंने पूछा—‘कोई जरूरी काम है क्या ठकुराइन?’
‘है अवश्य, पर कहते हुए बड़ी दुविधा होती है, ठाकुर!’
ठाकुर चारपाई पर उठकर बैठ गए। स्नेहपूर्वक बोले—‘कुछ कहो भी!’
‘बड़ा अचरज है ठाकुर! जब से छोटे ठाकुर की नाक पर से पट्टी हटी है, मेरे दिल में न जाने, वह मोह नहीं रहा! हृदय में वह स्नेह नहीं उमड़ता। थोड़े दिनों तक तो बहुत संतोष था, ठाकुर! अब तो पुनः पहले जैसी बेचैनी रहने लगी है।’
‘यह बात मैं तुमसे कहने वाला था। आज सुबह उससे पूछा कि नाक पर किसी घाव का निशान क्यों नहीं है, तो बोला—‘नाक में फोड़ा हो रहा था, बैठ गया, फिर निशान कैसे रहेगा?’
‘आज मध्यान्ह से ही न जाने कहां पैदल गया हुआ है।’
उसी समय बाहर से चुटकी बजने की आवाज आई। ठकुराइन भीतर चली गईं।! एक लठैत हाजिर हुआ और बोला—‘शास्त्री जी, वैदराज और जैकरन अहीर बैठक में सरकार की बाट देख रहे हैं।’
ठाकुर उठकर बैठक की ओर चले।
जैसे ही ठाकुर ने बैठक में प्रवेश किया, उन्होंने पंडित रामरक्षा शास्त्री और वैदराज को गद्दी पर तथा जैकरन अहीर को हाथ जोड़े जमीन पर बैठे हुए देखा।
बड़े ठाकुर ने शास्त्री जी को प्रणाम किया और वैदराज ने बड़े ठाकुर को जुहार की।
‘बहुत संगीन मामला आ गया है, बड़े सरकार!’ वैदराज बोले उनके मुख पर गम्भीरता थी—‘जैकरन का कहना है कि उसने छोटे ठाकुर को…।’
‘कहो! कहो!’ ठाकुर अधीर होकर बोले—‘रुक क्यों गए, वैदराज—?’
‘जैकरन का कहना है कि उसने छोटे ठाकुर को घटिया के साथ तालाब पर देखा है।’ वैदराज ने बात खोल दी।
सुनकर बड़े ठाकुर का रोम-राम सिहर उठा। आंखों में लाल-लाल डोरे उतार आए। क्रोधपूर्ण स्वर में बोले—‘घटिया—? भीखम
चौधरी की बिटिया?’
‘हां, ठाकुर!’ शास्त्री जी बोले।
‘दुहाई हो ठाकुर की! न्याय होना चाहिए, ठीक उसी तरह जिस तरह मेरे लड़के का हुआ है! अत्यधिक विह्वल होकर जैकरन बोला।
‘चुप रह!’ गजरे ठाकुर—‘बेईमान कहीं का। इतना अधीर क्यों हो रहा है?’
ठाकुर का क्रोध देखकर जैकरन थर-थर कांपने लगा।
‘दिखा सकता है, मुझे तू?
‘हां, बड़े राजा!’ जैकरन बोला।
‘तो चल, जल्दी चल—!’ बड़े ठाकुर की आंखों में खून उतर आया था। चेहरा लाल हो रहा था और वे क्रोध से कांप रहे थे।
वे उठकर अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद जब वे निकले, तो उनके बदन पर रेशमी मिर्जई तथा हाथ में मजबूत डण्डा था। वैदराज ने आगे बढ़कर ठाकुर का डण्डा पकड़ लिया।
‘डण्डा रख दो ठाकुर—!’ वैदराज बोले—‘वे जानते थे कि क्रोधित ठाकुर हाथ में लाठी रहने पर जो न कर डालें।’
बड़े ठाकुर कुछ बोले नहीं। लाठी उन्होंने नहीं रखी। चुपचाप बाहर आए। ठाकुर को कहीं जाते देख लठैत साथ हो लिए।
‘तुम लोग रुको।’ ठाकुर ने आज्ञा दी।
जैकरन के पास एक छाता था। उसने बड़े ठाकुर के ऊपर छाता खोलकर छाया कर दी। सब सेहटा गांव की ओर तेजी से बढ़ चले।
निर्मल जल के किनारे बरगद के साए में, प्रेमालाप करते हुए उन दो प्रेमासिक्त व्यक्तियों को यह क्या मालूम था कि उनकी उच्छृंखलता देखने के लिए समाज के बड़े-बड़े कर्णधार उपस्थित हुए हैं।
तालाब के किनारे एक घने वृक्ष की ओट में आकर खड़े हो गए सब लोग—ठाकुर, शास्त्री, वैदराज और जैकरन।
उस समय प्रेमाभिनय में भूले हुए वे दोनों मदहोश प्रेमी, एक दूसरे से लता की तरह लिपटे हुए दोपहरी की ज्वाला को और उद्दीप्त कर रहे थे। दोनों के मुंह एक हो रहे थे, छातियां एक दूसरे की धड़कन सुन रही थीं, बोंहें एक दूसरे को अपने में समाए हुए थीं।
बड़े ठाकुर ने प्रज्ज्वलित नेत्रों से देखा—अपने बेटे का वह नग्न रूप, जिसके लिए उन्होंने आज तक कितनों को कठिन-से-कठिन दण्ड दिये थे। उनका शरीर जोरों से कांप उठा। उन्होंने अपने दोनों हाथों से दोनों आंखें मूंद लीं। डण्डा खट से जमीन पर गिर पड़ा।
जैकरन ने आगे बढ़कर ठाकुर का कम्पित शरीर पकड़ लिया। एक भी शब्द बिना उच्चारण किए वे उसी क्षण वहां से लौट आए।
बैठक में आकर धम्म से गद्दी पर गिर पड़े, फिर बोले—‘क्या होना चाहिए, वैदराज?’
‘न्याय होना चाहिए बड़े ठाकुर!’ शास्त्री जी बोले उठे।
‘होगा पंडित जी! न्याय होगा—।’ बड़े ठाकुर लम्बी सांस लेकर बोले—‘लोग देखें ठाकुर का वह न्याय, जो अब तक उन्हें देखने को नहीं मिला होगा।’
वैदराज ने कुछ कहना चाहा मगर चुप रहे।
‘मैं इज्जतदार आदमी हूं, अपनी इज्जत की धूल में मिलते न देख सकूंगा, पंडित जी—!’ मैं ठाकुर हूं! जीने की इच्छा है, तो मरने की शक्ति भी है।’
‘ठाकुर!’ वैदराज बोले—‘कितने कमजोर हो तुम! जरा-सी बात में ही मरने की ठान ली।’
‘यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न है, वैदराज! और प्रतिष्ठा के साथ उचित न्याय का भी।’
‘आपको अपनी प्रतिष्ठा का इतना ख्याल है सरकार, पर गरीबों की प्रतिष्ठा कुचल देने में आप तनिक भी संकोच नहीं करते—।’ दिलजले जैकरन ने भयंकर व्यंग्य किया।
ठाकुर बिगड़े नहीं, बोले—‘जैकरन! इस समय मुझ पर जो बीत रही है, वह मैं ही जानता हूं। उस बेईमान छोकरे को दण्ड देने की बात होती, तो मुझे रंचित भी दुख न होता—दुख है, तो इस बात का कि उसने ठाकुर घराने की इज्जत का तनिक भी ध्यान नहीं रखा। उसने मेरी उठी हुई मूंछें नीचे झुका दी हैं।’
लोगों ने आश्चर्य से देखा कि ठाकुर की ढेंठी हुई मूंछें सचमुच नीचे की ओर झुक गईं हैं। ठाकुर कहते गए—‘अब ये मूंछें कभी न ऊंची होंगी, जैकरन! मैं बहुत शर्मिन्दा हूं, मेरे लिए इतना ही दण्ड काफी है, मैं घुटना टेककर तुमसे अपनी इज्जत की भीख मांगता हूं।’
वह दुर्दान्त जमींदार, जिसकी निर्दयता दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी, आज सचमुच एक गरीब कृषक के पैरों पर गिर पड़ा था। आंखों में आंसू आ गए थे उसके।

जैकरन ने झटपट अपने पैर खींच लिए—‘मुझे नरक में न घसीटो, बड़े राजा!’ उसने कहा—‘आपके न्याय पर अपने बेटे का बलिदान किया है, तो आज अपने आपको आपकी इज्जत के लिए बलिदान करता हूं। आप मालिक है। आपकी इज्जत में दाग लगे, ऐसा मैं कभी नहीं करूंगा, ठाकुर! अब मेरे मुंह से कोई भी इस बात को नहीं सुन सकेगा।’
ठाकुर उठ खड़ा हुआ। चेहरा आंसुओं से तर था! आज उनकी यथेष्ठ मानहानि हुई थी। उन्होंने पुकारा—‘सम्पत!’
एक लठैत आ उपस्थित हुआ।
‘छोटे ठाकुर आयें हों तो उन्हें यहां उपस्थित करो।’
छोटे ठाकुर आए। बड़े ठाकुर ने लठैत को संकेत से बाहर जाने की आज्ञा दी।
छोटे ठाकुर खड़े रहे।
‘छोटे ठाकुर!’ गरज कर बोले बड़े ठाकुर—‘आज इन आंखों ने तुम्हारी वह करतूत देखी है, जिससे ठाकुर घराने की प्रतिष्ठा
धूल-धूसरित हो गईं है।’
‘पिताजी!’
‘चुप रहो—।’ चिल्ला पड़े ठाकुर—‘बीच में बोलते शर्म नहीं आती। कई पुश्तों से जिस घराने पर कोई धब्बा न लगा था, आज उस पर धब्बा लगाकर जुबान लड़ाते हो—!’ उठकर खड़े हो गए ठाकुर! उनकी जबान, अपने हाथ-पैर, उनके होंठ बेतरह कांप रहे थे।
‘धुरहू ! सम्पत ! बिरजू ! सरजू बाबा!’ कर्कश आवाज में पुकारा उन्होंने।
पांचों लठैत आ उपस्थित हुए।
‘छड़ी लाओ।’ उन्होंने क्रोध में कड़ककर कहा।
एक लठैत ने बेंत की एक लम्बी छड़ी उनके हाथ में दे दी।
सटाक्! सटाक्! उनके हाथ का वह पतला बेंत छोटे ठाकुर की पीठ पर पड़ने लगा। छोटे ठाकुर सिर नीचा किए हुए खड़े रहे।
एक शब्द भी न बोले। मुंह से उफ् तक नहीं निकला। लठैत भी मौन खड़े रहे।
‘ठाकुर!’ चिल्ला पड़े वैदराज, जो अकस्मात ही उस समय वहां आ पहुंचे थे—‘अनर्थ न करो, ठाकुर!’ दौड़कर उन्होंने ठाकुर के हाथ की वह बेंत पकड़ ली।
‘छोड़ दो, छोड़ दो, वैदराज!’ ठाकुर गरज कर बोले—‘यह ठाकुर का बेटा नहीं है। ठाकुर का बेटा होता तो मर जाता, मगर ऐसा कुकर्म न करता, वैदराज! इस चमार के बेटे ने—।’
‘ठाकुर…! बडे ठाकुर!’ वैदराज तीव्र आवाज में बोले—‘तुम्हारी जुबान बेलगाम हो रही है ठाकुर! इतना नीचे गिरकर तुम अपने आपको कलंकित कर रहे हो। छोटे ठाकुर नहीं, तुम स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर कुठाराघात कर रहे हो।’

बड़ी कठिनाई से ठाकुर का क्रोध शांत हुआ। छोटे ठाकुर अंदर आए। उनकी आंखों में आंसू न थे, क्रोध न था, घृणा न थी—उनमें था विराट प्रश्न-चिन्ह।
आंगन में ठकुराइन खड़ी थी। बोली—‘क्या हुआ बेटा—?’
छोटे ठाकुर बोले कुछ नहीं। कमरे में आकर कमीज उतारी और चारपाई पर लेट गए। आज से पहले ठाकुर ने उन्हें सैकड़ों बार झिड़कियां दी थीं, मगर पीटा कभी न था।
छोटे ठाकुर का हृदय क्षोभ से फटा जा रहा था।
ठकुराइन ने कमरे में प्रवेश किया। छोटे ठाकुर के नंगे बदन पर नजर जाते ही वे हाय कर उठीं—‘उफ्! इतना मारा जाता है कहीं? बराबर के बेटे पर हाथ उठाते हुए शर्म नहीं आई उन्हें?’ छोटे ठाकुर के शरीर पर बेंत के दाग उपट गए थे। कहीं-कहीं चमड़ा उचड़ गया था।?
ठकुराइन हांफती हुई दौड़ी आई। छोटे ठाकुर के बदन पर बेतों के निशान देखकर रोने लगीं। अब छोटे ठाकुर अपने को संभाल न सके। चारपाई पर से उठे। गले में कमीज डाली और तेजी के साथ दरवाजे के बाहर निकल गए। ठकुराइन को अनर्थ की आशंका हुई। वे दौड़ी हुई ठाकुर के पास आईं।
‘तुमने मारा है छोटे ठाकुर को?’ पूछा उन्होंने।
‘हां!’ ठाकुर का स्वर गंभीर था।
‘आखिर क्यों?’
‘तुम्हें जानने की कोई जरूरत नहीं, जितने आदमी जान गए हैं, उतना ही काफी है।’
‘इतना मारा जाता है कहीं? सारा बदन छिल गया है उसका।’ ठकुराइन रुंधी आवाज में बोलीं।
‘छिल जाने दो, उसने आज जो कार्य किया है, वह ठाकुर घराने में सैकड़ों पुश्तों से न हुआ होगा, कान खोलकर सुन लो—भीखम चौधरी की बेटी घटिया के साथ वह प्रेमालाप कर रहा था…।’
‘तुम बहुत निर्दयी हो, गलती सभी से होती है, क्या तुमसे नहीं हुई है?’
सुनकर ठाकुर सिर से पैर तक कांप उठे।
ठकुराइन ने उसकी इस कमजोरी पर तनिक भी ध्यान न देते हुए अपनी बात जारी रखी—‘वह न जाने किधर गया है। न जाने क्या इरादा है उसका। तुम उसे लौटा लाओ!’
‘मैं लौटाने नहीं जाऊंगा। तुम अंदर जाओ! शाम तक वह खुद ही घूम-फिरकर चला आएगा।’ ठाकुर ने कहा।
ठकुराइन क्रोध से कांपती हुई भीतर चली गईं।
